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योग क्या है? — What Is Yoga?

सामान्यत: योग का अर्थ होता है जोड़ना। सरल शब्दों में अंकों को अंकों से, वस्तुओं को वस्तुओं से, विचारों को विचारों से जोड़ना या मिलाना योग है। परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से इसका अर्य व्यापक हो जाता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ जोड़ने का प्रयास किया जाता है। यह शरीर, मन और आत्मा को संतुलित रुप में विकसित करने का उत्तम कला है। इस क्रिया को करने का उद्देश्य होता है समत्व को प्राप्त करना। और सुख-दुख में समभाव बनाये रखना ही समत्व कहलाता है। योग द्वारा मान्सिक शान्ति एवम् संतोष प्राप्त होता है। शान्त दिमाग का मतलब विचार शुन्य होना नहीं होता। इसका आशय है कि इसमें चल रहे विचार सतही होते हैं। शान्त मस्तिष्क वाले इन बाह्य विचारों से खुद को अलग रखने में सक्षम होते हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार; मन को संयमित करने के रहस्य को जानना योग है। ‘योग: चित्तवृत्तिनिरोध:’ महर्षि पतंजलि ने इसे चित्त की वृत्तियों के निषेध के रुप में परिभाषित किया है। 

महर्षि अरविन्द के अनुसार योगाभ्यास हमें अपने स्वयं की असाधारण जटिलताओं के साथ सामना कराता है। वास्तविकता तो यह है कि हमारा दुश्मन कोई बाहरी ताकत नहीं है! हमारी कायरता, हमारा स्वार्थ, हमारा पूर्वाग्रह ही हमारा दुश्मन है। उनके अनुसार योग का अर्थ दैविक शक्ति पर विश्वास रखते हुए जीवन की समस्याओं एवम् चुनौतियों का सामना करना है। योग का वास्तविक अर्थ है जीव का ईश्वर के साथ एकत्व प्राप्त करने की चेष्टा।

योगाभ्यास सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया है।

महर्षि अरविन्द की दृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मन की चंचलता और विचार मुक्त चित्त में बेहतर ठंग से नहीं किया जा सके। जब मन स्थिर होता है, तब सत्य को मौन की शुद्धता में सुनने का मौका मिलता है।

महर्षि ने कहा है, कि लक्ष्यहीन जीवन एक परेशान जीवन होता है, प्रत्येक व्यक्ति का एक उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन यह मत भूलो कि आपके उद्देश्य की गुणवत्ता आपके जीवन की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी। आपका उद्देश्य उच्च, व्यापक, उदार और उदासीन होना चाहिए। यह आपके जीवन को अपने और दुसरों के लिए अनमोल बना देगा। जो भी आपके आदर्श हैं, यह पुरी तरह से महसूस नहीं किया जा सकता, जब तक कि आप अपने आप में पुर्णता का एहसास नहीं करते हैं। योग मनुष्य के जीवन के गुणवत्ता को विकसित करता है।

आधुनिक युग में योग को केवल शरीर को दुरुस्त रखने की विधि समझा जा रहा है। यह केवल शरीर को स्वस्थ रखने का विधि मात्र नहीं है, बल्कि मनुष्य के जीवन का सम्पूर्ण विकास का साधन है। यह मनोबल, आत्मबल को बढ़ाने का और और इसे बनाये रखने का सबसे श्रेष्ठ विधि है। परन्तु इसमें थोड़ी प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।

योग के प्रकार:-

योग जितना पुराना है उतना समृद्ध भी है। मनिषियों ने इस महान प्रक्रिया का अनेक विधियों का आविष्कार किया है। कर्मयोग, अष्टांग योग, राजयोग, क्रियायोग, हठयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के रुप में इसके अनेक प्रकार का वर्णन मिलता है। संक्षेप में इस विधा के विभिन्न विधियों के संबंध में जानकारी प्रस्तुत है!:

कर्मयोग:

कर्मयोग इस प्रकार से कर्म करने का सीख देता है, जो किसी प्रकार का बंधन उत्पन्न ना कर सके। कर्म करना और कर्म में लीन हो जाना कर्मयोग है।
योगा कर्मों किशलयाम् योग: कर्मसु कौशलम्।
जो कर्म निष्काम भाव से किए जाते हैं, वे बंधन मुक्त होते हैं। गीता के अनुसार कर्म का परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करना चाहिए! कर्मफल और कामना का त्याग करके कर्म करना वास्तविक रुप से कर्मयोग है। श्रीकृष्ण के अनुसार कर्मयोग सभी योगों में श्रेष्ठ है। मानव जीवन का उद्देश्य आनंद को प्राप्त करना है। और इस लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
स्वामी विवेकानंद द्वारा इस विषय पर दिये गये व्याख्यान को एक पुस्तक में संकलित किया गया है, जो “कर्मयोग” के नाम से विख्यात है। विशेष जानकारी के लिए इस लिंक को क्लिक करें 👉कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga

