शाब्दिक रुप में ज्ञानयोग दो शब्दों का युग्म है। एक शब्द है ज्ञान और दुसरा है योग। ज्ञान एक शब्द है, जो ‘ज्ञ’ धातु से बना है, जिसका आशय है जानना। और योग का अर्थ है जोड़ना। इस प्रकार ज्ञानयोग का शाब्दिक अर्थ हुवा जानने की क्रिया से है। गहनता से विचार करें तो ज्ञानयोग का अर्थ वृहत हो जाता है। स्वयं को जानने के लिए स्वयं को स्वयं से जोड़ना ज्ञानयोग है।
ज्ञानयोग क्या है जानिए ..!
ज्ञानयोग के आशय को ठीक से समझने के लिए पहले ज्ञान को जानना जरूरी है। सामान्यतः किसी विषय अथवा वस्तु के संबंध में जानकारी प्राप्त करना ज्ञान समझा जाता है। यह विचारों की वह शक्ति है, जिसके आधार पर हम सभी प्रकार के कार्यो को करते हैं। ज्ञान किसी विषय-वस्तु के तह तक जाने का एक सशक्त साधन है। इसे प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं, अनेक स्रोत हैं। इंन्दियों के द्वारा जनित अनुभव ज्ञान का एक स्रोत है। तो संसार में प्रत्येक विषय पर पुस्तकें भी उपलब्ध हैं, जिनका अध्ययन कर जानकारी प्राप्त किया जाता है। यह दुसरों के अनुभवों पर भी आधारित होता है। दुसरों से संवाद स्थापित कर अथवा दुसरों का अनुकरण करने से भी आता है।
ज्ञान शब्द के अनेक अर्थ लगाए जाते हैं। जैसे लौकिक एवम् अलौकिक ज्ञान, साधारण एवम् असाधारण ज्ञान, प्रत्यक्ष एवम् अप्रत्यक्ष ज्ञान आदि। लौकिक, साधारण एवम् प्रत्यक्ष ज्ञान का संबंध बाह्य जगत से होता है। परन्तु ज्ञान के अन्तर्गत केवल इन्द्रिय जनित अथवा बाह्य जगत से प्राप्त जानकारी नहीं होती। इसके अन्तर्गत केवल वस्तुओं के आकार प्रकार की जानकारी समाहित नहीं है। इस जगत में उपस्थित सभी वस्तुओं का मूल स्वरूप को जानना भी ज्ञान में समाहित है।
अनुभववाद सिद्धांत कहता है कि ज्ञान का स्रोत बाह्य जगत होता है। यह बाहरी वातावरण से प्राप्त अनुभव से ही आता है। जन्म काल में एक बालक का मन साफ होता है। कोरे कागज के समान होता है, जिस पर कुछ भी अंकित किया जा सकता है। जैसे जैसे वह बाहरी वातावरण के संपर्क में आता है, विचारों के चिन्ह मस्तिष्क में उभरने लगते हैं।
जबकि बुद्धिवाद सिद्धांत के अनुसार – ज्ञान की उत्पति बुद्धि से होती है। ज्ञान केवल अनुभव तक ही सीमित नहीं है, यह सत्य तक जाने का साधन है। और यह जो इन्द्रिय जनित अनुभव है,असत्य और अस्थायी होता है।
ज्ञान मन-मस्तिष्क को परिष्कृत कर उसमें विवेक को जागृत करता है। यह जो विवेक है, चिंतन का मूल है। यह असत्य और सत्य के बीच के अन्तर का ज्ञान है। अनुभव जनित हो अथवा बुद्धि से जनित हो, ज्ञान का आशय, इसके सार्थक उपयोग में है।
“तू कहता है कागद लेखी, मैं कहता हूं आंखों देखी।।”
कबीर की दृष्टि में जिन सिद्धांतों का पालन जीवन में नहीं होता हो, वे सब व्यर्थ हैं। संत कबीर ने अनुभव को महत्व दिया है, परन्तु यह केवल इन्द्रियों से नहीं आया है। कबीर का अनुभव आंतरिक है, उनकी आंखों देखी और सामान्य की आंखों देखी में अंतर है। उनकी आंखों देखी, उनकी अंतर्दृष्टि से प्रगट हुवी है।
“शबद विचारे पथ चले, ज्ञान गली दे पांव।।”
