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कर्मयोग के रहस्य — Secrets of Karma Yoga

जानिए कर्मयोग का रहस्य क्या है !

कर्मयोग एक ऐसा शब्द है, जिसके गर्भ में गहन अर्थ निहित है। इस शब्द को परिभाषित कर पाना सरल नहीं होगा। किसी भी तथ्य को जानने समझने के लिए अनेक ग्रंथ और शास्त्र उपलब्ध हैं। स्वाधयाय के साथ हम अपने समझ को विकसित कर सकते हैं। प्रस्तुत आलेख इस महत्त्वपूर्ण विधा पर अपने अध्ययन-मनन के आधार पर लिखने का प्रयास भर है। कर्मयोग के आशय को समझने के लिए पुरे शान्त मन से गहन चिंतन की आवश्यकता है। कर्मयोग के गुढ़ रहस्य को विना चिंतन और अभ्यास के जान पाना असंभव है।

सामान्यत: कर्मयोग का अर्थ होता है कर्म में संलग्न हो जाना। यह शब्द ‘कर्म’ और ‘योग’ इन दो शब्दों से बना है। कर्मयोग के अर्थ को ठीक-ठीक समझने के लिए ‘कर्म’ और ‘योग’ पर विचार करना आवश्यक है।

कर्म एक क्रिया है। हमारा बोलना, सुनना, देखना, खाना, सोना, सांस लेना, पढ़ना, सोचना आदि जो भी हम करते हैं, सब कर्म है। हमसे हर पल कर्म होते रहते हैं। सामान्यतः जो कुछ किया जाता है वही कर्म है। जो भी हम करते हैं, वह शारिरीक हो या मान्सिक सब कर्म ही है। 

गणित के अनुसार योग का अर्थ जोड़ने से होता है। इस प्रकार से देखें तो स्वयं को कर्म में संलग्न करना योग है। और गहराई से विचार किया जाय, तो कर्मों का कुशलता पूर्वक संपादन करना योग है। 

कामनारहित कर्म ही कर्मयोग है!

निस्वार्थ भाव से कर्म, अर्थात् अपने कर्मों के साथ कामनारहित भाव को जोड़ देने के उपरान्त का अवस्था कर्मयोग है। अतः यह कहा जा सकता है, हम अपने कर्मों का संपादन कैसे करें! कर्त्तव्यों का निर्वहन निरपेक्ष भाव से कैसे करें! यह जान लेना और इसे व्यवहार में लाना कर्मयोग है। 

ओशो इसे गणित के सुत्र में समझाते हैं। उनके अनुसार कर्मयोग को अगर एक गणित के भाषा में कहें, तो  यह सुत्र सामने आता है “कर्म – कामना = कर्मयोग“। जहां कर्म से कामना को घटा दिया जाता है, फिर जो शेष बच जाता है वही कर्मयोग है।

दार्शनिक दृष्टि से इस शब्द का आशय व्यापक हो जाता है।

विगत समय में अनेक मनिषियों ने अपने तपोबल से इसके रहस्य को जाना है, और अपने अनुभव जन्य विचारों को प्रगट किया है। इन् विभुतियों में से एक स्वामी विवेकानंद का प्रसिद्ध पुस्तक ‘कर्मयोग’ उनके द्वारा दिए गए व्याख्यानों का संकलन है। पवित्र ग्रन्थ गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग की शिक्षा दी है। श्रीमद्भागवत गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। 

दार्शनिक कर्म के सिद्धान्त को विस्तार रुप से समझाते हैं। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मनुष्य का अंतिम लक्ष्य सुख नहीं ज्ञान है, क्योंकि सुख अस्थायी होता है। मनुष्य अज्ञानतावश यह समझ बैठता है, कि सुख ही उसका परम लक्ष्य है। हमारा हंसना-रोना, सुख-दुख, हर्ष-विषाद, स्तुति-निंदा ये सब हमारे मन के बाहरी तल के अनेक घात-प्रतिघात का परिणाम है, हमारा चरित्र इसी का फल है।

स्वामीजी के अनुसार; मन को संयमित करने के रहस्य को जानना योग है। उनके अनुसार कर्मयोगी वह है, जिसने संयम के रहस्य को जान लिया है। उनके अनुसार कर्मयोगी, जो परम शांति एवम् निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का! तथा प्रबल कार्यशीलता के मरुस्थल की शान्ति का अनुभव करते हैं। 

मन का समत्व भाव ही कर्मयोग है!

