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चैत्र नवरात्र का महत्व —

हिन्दू धर्मावलंबियों में वर्ष में दो बार नवरात्र का पर्व मनाने की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। एक आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक, जिसे शारदिय नवरात्र कहा जाता है। और दुसरा चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक, जिसे चैत्र नवरात्र कहा जाता है। दोनों ही नवरात्रों का अपना विशेष महत्व है। इस आलेख में अध्ययन एवम् अपने मनोभाव के आधार पर चैत्र नवरात्र के विषय में चर्चा कर रहा हूं। आशा करता हूं कि इसे पढ़कर पाठकों के मनोभाव पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

विक्रमी संवत के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा नववर्ष का प्रथम दिन भी होता है। चैत्र नवरात्र के नौ दिन नये कार्य के शुरुआत के लिए शुभ माने जाते हैं। चैत्र नवरात्र को बासंती नवरात्र भी कहा जाता है। नवरात्र में नौ दिनों तक देवी-शक्ति की उपासना का विधान है। नवरात्र यानि नौ रात्रियों तक चलने वाला व्रत ! प्राचीन समय में ऋषि-मुनि अधिकांशतः रात के समय पूजा-पाठ एवम् जप-हवन आदि किया करते थे।

वैज्ञानिक परिपेक्ष्य से भी विचार करें तो दिन में सुरज की किरणें ध्वनि तरंगों के प्रवाहित होने में अवरोध उत्पन्न करती है। रात्रि में वायुमंडल में धुलकणों की मात्रा भी न्युनतम होती है। इस प्रकार पूजा-अर्चना एवम् मंत्रजप के विचार तरंगों में भी दिन के समय अवरोध उत्पन्न होता है। कदाचित यही कारण रहा होगा कि ऋषियों ने रात्रि को अधिक महत्वपूर्ण माना है। और इसलिए नौ दिनों तक चलने वाले शक्ति की उपासना के व्रत को नवरात्र की संज्ञा दी गई है।

यह जो समय है ऋतु परिवर्तन का होता है। यह समय ग्रीष्म के आगमन एवम् वसंत के गमन के बीच का संधिकाल होता है। इस अवधि में प्रकृति के वातावरण में परिवर्तन का दौर चलता है। यह अवधि खगोलीय स्थिति में भी बदलाव का होता है। इस दौरान सूर्य का मेंष राशि में प्रवेश होता है। संधिकाल में परिवर्तन के इन घटनाओं का असर हमारे तन-मन को भी प्रभावित करता है।

ऋतु परिवर्तन का जो समय होता है, अनेक व्याधियों के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस अवधि में अपने तन और मन को स्वस्थ और निर्मल रखने के लिए विशेष प्रक्रिया का पालन करना जरूरी माना गया है। सात्त्विक आहार लेना, उत्तम विचारों के साथ उत्तम कर्मों में संलग्न रहने का सकारात्मक प्रभाव तन-मन पर पड़ता है। इन क्रियाओं का नियमानुसार पालन करने से तन और मन की अशुद्धियां बाहर आ जाती हैं। तन और मन विकार मुक्त हो जाता है। चैत्र नवरात्र के व्रत को हम इस परिप्रेक्ष्य में भी देख सकते हैं।

या देवी सर्वभूतेषु चेत्यनित्यविधियते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

शास्त्रों में उल्लेखित है कि जगत के कण-कण में, समस्त प्राणियों में चेतना स्वरुप में , ऊर्जा के रूप में देवी शक्ति का वास है। गहन अर्थों में चैत्र नवरात्र को आत्मशुद्धि और मुक्ति का आधार माना गया है। चैत्र नवरात्र में आदि शक्ति की उपासना करने से नकारात्मक ऊर्जा का शमन होता है। शास्त्रों में उल्लेखित विवरणों के अनुसार चैत्र नवरात्रि के प्रथम तिथि को मॉं दुर्गा का अवतरण हुवा था। और उनके इच्छानुसार ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने जगत की रचना की थी। मॉं दुर्गा को इच्छामयी, जगतजननी एवम् आदिशक्ति के नाम से भी जाना जाता है। समस्त आर्यावर्त के विभिन्न प्रदेशों में इस पावन पर्व ‘चैत्र नवरात्र’ को धुमधाम से मनाया जाता है।