कबीर ने सामान्य के लिए बुद्धि को भी महत्व दिया है। सोच विचार कर अपने पथ का निर्धारण करना बुद्धिमान का लक्षण है। मैं कौन हूं और मुझे क्या करना चाहिए, इसकी दिशा का निर्धारण ज्ञान के द्वारा ही होता है। यह जो शब्द है, इसे मनुष्य की तीसरी आंख की संज्ञा दी गई है। ज्ञान जहां ब्रम्हांड के रहस्य को खोजने में समर्थ है, वहीं स्वयं को जानने का साधन भी है ।
“संतो आयी ग्यान की आंधी, भ्रम की टाटी सबै उड़ानी।।”
मन जब परिष्कृत हो जाता है तो ज्ञान का उद्भव होता है। यह जो यात्रा है ज्ञानपथ का, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गहन अर्थों में यह जो त्तत्व है, अंतर्दृष्टि से प्राप्त होता है। और यह जो भीतर की दृष्टि है, साधना से आती है। इसी अंतर्दृष्टि को जागृत करने की जो साधना है, ज्ञानयोग है।
ज्ञान एक साधन है, ईश्वर के स्वरूप को जानने का, आत्मा और परमात्मा के संबंध में जाऩने का। यह जो त्तत्व है, इसे प्राप्त करने की जिज्ञासा भी होनी चाहिए। किसी विषय-वस्तु को जानना हो अथवा स्वयं को जानना हो। ज्ञान के द्वारा मनुष्य भौतिक एवम् आध्यात्मिक दोनों ही जगत को समझने में समर्थ हो सकता है। परन्तु इसके लिए मन में जिज्ञासा का होना महत्वपूर्ण है। और जिज्ञासा के साथ साथ इसे फलित करने के लिए प्रयत्न भी करना जरूरी है। यह जो ज्ञानपथ है, एक उत्कृष्ट साधना है। परन्तु यह साधना सरल नहीं है। यह जो मार्ग है, अत्यंत कठिन है और दुष्कर है।
पाश्चात्य विचारक प्लुटो ने भी कहा है कि विचारों की दैवीय व्यवस्था एवम् आत्मा, परमात्मा के स्वरुप को जानना ही वास्तव में ज्ञान है। भारतीय चिंतन परंपरा में ज्ञान एक महत्वपूर्ण त्तत्व है।
सत्यम शिवम सुंदरम अर्थात् सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है। यह समस्त सृष्टि ही शिव में समाहित है। भारतीय चिंतन धारा में एक और बात है जो प्रमुखता से कही गई है ‘बसुधैव कुटुम्बकम’!
महर्षि अरविन्द ने भी इस तथ्य को माना है। उनके अनुसार विश्व के सभी मनुष्य एक ही विशाल चेतना के अंश होने के कारण उनमें एक ही चेतना है। वह सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। ये जो तथ्य हैं,और इनमें जो सत्य निहित है, इस सत्य को जानना ही ज्ञानयोग का लक्ष्य है।
श्रीमद्भागवत गीता को उपनिषदों की श्रेणी में रखा गया है। गीता को योगशास्त्र भी कहा जाता है। मनुष्य के मन को तीन आयामों में बांटकर देखा जाता है। मन के ये तीन आयाम हैं, ज्ञानात्मक, भावनात्मक एवम् क्रियात्मक। गीता में इन तीनों आयामों के अनुरूप ज्ञानयोग, भक्तियोग एवम् कर्मयोग पर प्रकाश डाला गया है।
श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान के दो प्रकार का वर्णन है। एक तार्किक ज्ञान और दुसरा आध्यात्मिक ज्ञान। तार्किक ज्ञान में बुद्धि की प्रधानता होती है। यह साक्ष्य एवम् प्रयोग पर आधारित होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैतभाव निहित होता है। जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय के बीच कोई द्वैतभाव नहीं होता। यह जो ज्ञान है, असाधारण, अलौकिक एवम् अप्रत्यक्ष है। इस ज्ञान की अनुभूति हेतु जिज्ञासु को अभ्यास करना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है।
विवेकानंद का ज्ञानयोग ..!
आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद के विचार भी ज्ञानयोग के अन्तर्गत समाहित हैं। उनके द्वारा ज्ञान से संबंधित दिए गए व्याख्यानों को ‘ज्ञानयोग’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया है। विवेकानंद का ‘ज्ञानयोग’ वेदांत दर्शन पर आधारित है। उनके अनुसार इस विधा का अभिप्राय सर्वप्रथम बाह्य जगत की वस्तुओं से ध्यान हटाना है, जो असत्य है, अवास्तविक है। फिर उस त्तत्व पर ध्यान को केन्द्रित करना है, जो सत्य है, वास्तविक है।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार – ” धर्म का जो वास्तविक बीज है, इन्द्रियों की सीमा का अतिक्रमण करने के लिए संघर्ष है। मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता है। और यह जो प्रकृति है बाह्य और आंतरिक दोनों है। इस प्रकृति के भीतर केवल वे ही नियम नहीं हैं, जिनसे हमारे शरीर के तथा उसके बाहर के अवयव नियंत्रित होते हैं, वरन् ऐसे सूक्ष्म नियम भी हैं, जो वस्तुत: बाह्य प्रकृति को संचालित करने वाली अन्त:स्थ प्रकृति का नियमन करते हैं। बाह्य प्रकृति को जीत लेना कितना अच्छा है! पर उससे असंख्य गुना अच्छा है आभ्यांतर प्रकृति पर विजय पाना। उन नियमों को जानना, जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनाऍं एवम् इच्छाऍं नियंत्रित होती हैं।”
साधारण मनुष्य के स्वभाव में भौतिकता है। इंद्रिय सुख उसके लिए सर्वोपरि है। वह पागलों की भांति बाह्य जगत में कार्यरत रहता है। वह बाह्य जगत की बस्तुओं में ही सुख का तलाश करता रहता है। परन्तु यह बात भी सत्य है कि किसी को भी इन कार्यों से सुख मिलता नहीं है। जिसे वह सुख समझता है, मिलता भी है तो कुछ समय के लिए ही मिलता है। वैसे लोग विरले ही होते हैं, जिन्हें इन कार्यों से सुख नहीं मिलता, वे इन इनसे छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं।
विवेकानंद कहते हैं कि “इंन्दियों की सीमाओं से परे जाकर एक आध्यात्मिक मानव के रूप में विकसित होना – इन सारी चीजों के लिए दिन-रात जो प्रयत्न किया जाता है, वह अपने आप में ही मनुष्य के सभी प्रयत्नों में उदात्ततम एवम् परम गौरवशाली है। निम्न स्तर के मनुष्यों को इंन्द्रियजनित सुखों में ही आनंद मिलता है। किन्तु जो लोग सुसंस्कृत एवम् सुशिक्षित हैं, उन्हें चिंतन, दर्शन, कला और विज्ञान में आनंद मिलता है। आध्यात्मिकता उससे भी उच्चतर स्तर की है। अगर शुद्ध उपयोगितावादी दृष्टिकोण से भी आनंद की प्राप्ति ही मनुष्य का उद्देश्य है, तो भी धार्मिक चिंतन का अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि उसी में सर्वोत्तम सुख है।”
ज्ञानियों के अनुसार आत्मतत्त्व की अनुभूति होना ही वास्तविक ज्ञान है। और इस अनुभव तक ले जाने वाला जो मार्ग है, हमें आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त करता है। आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करनेवाला यह संघर्ष ही ज्ञानयोग है। यह जो संघर्ष है, जोड़ने की क्रिया है। उस ज्ञान से, जो हमें अज्ञानता से परे लेकर जाता है। यह संघर्षरुपी बीज प्रस्फुटित होकर ज्ञान रूपी वृक्ष में रूपांतरित होने लगता है। ज्ञानयोग का अभिप्राय है, विशुद्ध आत्मस्वरुप का साक्षात्कार करना। इसे उपनिषदों में ब्रह्म की अनुभूति की संज्ञा दी गई है। स्वयं को स्वयं के साथ संलग्न करने की जो साधना है, वह ज्ञानयोग है।