पवित्र गीता में कहा गया है, कि मन का समत्व भाव ही योग है। जिसमें मनुष्य मिलना-बिछुड़ना, लाभ-हानि, सुख-दुख, सफलता-विफलता को समान भाव से मन में धारण करता है। 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

अर्थात् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है; कि सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान मानकर तुम युद्ध करने के लिए चेष्टा करो। इस प्रकार युद्ध करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं होगा। 

निष्कर्ष यह है कि जो सुख-दुख, लाभ-हानि की चिन्ता किए विना कर्म करता रहता है उसे दुख नहीं होता। दुख का आभास होने पर भी दुख उसे प्रभावित नहीं कर पाता। 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

मनुष्य जीवन का अभिप्राय कर्म करने में है। परन्तु कर्मो के परिणाम पर  उसका अधिकार नहीं होता। परिणाम की चिंता किये विना कर्म में लगा रहनेवाला ही कर्मयोगी कहलाता हैं। कर्मयोग सिखाता है कि आसक्ति रहित कर्म करो! कर्म के लिए कर्म करो! कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता, वह कर्म फल का त्याग करता है और कर्मजनित दुखों से मुक्त हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सीख देते हुवे कहते हैं !

अर्थात् कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है! फल में कभी नहीं। तुम कर्म के परिणाम के प्रति आसक्त मत होना और कर्म को ना करने में भी तुम्हारी आसक्ति नहीं होना चाहिए।

कर्मयोग से मुक्ति प्राप्त होता है।

ज्ञानियों ने कहा है कि कर्म ही बंधन का कारण है, और कर्म ही मुक्त होने का कारण है। जीवन को सफल बनाने के लिए सही समझ का होना जरूरी है, ज्ञान का होना जरूरी है। अगर हमारे अंदर अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव न हुवा हो, हमारा चरित्र उत्तम नहीं हो पाया हो। अगर हमने अपने इन्द्रियों को नियंत्रित करना नहीं सीखा हो, तो फिर यह जीवन बेकार हो जाता है। पवित्र गीता में भगवान श्रीकृष्ण निम्नांकित श्लोकों से इसी ओर इशारा करते हैं। 

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थीन्विमूढ़ात्मा मिथ्याचार: स: उच्चयते।।

अर्थात् जो मुर्ख मानव समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक बाहर से रोक कर मन से उन इन्द्रियों के बिषय में चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है।

यास्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त स विशिष्यते।।

अर्थात् हे अर्जुन जो पुरूष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त होकर समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

तस्मादसक्त: सत्यं कार्य कर्म समाचार।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुष:।।

इसिलिए तूम निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को भली भांति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुवा मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है‌।

चरित्र का गठन हमारे संस्कारों से होता है!

चरित्र का निर्माण जरूरी है – Character Building Is Important

अज्ञानी मनुष्य का सारा कार्यकलाप अपने इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही होते हैं। अगर उसे वह प्राप्त हो जाता है, जिसके लिए वह कर्म करता है तो उसे सुख प्राप्त होता है, परन्तु यह क्षणिक होता है। मनुष्य अज्ञानतावश यह समझ बैठता है कि सुख ही उसका परम लक्ष्य है।  सुख को चरम ध्येय समझना मनुष्य का भूल है, और जगत में समस्त दुखों का जड़ है।

