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कौन हो तुम ..?

कौन हो तुम? अथवा कौन हो आप? इन प्रश्नों में दुसरों के पहचान को जानने की जिज्ञासा है। दुसरा वह व्यक्ति है, जो समक्ष उपस्थित होता है। ‘कौन’ एक प्रश्नवाचक सर्वनाम है, जो किसी के पहचान के लिए प्रयुक्त होता है। वहीं ‘तुम’ और ‘आप’ का प्रयोग जो समक्ष हो, उसे संबोधित करने के लिए किया जाता है। यहां पहचान का आशय नाम , कुल-वंश , जाति , संप्रदाय , भाषा , संस्कृति , शिक्षा , कार्य की प्रकृति आदि से है। यह जो जिज्ञासा है, केवल दुसरों की पहचान को जानने तक सीमित नहीं है। इसमें महत्व की आकांक्षा भी निहित होती है। इसे स्वयं को दुसरों से अधिक महत्वपूर्ण समझने की आकांक्षा के रूप में देखा जा सकता है।

‘तुम’ के विपरीत का शब्द ‘मै’ है। स्वयं को संबोधित करने के लिए ‘मैं’ का प्रयोग होता है। ‘मैं’ का पर्यायवाची ‘अहम्’ है, जो संस्कृत भाषा का शब्द है। अहम् से ही अहंकार (अहम्+कार) बना है। गर्व, घमंड, अभिमान आदि अहंकार का पर्यायवाची हैं। कौन हूं मैं? यह विपरीत का प्रश्न है। इसमें स्वयं के विषय में जानने की जिज्ञासा है। परन्तु ‘मैं’ जो स्वयं का संबोधन है, इसे जानने के इच्छाशक्ति होना जरुरी है। इच्छाशक्ति हो तभी स्वयं को जानने का प्रयास किया जा सकता है।

‘कौन हो तुम? यह प्रश्न करनेवाला और कोई नहीं, ‘मैं’ है। वह ‘मैं’ जो अहंकार का धोतक है । इसमें स्वयं को जानने की जिज्ञासा नहीं है। स्वयं को जान लिया हो , ऐसा भ्रम है। ‘मैं’ का भाव है, तभी ‘तुम’ का आभास होता है। और ‘तुम’ से स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भावना होती है। इस प्रश्न के होने और न होने का कारण ‘मैं’ का होना है।

जिज्ञासा है, तभी प्रश्न भी है। और प्रश्न है तो उसका उत्तर भी है। अगर जिज्ञासा न हो, तो न प्रश्न उपस्थित होगा, और न उत्तर का खोज हो सकेगा। दोनों प्रश्नों में भिन्नता है। एक में ‘तुम’ को और दुसरे में ‘मैं’ को जानने की जिज्ञासा है। दोनों के उत्तर में सदृशता भी है, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं है। उत्तर प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसलिए प्रश्नों में भिन्नता की प्रतीति है।

मैं कौन हूं? यह जानने की जिज्ञासा का होना महत्वपूर्ण है। जिज्ञासा होगी, तभी खोज का आरंभ हो सकेगा। मैं को जानने के लिए किसी दुसरे से प्रश्न करने की आवश्यकता नहीं है। दुसरों से पूछकर स्वयं को नहीं जाना जा सकता है। स्वयं को जानने और दुसरों का आकलन करने की प्र‌वृति में भिन्नता है। आकलन करने की प्रवृत्ति अहंकार से प्रेरित होता है, जबकि जानने की जिज्ञासा ज्ञान की ओर प्रवृत्त करता है। जिज्ञासा में महत्व की आकांक्षा भी है, और ज्ञान की ओर प्रवृत्त होने की इच्छा भी है। ‘मैं’ सांसारिक स्वयं का संबोधन है, यह सांसारिक भाव भी है, और यही आध्यात्मिक त्तत्व भी है। इसलिए कहा गया है कि जिसने स्वयं को जान लिया, वह सबकुछ जान लेता है।

एक महत्वपूर्ण तथ्य है, ‘अहम् ब्रम्हास्मि।’ अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूं! ब्रह्म एक परिकल्पित महाशक्ति है, ब्रम्ह से ही ब्रम्हांड का अस्तित्व है। स्वयं का जो उत्कृष्ट स्वरूप है, आत्मत्तत्व है। यह जो आत्मत्तत्व है, ब्रह्म का ही अंश है, जो शास्त्रोक्त है। इस ‘मैं’ में ही सबकुछ है, स्वयं से ही सबकुछ है। यह अहंकार भी है, और ज्ञान का त्तत्व भी है। जब ज्ञान का उद्भव होता है, तो अहंकार विलुप्त हो जाता है।

महत्व की आकांक्षा और महत्वपूर्ण को जानने की आकांक्षा में भिन्नता का भाव है। महत्व की आकांक्षा में अहंकार का भाव है। कौन हो तुम? इस प्रश्न के उपस्थित होने का कारण अहंकार ही है। और वह जो स्वयं है, जो आत्मत्तत्व है, जो महत्वपूर्ण है। मैं कौन हूं? इस महत्वपूर्ण को जानने की जिज्ञासा है।

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