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मन का आपा खोय …

मन का आपा खोय – इस ऊक्ति का आशय है मन को अहंकार से मुक्त करना। यह उक्ति एक कबीर वाणी का अंश है।

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहूं शीतल होय।।

ऐसी वाणी बोलिए !  जो सुनने में मधुर लगे, जिससे किसी को कोई कष्ट ना पहुंचे। वाणी एक शब्द जिसका संबंध ध्वनि से है। हम जब बोल रहे होते हैं तो हमारे मुख से ध्वनि निकलती है। बोलते समय ध्वनि अगर मधुरता से भरी हो तो हर किसी को सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन सिर्फ मधुर ध्वनि से वाणी मधुर नहीं हो जाती। वाणी में मधुरता को बनाए रखने के लिए शब्दों के चयन का भी उतना ही महत्व है। और जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह बोलते समय हमारे मन का भाव है। 

मन का आपा खोय, अर्थात् मन अहंकार से मुक्त होना चाहिए। वाणी ऐसी बोलिए कि सुनने वाले एवम् बोलने वाले दोनों के मन को शीतलता से मधुरता से भर दे। परन्तु इस बात को चरितार्थ करने के लिए मन के अहंकार को मिटाना जरूरी है। मीठी ध्वनि एवम् कर्णप्रिय शब्दों के चयन के साथ साथ मनोभाव भी उत्तम होना चाहिए। ध्वनि मधुर, शब्द मधुर, एवम् भाव भी मधुर तभी जाकर होती है वाणी मधुर। 

ये जो शब्द होते हैं अक्षरों के मेंल से बने होते हैं। संसार के प्रत्येक भाषाओं में अक्षरों का, शब्दों का प्रयोग किया जाता है। भाषा किसी के मन के भाव को व्यक्त करने का माध्यम है। अक्सर हम अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए किसी न किसी भाषा का प्रयोग करते हैं। भाषा का प्रयोग केवल बोलकर ही नहीं लिखकर भी किया जाता है। यानि भावनाओं की लिखित अभिव्यक्ति भी होती है। और विना कुछ बोले, लिखे भी भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। हम किसी के प्रति जो सोच रखते हैं, वे उन तक किसी न किसी प्रकार पहूंच ही जाती है। 

ऐसी वाणी बोलिए! व्यवहार ऐसा किजिए, जो हर किसी को अच्छा लगे। वास्तव में वाणी का संबंध हमारे व्यवहार से है, आचरण से है, स्वभाव से है। अगर वाणी मधुर हो, शब्दों का चयन भी ठीक से किया गया हो। परन्तु मनोभाव में मधुरता न हो तो ऐसी वाणी दुषित है। दुषित, कलुषित, स्वार्थ से प्रेरित व्यवहार अनुचित होता है। नम्र हुवे विना उचित व्यवहार करना संभव ही नहीं है। बनावटी आचरण कुछ समय के लिए प्रभाव तो छोड़ सकता है। परंतु उसका असली चेहरा उजागर हो ही जाता है। किसी ने क्या खुब कहा है –

सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसुलों से।
कि खुशबु आ नहीं सकती कागज के फूलों से।।

कोई लाख दिखावा करे, परन्तु मन का भाव आखिर सामने आ ही जाता है। कागज के फूल पर इत्र लगाने से  इत्र की महक तो आती है। लेकिन अधिक समय तक टिकती नहीं है। अगर महक बिखेरना है तो फूलों की तरह खिलना होगा। जो लोग मन से, विचारों से अच्छे होते हैं। उनके आव-भाव , उनके विचारों की महक सर्वत्र फैलती रहती है। 

मतलब से भरा है ये संसार
मन में है सबका अहंकार
मिलें कि ना मिलें किसी से
यह फैसला कैसे करें हम
है दुसरो के मन में जो कुछ
मिटा नहीं सकते उसे तो
खुद के मन को समझाने की
समझ कहां से लाएं हम
मन में न हो लेने की आस
हो देने को हरदम तैयार
गर कर सको ऐसा व्यापार
तो होगा न कभी मन पर वार
ऐसा कुछ हो जाए अगर तो
किसी से कैसे न मिलें हम ..!