आपसे कर्म होंगे तो उसके परिणाम भी अवश्य निकल कर आयेंगे। सफलता और विफलता दोनों ही स्थितियों में आपको अनुभव मिलेगा। सुख और दुख दोनो ही महान शिक्षक हैं। आपके चरित्र को एक विशिष्ट ढांचे में ढालने में सुख और दुख दोनों का हाथ होता है। महत्व इस बात का है, कि हम चीजों को लेते किस तरह से हैं।

विवेकानंद के शब्दों में; हमसे जो कर्म होते हैं, वो हमारे ऊपर अपना चिन्ह अंकित करते जाते हैं। अंकित हुवे इन्हीं चिन्ह ही हमारे संस्कार होते हैं। और हमारा चरित्र इन्हीं संस्कारों का समुच्चय होता है। हमारे अन्दर इच्छाशक्ति का विकास हमारे चरित्र से ही होती है। और चरित्र का गठन हमारे कर्मों से होता है। इस प्रकार देखा जाए तो सबकुछ हमारे कर्म पर ही निर्भर करता है। 

कर्मयोग हमारे आत्मज्ञान को जागृत करता है।

 “ब्रम्हांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं, वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है”

अपने इस कथन को स्वामीजी ने इस तरह समझाया है। “सभी तरह के ज्ञान प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहीत है, कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता। जिस प्रकार एक पत्थर के टुकड़े में अग्निनिहित है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान रहता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य जो जानता है, जो उसके मन के भीतर है, वह उसी को खोजता है। साधारण मनुष्य के मन में यह प्रकाशित न होकर ढंका रहता है। जिस मनुष्य पर यह आवरण तह दर तह पड़ा है, वह अज्ञानी है। और जिस मनुष्य पर से यह आवरण विल्कुल हट जाता है वह ज्ञानी हो जाता है।”

भौतिक सुखों को पाना जीवन का उद्देश्य नही है!

जीवन क्या है .. ! Meaning of Life ..!

हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते चले जायें, परन्तु इन चीजों से हमें स्थायी सुख प्राप्त नहीं होता। अगर एक इच्छा पुरी हुवी भी तो दुसरे के लिए हम सोचना शुरु कर देते हैं। हमारा कर्तव्य क्या है, अपने लिए, सगे संबंधियों के लिए, समाज के लिए! अगर इस बात को हम नहीं समझते और अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन निष्ठापूर्वक नहीं करते, तो फिर हम वास्तव में कर्म में नहीं होते हैं। वास्तविकता तो यह है कि जिन चीजों का उपार्जन हम अपने कर्म द्वारा करते हैं वही हमारा होता है। कर्त्तव्य का निर्वहन करने के लिए जो कर्म होते हैं, उसे पुरा कर लेने पर आत्मसंतुष्टि का भाव उत्पन्न होता है। ऐसे कर्म लाभ-हानि, यश-अपयश के सोच से परे होते हैं। केवल कर्म के लिए कर्म करने से समस्त कर्त्तव्यों का निर्वहन करना संभव हो जाता है। कर्मयोग हमें यही सिखाता है। ऐसा करनेवाले कर्मजनित दुखों से मुक्त हो जाते हैं।

कर्मयोग पर चर्चा करते हुए ये मुख्य विंदु हमारे सामने उभर कर आता है। 

•मनुष्य के चरित्र का निर्माण उसके संस्कारों से होता है।

•सामान्य मनुष्य भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना में ही लगा रहता है।

•मनुष्य के दुखों का कारण ज्ञान का अभाव है।

•परिणाम की चिंता के विना प्रत्येक कर्म को करने में विश्वास रखना चाहिए।

•अपने कर्तव्य का निर्वाह करना ही जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिए

संयमित मन विकासशील होता है!