अष्टांगयोग:

महर्षि पतंजलि ने ‘योगसूत्र’ नाम से एक ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें उन्होंने शारिरीक, मान्सिक एवम् आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग का मार्ग विस्तार से बताया है। योगसूत्र में अष्टांग योग के आठ अंग हैं। ये आठ अंग हैं; यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यम का अर्थ है संयम, जो पांच प्रकार का होते हैं, सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह। इसी प्रकार शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान नियम के अंतर्गत आते हैं। आसन से तात्पर्य है, सुखपूर्वक बैठने का तरीका, जो शरीर को स्थिर रखने की साधना है। श्वास-प्रश्वास की गति विच्छेद प्राणायाम कहलाता है। इन्द्रियां अपने बाहरी बिषयों से हटकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं, इसी का नाम प्रत्याहार है। शरीर के किसी अंग पर अथवा बाह्य पदार्थ पर मन को लगाना धारणा कहलाता है। मान्सिक शांति, एकाग्रता और मन को निर्विकार करने के लिए ध्यान किया जाता है। और ध्यान के परिपक्व अवस्था को समाधि कहा जाता है।

राजयोग:

राजयोग यानि सभी योगों का राजा, क्योंकि इसमें प्रत्येक योग की कुछ ना कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ इसका मुख्य ग्रन्थ है।

१९वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानंद ने इसपर प्रयोग किया था। इस विषय में उनके व्याख्यानों का संकलन ‘राजयोग’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। राजयोग के अन्तर्गत अष्टांगयोग का वर्णन मिलता है। 

मनुष्य का मन स्वभाव से ही चंचल होता है। वह एक क्षण भी किसी वास्तु पर ठहर नहीं सकता। इस मन की चंचलता को नियंत्रित कर उसे अपने वश में करना ही राजयोग का विषय है।

योगांगानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः।

क्रियायोग:

क्रियायोग राजयोग का एक स्वरुप है। इस प्रणाली में भी प्राणायाम का महत्व है। इसमें शरीर और मन को अनुशासन में लाने का प्रावधान है। महर्षि पतंजलि ने समाहित चितवालों के लिए राजयोग और चंचल चितवालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का मार्ग दिखाया है। क्रियायोग एक प्राचीन योग पद्धति है, जिसे आधुनिक काल में श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के द्वारा विकसित किया गया। और परमहंस योगानंद की पुस्तक ‘ओटोबायोग्राफी ओफ ए योगी‘ के माध्यम से जनसाधारण के बीच प्रचलित हुवा है। क्रियायोग एक सरल मन:कायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव रक्त कार्बन से रहित और ओक्सिजन से भरपुर हो जाता है। ओक्सीजन के अणु प्राणवायु में रुपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड को शक्ति प्रदान करते हैं। सभी योगों में यह सबसे सरल, प्रभावी और वैज्ञानिक मार्ग है।

हठयोग:

यह मन को संसार की ओर जाने से रोककर अंतर्मुखी करने की एक प्राचीन भारतीय परम्परा है। हठयोग के साधना में सात अंगो का जिक्र है। षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि इस योग के मुख्य अंग हैं। हठयोग की साधना करनेवाले को नाथयोगी भी कहा जाता है। हठयोग साधना कीमुख्यधारा शैव रही है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य हठयोग की साधना करते थे। बाद में बौद्धों ने भी इसे अपनाया।

ज्ञानयोग:

ज्ञानयोग वह मार्ग है जहां अन्तर्दृष्टि, अभ्यास और अनुभव के माध्यम से वास्तविकता की खोज की जाती है। अज्ञान का अर्थ ही है ज्ञान का अभाव। किसी विषय-वस्तु के वास्तविक आशय या स्वरूप से अंजान रहना अज्ञान है। ज्ञान का अर्थ परिचय से है, ज्ञानयोग स्वयं की जानकारी प्राप्त करने को कहते हैं। निरपेक्ष सत्य की अनुभूति ही ज्ञान है। यह प्रिय-अप्रिय, सुख-दुख आदि भावनाओं से निरपेक्ष होता है। यह अपने और अपने परिवेश को अनुभव के माध्यम से समझता है। इसका विभाजन रुप, रंग, गंध, शब्द और स्पर्श आदि विषयों के आधार पर होता है। स्वामी विवेकानंद का इस विषय पर व्याख्यान ‘ज्ञानयोग’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया है।

भक्तियोग:

वैराग्य ही प्रभुत्व की शुरुआत है!

