मन की निर्मलता ! अर्थात् मन का निर्मल होना। निर्मल का शाब्दिक अर्थ है, कोई मल न हो! मल मुक्त यानि कोई गंदगी नहीं, बिल्कुल स्वच्छ, पवित्र, पावन। अब जरा सोचिए! मन कोई वस्तु तो है नहीं, मन तो एक आभाषित त्तत्व है। तो फिर मन की निर्मलता का अर्थ क्या है?
जानिए! मन की निर्मलता का अर्थ क्या है ..!
मन की निर्मलता का अर्थ मन की पवित्रता से है। मन की शुद्धतम अवस्था से है। मन का विचारों से मुक्त हो जाना। ये जो विभिन्न तरह के विचार होते हैं, हमारे मन में चलते रहते हैं। इनमें से कुछ प्रगतिशील होते हैं, तो कुछ पतनशील होते हैं। इनका आना और जाना लगा रहता है। ऐसे विचार जो मन के मलीन होने का कारक होते हैं। मन की निर्मलता का आशय इन पतनशील विचारों से मन के रिक्त होने की अवस्था से है। इन मलीन विचारों से मुक्त हो जाने की जो अवस्था है, यही मन के निर्मल होने की, स्वच्छ होने की अवस्था है। मन की निर्मलता का संबंध मन की शांति से है।
मन की निर्मलता का आशय मन की रिक्तता से है। अगर ज्ञानियों की मानें, जिन्होंने अनुभव किया है, इस मन को। जिन्होंने अपने प्रयासों से इसे जाना है। उनके अनुसार ; यह जो मन की प्रकृति है, जिसका हमें आभास होता है, बाहर की अवस्था है। यहां बाहर का आशय सांसारिकता से है। दुसरी अवस्था है, जो आध्यात्मिक है। यह भीतर की अवस्था है। यह जो अवस्था है, यह मन का भी मन है। यहां मन की प्रकृति बदल जाती है। इस अवस्था में आ जाने पर यह निर्मल हो जाता है।
मन के अशांत होने का क्या कारण है ?
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में; “बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अंतर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यांतरिक क्रिया-विधि की निरीक्षणशक्ति खो बैठे हैं। मन को अंतर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करना, उस मन के ऊपर ही उनका प्रयोग करना, ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आप को विश्लेषण करके देख सके – एक अत्यंत कठिन कार्य है।”
यह जो मन है, सुखी होना तो चाहता है। शांत होना चाहता है, परन्तु शांति कैसे मिलेगी! यह नहीं जानता।
वह जिसे सुख समझता है, वास्तव में वह सुख नहीं है। मन की जो दौड़ है, यह सूख की चाहत में ही दौड़ रहा होता है। लेकिन सांसारिकता में इसे वह सुख नहीं मिल पाता, जिसकी इसे चाह है। ऐसा नहीं कि सुख नहीं मिलता! परन्तु यह क्षणिक होता है। भौतिक वस्तुओं से प्राप्त सुख स्थायी नहीं होता।
लेकिन खोज रहा होता है, सुख को ही, उसके इस खोज में शांति है ही नहीं। शांति तो भीतर है, परन्तु यह मन स्वत: भीतर की यात्रा नहीं करता। यह शांति की खोज में बाहर ही भटकता रहता है। वास्तव में यह जो गति है मन की शांति के लिए ही है।
ऊपरी तल पर मन की प्रकृति चंचलता से भरी हुई है। यह कामनाओं से भरा हुआ रहता है। इसकी इच्छाएं अनंत हैं, और सभी इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, हो भी नहीं सकती। लेकिन पाने की इच्छा भी कभी मिटती नहीं है। हमारे विचारों की जो गंदगी है, मन के चारों ओर फैली रहती है। ये जो विचार हैं, हमारे संस्कारों से ही आते हैं। जिसे हमने ही सीखा है, और इकट्ठे करके रख लिए हैं। मन के बाहर भटकने का कारण हमारे संस्कार ही हैं। तो मन भीतर की ओर गमन करे, यह भी हमें ही सीखना होगा।
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में; “जिस ओर मन का विशेष झुकाव होता है, स्थूल रूप से उसे ही संस्कार कहते हैं। मैं इस मुहूर्त जो कुछ हूं, वह मेंरे अतीत जीवन के समस्त संस्कारों का प्रभाव है। इसे ही प्रकृत दृष्टि से ‘चरित्र’ कहते हैं।”
मन की प्रकृति चंचल है, परन्तु तब तक, जब तक यह बहिर्मुखी है। अगर इसे नियंत्रित कर, इसके दिशा को मोड़ा जा सके। अर्थात् अंतर्मुखी किया जा सके तो इसकी प्रकृति बदल जाती है। ऐसा करना कठिन है, पर असंभव नहीं है।
मन की शांति के लिए क्या करें?