मन के मते न चलिये – Man Ke Mate Mat Chaliye

इस प्रकार हम देखते हैं कि अच्छे विचार,  उत्तम चरित्र और आत्मज्ञान के विना  हमसे जो कर्म होते हैं, वो कामना रहित नहीं हो सकते। हमारे कर्म अच्छे हों, हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकें, इसके लिए हमें स्वयं को संयमित करना सीखना ही होगा। स्वामीजी कहते हैं; संयमित व्यक्ति का मन शान्त होता है। ऐसे लोगों के मन में सकारात्मक विचारों का प्रवाह होता रहता है। किसी बड़े शहर की भरी हुई सड़कों के बीच से जाने पर भी उनका मन उसी प्रकार शान्त रहता है, मानो वो किसी नि:शब्द गुफा में हो, और इस स्थिति में भी उसका मन सारे समय कर्म में तीव्र गति से लगा रहता है।

अगर मन की चाहत, कामना, वासना मिट जाए तो फिर कोई चिंता शेष नहीं रहती, जिनकी कोई चाहत नहीं होती वे मुकद्दर के सिकन्दर कहलाते हैं। कवि रहीम ने इस अवस्था को अपने दोहे में इस तरह से समझाया है!

चाह गई चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिनको कुछ नहीं चाहिए, वे साहन के साह।

यह संसार एक पुस्तकालय है!

परन्तु साधारण मनुष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता। वह सांसारिक उलझनों में ही उलझकर रह जाता है। वह उस अज्ञनता से बाहर प्राप्त निकलने का प्रयास ही नहीं करता। अच्छे विचारों को सुनने, अच्छी पुस्तकों को पढ़ने से हमें प्रेरणा अवश्य मिलती है। परन्तु इसका कोई लाभ नहीं होता, यदि इन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास न हों। जो स्वयं को जानने का, खुद को उत्कृष्टता की ले जाने का प्रयास करते हैं! उनके लिए यह संसार एक पुस्तकालय के समान होता है। यह संसार उनके लिए साधन होता है, जिसके सहायता से अर्जित अनुभवों के आधार पर स्वयं को संयमित करने का प्रयत्न करते हैं। आत्मज्ञान को पाना उनका साध्य होता है। वह जीवन पर्यंत इसी साधना में लगा रहता है। जो सफल होता है, वही कर्मयोगी कहलाता है।

स्वामीजी ने कहा है, कि विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है। बाह्य जगत तो तुम्हें अपने मन को अध्ययन में लगाने के उद्दीपक तथा सहायक मात्र हैं।

अच्छे संगत से अच्छे विचार मिलते हैं

कर्मयोगी संत कबीरदास अच्छे विचारों को समझने, अच्छे संगति में रहने का सलाह देते हैं। उन्होंने कहा है, कि गंधी अर्थात इत्र बेचने वाले के पास रहें तो वह अगर कुछ भी न दें तो भी उससे सुगंध तो मिल ही जाती है।

कबिरा संगत साधु की ज्यों गंधी का बास।

जो कुछ गंधी दे नहीं तो भी बास सुवास।।

सांसारिक बंधनों में बंधे रहने के कारण हम अपने भीतर के गहराई तक पहुंचने के मार्ग को स्वयं बंद कर देते हैं। फलस्वरूप हम अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाते हैं।  ज्ञान से, विवेक से, सत्य से अर्थात् ईश्वर से दुर चले जाते हैं। कबीरदास के अनुसार य यह एक बड़ा दोष है,  इसे सब लोगों को सुन लेना तथा जान लेना चाहिए।

आन कथा अंतर परै, ब्रहम् जीव मे सोये। कहै कबीर यह दोश बर सुनि लिजेय सब कोय।।

संशयात्मक बुद्धि पतनशील होता है!

जीवन में दुख क्यों है? – Jeevan Me Dukh Kyun Hai?

