पूजा का अर्थ क्या है? इस प्रश्न का सटीक उत्तर देना अत्यंत कठिन है। वो इसलिए की सबकी धारणाएं इस विषय पर एक नहीं होती। यह श्रद्धा और विश्वास का विषय है। यह स्वयं के अनुभव का विषय है। पूजा-अर्चना, आराधना जैसी पावन शब्दों का अर्थ अनुभव से ही जाना जा सकता है। फिर भी इस आलेख में सामान्य मान्यताओं एवम् जानकारी के आधार पर इस विषय पर लिखने का प्रयास किया गया है।
सामान्यतः पूजा एक धार्मिक क्रिया है, जो दैवी शक्ति के किसी स्वरुप के मुर्तरुप के समक्ष भौतिक वस्तुएं रखकर की जाती है। वस्तुओं में फूल, फल, नैवेद्य, वस्त्र-आभुषण आदि होते हैं, जो आराध्य को अर्पित किए जाते हैं। यह अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए दैविक शक्तियों को प्रसन्न करने की एक क्रिया है। विभिन्न दैविक शक्तियों की पूजा इसलिए भी की जाती है कि हम उनसे सांसारिक जीवन में इच्छित कामनाओं की पूर्ति कर सकें।
वस्तुत: यह एक ऐसी क्रिया है जिसमें श्रद्धा, विश्वास और समर्पण जैसे मनोभावों का समावेश होता है। पूजा-अर्चना अपने आराध्य के प्रति समर्पण की प्रक्रिया है। पूजा-अर्चना के द्वारा हम अपने इष्ट की आराधना करते हैं। दैवी शक्तियों की आराधना के अनेक तरीके हो सकते हैं। आराध्य के नाम-रूप का स्मरण, भजन-कीर्तन, पूजा-अर्चना, जप-तप, यज्ञ-हवन आदि के द्वारा दैविक शक्तियों की उपासना की जाती है। पूजा में अर्पित की गई भौतिक वस्तुएं और की गई क्रियाएं कर्ता के आध्यात्मिक योग्यता को विकसित करती हैं। इन अनुष्ठानों को करने से कर्ता का मन शांत होता है। इनके द्वारा भीतर मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। जिससे कर्ता जीवन के अन्य कर्तव्यों के निर्वहन में समर्थ हो जाता है।
वस्तुत: पूजा-अर्चना की क्रिया आध्यात्मिक पथ में अग्रसर होने की एक पद्धति है। हिन्दू प्राचीन ग्रंथों में कर्मकांड का उल्लेख किया गया है। कर्मकांड में विभिन्न अनुष्ठानों के निर्देश भी दिए गए हैं। इन अनुष्ठानों में दैविक शक्ति के विभिन्न स्वरुपों में उनकी पूजा, जप-हवन संलग्न है। वेदों, पुराणों एवम् स्मृतिग्रंथों में पूजन के विशेष पद्धतियों का वर्णन मिलता है। षोडशोपचार विधि एक ऐसी प्रक्रिया है जो सौलह चरणों में संपन्न की जाती हैं। भक्त सुविधानुसार मंदिर और घर दोनों ही स्थल पर पूजन किया करते हैं।पूजा-अर्चना का आयोजन सरल एवम् विस्तृत दोनों रुप में की जाती है। घरों में आयोजित पूजा प्रक्रिया में दैविक शक्तियों की मुर्ति या छवि को समक्ष रखा जाता है। इनमें दैविक ऊर्जा के विद्यमान होने का भाव मन में धारण किया जाता है।
किसी भी पूजा में कर्ता अपने इष्ट को आवाहन देता है। फिर अतिथि के रुप में मान्यता देकर उनंका स्वागत करता है। श्रद्धापूर्वक उनका सेवा-सत्कार करता है। और अंत में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विनती करता है। फिर त्रुटियों के लिए क्षमा मांगता है, और ससम्मान विदा करता है। जिसे यह सब करना नहीं आता, वो अपने लिए किसी जानकार को, इसके लिए नियुक्त करता है। दुसरों के लिए पूजन क्रिया करवाने वाले पुरोहित कहलाते हैं।
विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष अनुष्ठान भी आयोजित किए जाते हैं। एक पुरोहित के मार्गदर्शन में विशेष अवसरों पर विशेष अनुष्ठान पूर्ण किये जाते हैं। षोडशोपचार विधि में सौलह चरणों में पूजन क्रिया को संपन्न किया जाता है। पांच चरणों अर्थात् पंचोपचार विधि से भी पूजा का विधान है। पंचोपचार में पांच चरणों में पूजा किया जाता है। इन पांच चरणों में चंदनादि द्रव्य, पुष्प धुप, दीप एवम् नैवेद अर्पित किए जाते हैं। पंचोपचार द्वारा पांचो इन्द्रियों को क्रिया में लगाया जाता है। पंचोपचार पूजा विधि षोडशोपचार विधि का ही संक्षिप्त कड़ी है। अगर मन में श्रद्धा हो तो एक दीपक जलाकर भी शांतचित्त होकर प्रभु नाम-रूप का स्मरण किया जा सकता है। पूजा-अर्चना संयमित होकर एवम् श्रद्धापूर्वक की जाने वाली एक पावन क्रिया है। श्रीमद्भागवत गीता के एक श्लोक में पूजा-अर्चना के मर्म को सरल ढंग से दर्शाया गया है।
पत्र पुष्पं फलं तोयं यो ये भक्त्या प्रयच्छति ।तदहं भक्तयुपहृतमश्रामि प्रयात्मन:।। ९.१६।।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि कोई भक्त मेंरे लिए प्रेमपूर्वक, निष्काम भाव से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पित करता है, तो उस शुद्ध बुद्धि द्वारा अर्पण किे गए पत्र-पुष्पादि को मैं सगुण रुप में ग्रहण करता हूं।
आराधना में जो महत्त्वपूर्ण त्तत्व है, वह है ईश्वर के प्रति भक्तिभाव का होना! पूजा को एक ऐसे कार्य के रुप में देख सकते हैं, जो हमें अनुशासित कर भक्ति के मार्ग पर चलने का अभ्यास कराता है। जैसे-जैसे इस क्रिया में संलग्न होकर कोई आगे बढ़ता, उसे विभिन्न प्रकार के अनुभव भी होते हैं। और इसी आधार पर उसका विश्वास अपने आराध्य के प्रति प्रबल होता जाता है। धीरे-धीरे यह श्रद्धा और फिर भक्ति में रुपान्तरित हो जाती है। इस चरण तक जो नहीं पहुंच पाते, उनके लिए यह आडंबर है।दैवी शक्तियों को केवल फूल-फल चढ़ाने या धुप-दीप दिखाने मात्र से ही मनोकामनाएं पूरी नहीं हो जाती। इसके लिए इच्छित दिशा में लगनपूर्वक प्रयत्न करने की जरूरत होती है। परन्तु यह मानकर कि इस क्रिया को करने से सफलता की संभावना बढ़ जाती है, उत्तम परिणाम अवश्य मिलते हैं। जो ईश्वर की आराधना के साथ साथ पुरुषार्थ करते हैं, उनके दुख और दारिद्र दुर होते हैं और ऐश्र्वर्य बढ़ता है।
ऋगवेद का निष्कर्ष यह है कि पूजा एक पावन क्रिया है। अगर जीवन में ऐसी पावन क्रिया का अभ्यास हो, तो इससे बिगड़ता कुछ भी नहीं है। नित्य प्रतिदिन कुछ समय के लिए ही सही, पूजा-अर्चना करने से मन शांत होता है। जीवन में कर्तव्यों के निर्वहन में मन का शात होना जरूरी है।
जहाज किसी भी दिशा में क्यों न जाए, कम्पास की सुई उत्तर की ओर ही होती है, जिसके कारण दिशाभ्रम नहीं होता। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का मन अगर भगवान की ओर रहता है तो उसे किसी बात का भय नहीं होता।
रामकृष्ण परमहंस
दैवी शक्तियों पर अगर विश्वास हो तो इनकी पूजा करने से मनोबल बढ़ता है। यह अनुभूति होती है कि हमारे प्रयासों पर किसी दिव्य शक्ति की छत्रछाया है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कर्म तो करने ही पड़ते हैं। हां अगर सांसारिक कार्यों के साथ साथ जीवन में धार्मिक कार्यों का समावेश हो तो यह अच्छी बात है। उतम कर्मों से कोई हानि नहीं होती, इस क्रिया में होने से सफलता की संभावना बढ़ जाती है।
Pingback: दिल जलता है तो जलने दे।। - Adhyatmpedia
Pingback: अति भला न बोलना..! - Adhyatmpedia
Pingback: ऐसी लागी लगन ..! - Adhyatmpedia
Pingback: व्यवहार कुशल होना जरुरी क्यों है... - Adhyatmpedia
Pingback: होली उत्सव का महत्व। - AdhyatmaPedia