कहा गया है कि जैसी पानी वैसी वाणी! इस उक्ति का भावार्थ है कि जैसा हम ग्रहण करते हैं, हमारा मन वैसा ही निर्मित हो जाता है। वाणी की मधुरता मन की स्थिति पर निर्भर करता है। और दुसरों की मनःस्थिति का प्रभाव भी हमारे मन पर होता है। 

उदाहरण के लिए जल को ही ले लें। अगर हम किसी के हाथों दिया जल ग्रहण करते हैं। तो देनेवाले की जो मन की भावनाएं होती हैं, हमारे प्रति! जल में घुल-मिल जाती हैं। इस प्रकार जल पीलाने वाले की मनःस्थिति अगर बुरा हो तो जल दुषित हो जाता है। इसलिए अगर कोई कुछ खाने पीने को कुछ दे, तो उसे परिष्कृत कर ग्रहण करने का विधान है। 

आपने शायद देखा होगा! बुजुर्ग कुछ खाने-पीने से पूर्व चीजों पर गौर करते थे। खाने-पीने की वस्तुओं का थोड़ा सा अंश धरती को समर्पित कर देते थे। ऐसा कर वे दुसरों के द्वारा दिए गए, वस्तुओं को परिष्कृत करते थे। उस पर अपने मन की भावनाओं को डालते थे। थोड़ा और गहराई से विचार करें तो ईश्वर को समक्ष मानकर वस्तुओं का भोग लगाने। और प्रसाद स्वरूप ग्रहण करने का यही निहितार्थ हैं। 

मन का आपा खोय ! हमारी वाणी की मधुरता, हमारे व्यवहार की सुन्दरता हमारे मनःस्थिति पर ही निर्भर करता है। मन की स्थितियां मुख्यत:दो प्रकार की होती हैं, एक नकारात्मक और दुसरा सकारात्मक। इन दोनों में विपरीत का संबंध है, एक मौजूद हो तो दुसरा सामने से हट जाता है। दो ही ऊर्जाएं हैं, दोनों ही शक्तियां हैं। अगर सकारात्मक को करीब लाना है तो नकारात्मक से दुर होना पड़ेगा। 

नकारात्मकता के मूल में अहंकार है, मैं की भावना है। इसी के कारण मन में क्रोध, इर्ष्या, हिंसा जैसी दुर्भावनाएं मौजूद होती हैं। यह जो मनःस्थिति है मन के ऊपरी तल का विषय है। इसका निर्माण हम स्वयं करते हैं। अपने विचारों, अपने संस्कारों के द्वारा करते हैं। मन का जो मूल स्वभाव है, वह सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ है। यह भीतर का तल है, इसे ही अन्तर्मन कहा गया है। अगर गौर करें तो, हम जब भी कुछ करने की सोचते हैं तो द्वंद में होते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम जब एक विचार हमारे मस्तिष्क पर उभरता है तो दुसरा इसके विपरीत अन्तर्मन में उभरता है। और अगर हमसे कुछ गलत हो जाता है तो बाद में पछतावा भी होता है।

यह जो पछतावा है, अन्तर्मन के विचारों के अवहेलना का ही परिणाम है। परन्तु तब तक होना था, हो चूका होता है। यह जो मन है, अन्तर्मुखी होना चाहता है! तभी तो पश्चाताप में पड जाता है, अतृप्त और अशांत रहता है। अहंकार के कारण यह मन बहिर्मुखी बना रहता है। अहंकार में अज्ञानता है, अज्ञान की कालिमा मन को घेरे रहती है। मन का आपा का,, मैं की अहम् भाव के मिटे विना मन की शुद्धता असंभव है।

जब मनुष्य का अन्तर्मुखी हो जाता है तो शांत और स्थिर हो जाता है। भीतर ज्ञान है, विवेक है, नम्रता है, यहां मैं की नहीं हम की भावना है। इस मनःस्थिति में वह जो भी करता है, खुद के लिए भी और दुसरों के लिए भी उपकारी होता है। इसी बात को संत कबीर ने चंद शब्दों में समझाया है –

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे आपहूं शीतल होय।।

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