शास्त्रों में उल्लेखित कथा के अनुसार, समुद्र को मथे जाने पर बिष और अमृत दोनों निकलकर बाहर आया था। विचारों से ही कुविचार और सुविचार दोनों निकलकर कर आते हैं। हमें हमेंशा अच्छे विचारों के साथ चलना चाहिए। सबकुछ समझ के स्तर पर निर्भर है।

दार्शनिक कामना रहित कर्म करने की बात करते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिकों का विचार इसके विपरीत जान पड़ता है। मनोविज्ञान कहता है कि कर्म कामना रहित हो तो वह होगा कैसे! क्योंकि कर्म की प्रेरणा तो कामना से ही उत्पन्न होती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जहां कर्म है, वहीं कामना है। साधारण मनुष्य भी कुछ इस तरह ही सोचता है। वह कुछ चाहता है, इसलिए कुछ करता है। इच्छा पहले फिर छाया की तरह उसका कर्म उसके पीछे-पीछे चलता है। वह श्रीकृष्ण का दर्शन समझ में नहीं पाता, उसे विवेकानंद और कबीर की बातें समझ में नहीं आती है। इसी संशय के साथ उसका जीवन गुजर जाता है। संशयात्मक बुद्धि उसे पतन की ओर ले जाता है। जरा संत कबीरदास के इन दोहों पर विचार किजिए! तो यह समझ में आ जायेगा कि संशयात्मक बुद्धि मनुष्य का क्या हाल कर देता है।

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये । दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।।

माया मरी ना मन मरा, मर मर गया शरीर । आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर ॥

कर्तव्य क्या है!

कर्त्तव्य शब्द की भी सहज व्याख्या करना कठिन है। जीवन के विभिन्न कर्त्तव्यों के का निर्वाह मनुष्य के मान्सिक और नैतिक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। केवल बाहरी कारणों के आधार पर इसे परिभाषित करना सरल नहीं होगा। परन्तु आंतरिक दृष्टिकोण से कर्त्तव्य की व्याख्या हो सकती है। गहनता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो हमें उन्नत बनाते हैं, कुछ हमारे पतन का कारण होते हैं। 

विवेकानंद के अनुसार किसी भी कर्तव्य को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। अपने सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवम् हृदय तथा मन को उन्नत बनाने वाले कार्य करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। हमारे उन्नति का एक मात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कार्य करें जो हमारे हाथ में है। धीरे-धीरे शक्तिसंचय करते हुए हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। कर्त्तव्य के संबंध में सर्वमान्य विचार ये है, कि ज्ञानीजन अपने विवेक के आधार पर कर्म करते हैं, जबकि असंतुष्ट पुरुष के लिए के लिए सभी कर्त्तव्य नीरस होते हैं।  हमें चाहिए कि हम काम करते रहें, जो कुछ भी हमारा कर्त्तव्य हो, उसे करते रहें, अपना कंधा सदैव काम में भिड़ाये रखें।

परोपकार परम कर्त्तव्य है!

प्रत्येक वह कर्म कर्त्तव्य बन जाता है, जो परोपकार के लिए होते हैं। शास्त्रों में उल्लेखित है कि “परोपकार:, पुण्याय, पापाय परपीड़नम्” , अर्थात् परोपकार ही पुण्य है और दुसरों को दुख पहुंचना पाप है। विवेकानंद ने सरल शब्दों में योग के संबंध में कहा है; कि विना किसी निजी स्वार्थ के परोपकार के लिए अपना कर्त्तव्य श्रेष्ठ तरीके से निभाना ही कर्मयोग है। यही कर्मयोग का आदर्श है।

यशोदास द्वारा गाया इस गीत की ये पंक्तियां परोपकार के के लिए प्रेरित करती हैं।

सूरज न बन पाए तो बन के दीपक जलता चल

फूल मिले या अँगारे सच की राहों पे चलता चल

प्यार दिलों को देता है, अश्कों को दामन देता है

जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है

मधुबन खुशबू देता है..! सागर सावन देता है..।।

ज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्तत्व है!

कर्मों का संपादन सही तरीके से हो, इसके लिए जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्तत्व है, वह है ज्ञान। व्यवहारिक दृष्टि से महर्षि अरविन्द ने इसे दो भागों में बांटा है, द्रव्यज्ञान और आत्मज्ञान। द्रव्यज्ञान हमें इन्द्रयों के माध्यम से प्राप्त होता है और आत्मज्ञान अंत:करण से। आत्मज्ञान हमें योग के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। पर इसके लिए स्वस्थ शरीर, विकार रहित मन और संयमित आचार विचार आवश्यक है। योग के द्वारा मनुष्य अपने शरीर, मन एवम् कर्म पर नियंत्रण रख उसे उचित दिशा में ले जा सकता है। महर्षि के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य आनंद को प्राप्त करना है। इस लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। 

दुनिया एक व्यायामशाला है!