भक्तियोग से आशय है प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा। प्रकृति से प्रेम और निष्ठा, प्राणि मात्र के प्रति सम्मान और उसका हित सोचना। हर कोई इस परम योग का अभ्यास कर सकता है।इस योग में ईश्वर के किसी भी रूप में, किसी भी पद्धति से आराधना करना सम्मिलित है। भक्ति के विना कोई आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। महर्षि अरविन्द के शब्दों में; ‘मेंरा ईश्वर प्रेम है और यह मधुरता से सबको प्रभावित करता है। संत कबीरदास के शब्दों में “ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय”।

पूर्णयोग:

महर्षि अरविन्द ने अपने शिष्यों को पूर्णयोग का उपदेश दिया है। पूर्णयोग वह सर्वांग साधन प्रणाली है, जिसमें मानव जीवन के भीतर प्रकृति और ईश्वर का पुनर्मिलन साधित करना होता है। पूर्णयोग प्रणाली में निम्न बातों पर ध्यान देना जरूरी होता है।

•शुद्ध मन से आत्मोत्सर्ग की भावना। •अपनी सत्ता के प्रत्येक अंश का सच्चाई के साथ समर्पण। •भगवान के साथ सचेतन एकता। •इसके रुपान्तकारी स्पर्श को प्रत्यक्ष रुप से स्वीकार करना। •भगवान ने जो कर्म हमारे लिए निर्धारित किया है, उसे दृढ़ विश्वास रखकर अंगीकार करना।

इनके अलावा और भी कई तरीके हैं योग के जिसके द्वारा लोगों ने साधना की है और सफल भी हुए हैं। संगीत, नृत्य, रुप, रंग, गंध, स्वाद आदि अनुभुतियों में मन को एकाग्र कर अनेकों ने योग के उच्चतम स्तर को प्राप्त किया है।

योग का उद्देश्य है मुक्ति!

प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रम्ह है! बाह्य एवम् अन्त: प्रकृति को वशीभुत करके इस ब्रम्हभाव को व्यक्त करना ही जीवन का परम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम, अथवा ज्ञान ! इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रम्हभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान, पद्धतियां, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया कलाप तो उसके गौण व्योरे मात्र हैं। _ स्वामी विवेकानंद

समस्त ज्ञान सर्वानुमति पर आधारित है!

स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि “तुम स्वयं देख लो, जान लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो”

समस्त ज्ञान स्वयं की अनुभूति पर आधारित है। अपने अनुभव के द्वारा हम सामान्य से विशेष तक का सफर तय करते हैं। जानकारों का कहना है कि पूर्वकालीन अनुभवों को पढना, सुनना आवश्यक है। परन्तु इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुवे विना कोई सिद्ध नहीं हो सकता। पढ़ने, सुनने से कोई लाभ नहीं होता, गुणने से लाभ होता है। जबतक कि उत्तम विचारों को व्यवहार में न लाया जाय, कुछ भी हासिल नहीं होता।

भारतवर्ष में जितने वेदमतानुयायी दर्शनशास्र हैं, सबका एक ही लक्ष्य है, पूर्णता प्राप्त करके आत्मा को मुक्त कर लेना। अगर आत्मा है, सत्य है, ईश्वर है, तो इसे जानना होगा। और इसे जानने का उपाय है योग। जिस विद्या के द्वारा ये अनुभव प्राप्त होते हैं, उसका नाम है योग।

महर्षि अरविन्द ने कहा है कि कोई किसी को सीखा नहीं सकता है, जब खुद में इच्छा जागती है तभी कोई सीख पाता है। 

योगाभ्यास के प्रति प्रतिबद्ध होना जरुरी होता है!

महत्त्वपूर्ण यह है, कि किसी भी तरीके को अपनाकर, नियमित अभ्यास करते हुए जीवन को सार्थक करना। सामान्य शब्दों में समझा जाय तो योग जिसके अन्तर्गत व्यायाम, आचरण और ध्यान सबकुछ शामिल हैं। यह शरीर को स्वस्थ रखने, चारित्रिक विकास और आत्मबल के स्तर को बनाए रखने का सबसे आसान तरीका है। परन्तु इन समस्त योगों की साधना में मनुष्य को अपने साधारण रहन सहन में विशेष परिवर्तन करना पड़ता है। सहजता के साथ इसका अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे इसके व्यापकता का अनुभव होने लगता है। योग ऐसी विधा है, जिस पर जितना लिखा जाए कम है। जब आप योग कर रहे होते हैं तो आपके अन्दर अच्छे भाव जग रहे होते हैं। परन्तु साथ ही साथ विपरीत शक्तियां भी अपना काम कर रही होती हैं। इसी विन्दु पर बहुत से लोग लड़खड़ा जाते हैं। योग एक साधना है, साध्य तक विना प्रतिबद्धता के जा पाना असंभव होता है।

मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूं, परन्तु तुम यदि साधना ना करो तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु-महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं, कि इन्द्रियां हमें जहां तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं, हमने उससे उच्चतर सत्य को प्राप्त कर लिया है। तुम एक निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, और यदि उच्चतर सत्य प्राप्त न हो, तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य की बातें केवल कपोल-कल्पित हैं। पर हाॅं, इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिल्कुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है। अतः निर्दिष्ट प्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक है, और तब प्रकाश अवश्य आयगा। ____स्वामी विवेकानंद