मन की शांति के लिए इसे एकाग्र करना पड़ता है। और यह जो मन की एकाग्रता है। इस अवस्था को एकदम से अचानक प्राप्त नहीं हो किया जा सकता! इसके लिए प्रयत्न की आवश्यकता होती है। इसे एकाग्र करने की अनेक विधियां हैं, जो ज्ञानियों के द्वारा बताई गई हैं। इन विधियों का शास्त्रों में भी उल्लेख किया गया है। ये जो विधियां हैं, सरल नहीं हैं। पर इन विधियों का निरंतर अभ्यास कर मन को एकाग्र किया जा सकता है।
विवेकानंद के शब्दों में; “यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए, केवल यह ज्ञात हो गया, तो बस, प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही रहस्य है।”
हमारे मन में तो अनेकों तरह के विचार चलते ही रहते हैं। हम इतने व्यस्त हैं जीवन में कि कभी शांत नहीं रहते। ये करना है, वो करना है, ये भी करना है, वो भी करना है। एक काम करो तो दुसरा छुट जाता है। और ऐसा भी होता है कि हम एक साथ अनेक कार्यों में लगे रहते हैं। अगर कर न सकें तो उन कार्यों के विषय में सोचते रहते हैं।
हम इतने व्यस्त रहते हैं कि मन को एकाग्र करने का प्रयत्न ही नहीं करते। हम हर रोज भोजन करते हैं। ऐसा नहीं कि एक दिन खा लिया और फिर खाना भूल गए। हम वो हर काम करते हैं, जो हमें जरुरी लगता है। पर मन पर हमारा कोई ध्यान नहीं है। हो सकता है, हम अपने मन के विषय में सोंचते हों, पर चिंतन नहीं करते।
मन को जो चाहिए! हम उसे भौतिक वस्तुओं में खोजते हैं, इसी चिंता में पड़े रहते हैं। और जो चाहिए, वो मिलता नहीं, तो हम तनावग्रस्त हो जाते हैं। अंतर्मन जो कहता है, उसकी सुनते नहीं। भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए ही हम चिंतित रहते हैं। लेकिन जो चाहिए, भीतर से जो आवाज आती है, उस पर चिंतन ही नहीं करते।
विवेकानंद ने कहा है कि “जो कार्य हमारे समक्ष आते जाएं, उन्हें हम हाथ में लेते जाएं और धीरे धीरे हम अपने को दिन प्रतिदिन निस्वार्थ बनाने का प्रयास करें। हमें कार्य करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा उद्देश्य क्या है! ऐसा करने पर हम देख पायेंगे कि आरंभावस्था में प्रायः हमारे सभी कार्य स्वार्थपूर्ति के लिए ही होते हैं। किन्तु धीरे धीरे यह स्वार्थपरता नष्ट हो जाएगी, और अंत में वह समय आएगा, जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर कार्य करने के योग्य हो सकेंगे।
हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में अग्रसर होते होते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य ही आएगा, जब हम पूर्ण रूप से निस्वार्थ बन जाएंगे, और ज्योंहि हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे, हमारी समस्त शक्तियां केन्द्रित हो जाएंगी तथा हमारा आभ्यांतरिक ज्ञान प्रगट हो जाएगा।”
मन की निर्मलता के अनेक उपाय हैं, विधियां हैं। इनमें से किसी एक विधि का निरंतर अभ्यास से यह संभव हो सकता है। हमें भुख लगती है, तन की भूख मिटाने के लिए हम रोज कुछ न कुछ खाते हैं। इसी प्रकार मन के भुख को मिटाने के हर रोज कुछ समय निकालना, खुद के विषय में चिंतन करना और मन को निर्मल करने का अभ्यास करना जरूरी है। योग एक ऐसी ही विधि है, जो हमारे मनःस्थिति को निर्मलता के आयाम तक ले सकती है।
विवेकानंद के शब्दों में; “जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु का साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरुपत: नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहां गायब हो जाता है।”
कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर।
फिर पाछे हरि लागै कहत कबीर कबीर।।
कबीर के इस दोहे में मन की निर्मलता की महत्ता को दर्शाया गया है। मन ज्योंहि इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। अथक प्रयासों से अगर मन को साफ करने में समर्थ हो गये, तो फिर ईश्वर को कहीं ढुंढने की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर स्वयं आपके पीछे चलते हैं। संत कबीर के कहने का तात्पर्य यह है कि मन के निर्मल होने की अवस्था में आत्मतत्त्व का अनुभव होने लगता है। यह अनुभूति होने लगती है कि ईश्वर हमारे करीब हैं, उन्हें कहीं और खोजने की जरूरत नहीं होती।
मन की निर्मलता ! अर्थात् कामनाओं से मुक्त हो जाना। यह जो अवस्था है, इस अवस्था में आते ही मनुष्य मन की सारी इच्छाएं मिट जाती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने मन का ही विश्लेषण करना पड़ता है। अपने मन पर ही प्रयोग करना पड़ता है। विवेकानंद ने यही समझाया है। स्मरण रखने के लिए उनके शब्दों को एक बार फिर से दोहराते हैं –
“जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु का साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरुपत: नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहां गायब हो जाता है।”
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