जीवन का आनंद कैसे उठाएं – Jeevan Ka Anand Kaise Uthayein

साथियों बिषय ऐसा है कि चर्चा कभी खत्म नहीं होगा। निष्कर्ष यही है कि इस संसार को हम द्रव्यज्ञान से ही अनुभव कर पाते हैं। अच्छा-बुरा, सुख-दुख का आभास हमें हमारे इन्द्रियों के कारण होता है। और इन्द्रियां हमारे मन से संचालित होती हैं। मन पर संयमित किए विना हमसे लगातार अच्छे कर्म नहीं हो सकते।  लिए स्वयं को संयमित करना आवश्यक होता है। हम जो कर रहे होते हैं, अगर वे हमारे चरित्र को दुर्बल बनाते है तो उस कर्म को कभी भी नहीं दोहराना चाहिए। पहले संसार का अनुभव करो, फिर स्वयं में सुधार करते चलो। ऐसा करते हुवे धीरे धीरे आत्मज्ञान जागृत तक पंहुचा जा सकता है। यह कठिन है, पर असाध्य नहीं है। परन्तु इसके लिए दिवानगी की जरूरत है।  किसी ने कहा भी है, ” ये इश्क नहीं आसां, इतना समझ लिजिए! ये आग का दरिया है और तैर कर जाना है!”स्वामी विवेकानंद भी यही समझा गये हैं!”दुनिया एक महान व्यायामशाला है, जहां हम खुद को महान बनाने आते हैं”उन्होंने समस्त मानव जाति को संबोधित करते हुए कहा  है; “जब तक जीना है तब तक सीखना है, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है”

साथियों मन में उथल-पुथल तो होता ही रहता है। पढ़ने सुनने से बातें समझ में आ जाती तो फिर बात ही कुछ और होती। लेकिन हां अगर आपमें जानने मे रुचि है, कुछ अच्छा करने की सोच है,  तो यह अच्छी बात है। बस इसे आंच देते जाना है। अभ्यास करते जाना है, अच्छी आदतों को गले लगाने का और बुरी आदतों को छोड़ते जाने का। चिन्तित ना हों,क्योंकि बदलाव तुरन्त नहीं होता है, समय लगता है। जोर जबरदस्ती से बातें और बिगड़ जाती हैं। स्वामी विवेकानंद भी यही समझा गये हैं!

स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan

स्वामी विवेकानंद ने कहा है; “यह दुनिया एक महान व्यायामशाला है, जहां हम खुद को महान बनाने आते हैं” उन्होंने समस्त मानव जाति को संबोधित करते हुए कहा  है; “जब तक जीना है तब तक सीखना है, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है”