शास्त्रों में चेतन तत्त्व यानि प्रकृति के तीन गुणों का उल्लेख किया गया है। ये तीन गुण हैं- सत , रज और तम! पहले तीन दिनों तक तमोगुणी प्रकृति की उपासना की जाती है। बीच के तीन दिन रजोगुणी प्रकृति का एवम् आखिरी के तीन दिन सतोगुणी प्रकृति की उपासना का विधान है। प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं के भीतर के चेतन तत्त्व को जगाना इस व्रत का उद्देश्य होता है। इस अवधि में शक्ति के नौ रूपों की आराधना की जाती है। अपने तन-मन की शुद्धि एवम् भीतर सकारात्मक ऊर्जा के संचय के लिए श्रद्धालु विभिन्न प्रकार से व्रत, पूजा-अर्चना, यज्ञ-हवन, जप-तप आदि शुभ कर्म किया करते हैं।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतियं चन्द्रघंटेति कुष्मांडेति चतुर्थकम्।। पंचमं स्कन्दमाता षंष्ठमं कात्यायनी च। सपत्मं कालरात्रि: महागौरी चाष्टमं।। नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:। उक्ताणयेतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

प्रतिपदा, द्वितिया एवम् तृतिया तिथि को मॉं के शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी एवम् चन्द्रघंटा स्वरुप की आराधना की जाती है। चौथी, पंचमी एवम् छठी तिथि को कुष्मांडा, स्कंदमाता एवम् कात्यायनी स्वरुप की आराधना होती है। और सातवीं, आठवीं एवम् नौवीं तिथि को कालरात्रि, महागौरी एवम् सिद्धिदात्री स्वरुप के आराधना का विधान है। इस प्रकार नवरात्र के नौ तिथियों में मॉं नवदुर्गा के नौ स्वरुपों की उपासना की जाती है। शास्त्रानुसार प्रत्येक तिथि एवम् प्रत्येक स्वरूप के पूजा-अर्चना का विशेष महत्व होता है।

नवरात्र में शक्ति के ५१ पीठस्थलों में जो पूरे भारतीय उपहाद्वीप में स्थित हैं, शक्ति की आराधना के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। जो इन पावन स्थलों तक नहीं जा पाते, वो आसपास के मन्दिरों में अथवा अपने घर पर ही शक्ति का आह्वान कर उपासना करते हैं। जानकारों का कहना है कि समस्याओं से छुटकारा पाने हेतु मां दुर्गा का आराधना अत्यंत फलदायी होता है। मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहा जाता है। पूजा-अर्चना अगर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाय तो शुभ परिणाम प्राप्त होते है। इन दिनों माता का पूजा-अर्चना करने से भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने की संभावना प्रबल होती है।

“सर्व मंगल मांगल्ये ..!” माता के आराधना करने के लिए प्रचलित मंत्रों में से एक है। मां जगतजननी के आठवीं स्वरुप महागौरी को समर्पित यह मंत्र सुख-शांति, सौभाग्य एवम् समृद्धि प्रदान करने वाली है।

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।शरण्येत्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

हे नारायणी! सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी मॉं! हे शिवे! सब प्रकार की सिद्धियों को साधनेवाली सर्वार्थसाधिके! शरणांगतवत्सला! सद्बुद्धि देनेवाली त्रिकालदर्शी मॉं गौरी के श्री चरणों में नमस्कार है !!!

सबकी मान्यताएं अलग होती हैं, और श्रद्धा, विश्वास जैसी भावनाएं किसी पर जबरन थोपा नहीं जा सकता। परन्तु सकारात्मक विचारों को अपनाने से, शुभ कर्मों को करने से जीवन में सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अत: हमें नवरात्र के व्रत के महत्व पर गहराई से विचार करना चाहिए। और हो सके तो हर किसी को अपने समझ और सामर्थ्य के अनुसार इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए।

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