सौदागर बनो व्यवसायी नहीं

हालात तुम्हारे वश में नहीं, पर मन को वश में करना तुम्हारे वश में होता है। समय को मै मानता हूं, यह बहूत शक्तिशाली है। जब समय विपरीत हो, हालात से जंग लड़ना पड़े, तो प्रतिरोध नहीं प्रतिकार की करो। जहां तक बात आती है कामना से मुक्त होने का, तो यह आसान नहीं है। तुम्हारा मन इन्द्रियों के द्वारा वो सब करवाता है, जो वह चाहता है। सिर्फ हालात से नहीं मन से भी तुम्हें लड़ना होता है। यहां भी तुम्हें प्रतिरोध नहीं प्रतिकार करने की कोशिश करो। इस संसार में जो भी उपलब्ध है, धन-दौलत, वस्तु, पद, ऐश्र्वर्य सब तुम्हारे लिए है। इस संसार में सब-कुछ भोग्य है।  इच्छाओं का दमन करो तो वो और बलवती होती जाती हैं। दमन से नहीं नियंत्रण से उनपर विजय प्राप्त कर सकते हो। दुध  स्वास्थ्यप्रद होता है और शराब हानिकारक होता है, ये बात प्रत्येक के मुख से सुनने को मिलती है। अगर तुम्हारा मन शराब पीने को करे, तो पीयो। क्योंकि उसे पीकर ही तुम्हें यह अनुभव मिलेगा, कि तुम्हें इसे पीने से  लाभ हो रहा है या हानि। किसी भी कर्म से, किसी भी वस्तु से घृणा मत करो। कौन बुरा है और कौन भला यह तुम्हारा अनुभव तुम्हें बताएगा। जो भी करो मन से करो, अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपनी ताकत लगा दो। परन्तु इतना ध्यान अवश्य देना, कि जो भी तुमने किया उससे तुम्हें क्या मिला। लाभ या हानि! जिन कार्यों से, जिन विचारों से, जिन आदतों से, जिन वस्तुओं से तुम्हें हानि हो, उनका परित्याग करते चलो। तुम्हारी कामना, तुम्हारा कर्म केवल लाभ के लिए होना चाहिए। अगर हानि होती है, चाहे वह आर्थिक हो, मानसिक हो, अथवा शारिरीक हो धीरे-धीरे परित्याग करने का प्रयत्न करते चलो। धीरे-धीरे वह समय भी आएगा जब तुम्हारे मन में सिर्फ अच्छे विचारों का प्रभाव होगा, अच्छी वस्तुओं की चाहत होगी। और फिर  तुम अपने अनुभव जनित ज्ञान से, अपनी इच्छाशक्ति से  स्वत: धीरे धीरे विकसित होते चले जावोगे। और वह समय भी आएगा जब तुम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर पाने की स्थिति को प्राप्त कर सकोगे। हर दिन कुछ समय के लिए अपने आप से बात करना बहुत जरूरी है। तुमसे जो कर्म हो रहे हैं, उनसे तुम्हें लाभ-हानि में से क्या मिला है और आगे तुम्हें क्या करना चाहिए। सौदागर बनो व्यवसायी नहीं, सौदागर हर सौदा लाभ के लिए करता है। तुम्हारा कर्म अध्ययन, अनुभव, चिंतन, अभ्यास और प्रयास तुम्हें एक दिन तुम्हारे आत्मा से मिला देगा। और स्वयं को जान लेना ही जीवन का उद्देश्य है। स्वयं को जान लेना, अर्थात् ईश्वर को जान लेना है, यह जो अवस्था है, सरल और सहज तरीके से प्राप्त होने वाला कर्मयोग है। 

यह सीख मुझे मेंरे आदर्श, पितातुल्य स्वामी तपेश्वरानंद से मिली है। दैनिक कर्म में स्वाध्याय का बहुत महत्व है। उनका कहना था, कि अपने दैनिक कार्य करते हुए, समय निकालकर गीता का अध्ययन अवश्य करो। इसे अपने कर्तव्य में शामिल कर लो। समझ में ना आवे फिर भी पढ़ो, बार बार पढ़ो, धीरे-धीरे समझ में आने लगेगा। तर्क से ऊपर ज्ञान होता है, जहां दर्शन का अंत होता है वहां से अध्यात्म शुरु होता है। गीता पढोगे तो स्वयं को जानने की ओर अग्रसर हो जावोगे। 

स्वामी तपेश्वरानंद – Swami Tapeshwaranand : biography

साथियों बड़े बुजुर्गो को आपने यह कहते हुवे सुना ही होगा! “जब जैसा तब तैसा नहीं तो फिर मर्द कैसा”।  विचारों का यह संकलन आप सबों को कैसा लगा, अपनी प्रतिक्रया अवश्य देंगे। अगले आलेख में शरीर और मन को संयमित करने की विधा यम और नियम पर चर्चा करने का प्रयास करूंगा।