‘सकली तुमारी इच्छा’ यह बंगला भाषा के एक वाक्यांश ‘সকলি তোমারি ইচ্ছা’ का हिन्दी रुपांतरण है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘सबकुछ तुम्हारी इच्छा से है’ , ‘everything happens as you wish।’ अब आइए! जानने का प्रयत्न करते हैं कि इस वाक्यांश का निहितार्थ क्या है?
“सकली तुमारी इच्छा, इच्छामयी तारा तुमी!
तुमार कर्मों तुमी कोरो मां! लोके बोले करी आमी!
आमी यन्त्र तुमी यन्त्री, आमी घर तुमी घरनी
आमी रथ तुमी रथी, जेमनी चला तेमनी चली!
सकली तुमारी इच्छा ..!”
‘सकली तुमारी इच्छा’ उपरोक्त बांग्ला गीत का शीर्षक है ; गीत की इन पंक्तियों का आशय है! सबकुछ जो हो रहा है, तुम्हारी इच्छा से ही हो रहा है! हे प्रकृति! जगतजननी मां! समस्त इच्छाओं की जननी तो तुम्हीं हो! जगत में जो भी कर्म हो रहे हैं, करनेवाली भी तुम्हीं हो! परन्तु मनुष्य यह समझ लेता है कि करने वाला मैं हूं। इच्छा भी तुम्हारे और कर्म भी तुम्हारे, परन्तु लोग खुद को कर्त्ता समझ लेता है। मैं यन्त्र हूं और तुम यन्त्री ! मेंरा जीवन यन्त्र की भांति है, जिसे तुम संचालित कर रही हो। मैं उस घर के समान हूं, जिसका तुम स्वामिनी हो। मैं रथ हूं और तुम रथी! जीवन रूपी रथ को चलाने वाली तुम्हीं हो। तैसे तुम चलाती हो, मैं वैसे ही चलता हूं! सबकुछ तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है।
‘सकली तुमारी इच्छा’ सबकुछ विधाता की इच्छा से है! सबकुछ उन्हीं का है! शास्त्र, उपनिषद, ऋषि-ज्ञानी सबका यही कहना है।
ईशावास्यमिदम् सर्व यत्किज्व जगत्या जगत।
तेन व्यक्तेन पुज्जीथा: या गृध: कस्यस्विद्धनम्।।
ईशोपनिषद’ के इस सुत्र का भी यही निहितार्थ है ; ‘सकली तुमारी इच्छा! सबकुछ विधाता की इच्छा पर निर्भर करता है। शास्त्रों में जो लिखा है, ऋषि-मुनि के शब्द हैं। और उन्होंने जो भी कहा है, सत्य कहा है। सत्य को समझने के लिए ध्यान और चिंतन की आवश्यकता होती है। प्रस्तुत है ओशो के व्याख्यान के कुछ अंश जो उन्होंने इस सूत्र के विषय में कहा है।
अपने एक प्रवचन में ‘ओशो’ के द्वारा उपरोक्त सूत्र पर व्याख्या की गई है। प्रस्तुत है उनके प्रवचन का कुछ अंश जो उन्होंने ईशावास्य के विषय में कही है।
• ईशावास्य की घोषणा ! सबकुछ ईश्वर का है! ईश्वर का है सबकुछ। मन करता है मानने का कि हमारा है। पुरा जीवन इसी भ्रान्ति में हम जीते हैं। कुछ हमारा है ; मालकियत, स्वामित्व – मेंरा है। ईश्वर का है सबकुछ! तो फिर मेंरे मैं को खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।
• अहंकार भी निर्मित होने के लिए आधार चाहता है। मैं को भी खड़ा होने के लिए मेंरे का सहारा चाहिए। मेंरा का सहारा न हो तो मैं को निर्मित करना असंभव है। साधारणत: देखने में लगता है मैं पहले है, और मेंरा बाद में है। असलियत उल्टी है! मेंरा पहले निर्मित करना होता है, तब उसके बीच में मैं का भवन निर्मित होता है। मैं के लिए मेंरे का नीड़ चाहिए, निवास चाहिए, घर चाहिए! मैं के लिए मेंरे के बुनियादी पत्थर चाहिए, अन्यथा मैं का पूरा मकान गिर जाता है।
• ईशावस्य की पहली घोषणा उस पूरे मकान को देनेवाली है। कहता है ऋषि! सबकुछ परमात्मा का है। मेंरे का कोई उपाय नहीं! मैं भी अपने को मेंरा कह सकूं, इसका भी कोई उपाय नहीं। कहता हूं अगर तो नाजायज! अगर कहता ही चला जाता हूं तो विक्षिप्त! मैं भी मेंरा नहीं हूं, और तो सब ठीक है।
• मेंरी इच्छा कभी नहीं जानी जाती कि मैं जन्मना चाहता हूं। जन्म मेंरी इच्छा, मेंरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं है। मैं जब भी अपने आप को पाता हूं, जन्मा हुवा पाता हूं। जन्म से पहले मेंरा कोई होना नहीं है। जो जन्म मेंरी इच्छा से नहीं है, उसे मेंरा कहना एकदम नासमझी है। जिस जन्म से पहले मुझे पूछा नहीं जाता, उसे मेंरा कहने का क्या अर्थ है? न ही मौत आयगी तो पूछकर आयेगी! न ही मौत पूछेगी कि क्या इरादे हैं? बस आ जायगी, ऐसे ही अन्जाने जैसे जन्म आता है।
• जिस जन्म में मेंरी मर्जी नहीं है, वह जन्म मेंरा नहीं है। जिस मौत में मेंरी मर्जी नहीं है, वह मौत मेंरी नहीं है। और इन दोनों के बीच में जो जीवन है वह मेंरा कैसे हो सकता है!
• जीवन की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं – जहां से जन्म आता है, वहीं से। आप नाहक बीच में मालिक बन जाते हैं। और आपने किया क्या है? क्या है जो आपका किया हुवा है? भुख लगती है, नींद आती है, सुबह नींद टुट जाती है, सांझ फिर आंखें बंद होने लगती है। बचपन आ जाता है, फिर कब चला जाता है? फिर कैसे चला जाता है? न पूछता, न विचार-विमर्श लेता, न हम कहें तो क्षणभर ठहरता। फिर जवानी आती है, फिर जवानी विदा हो जाती है। फिर बुढापा आ जाता है! आप कहां हैं?
• नियति कहें या प्रकृति कहें, लेकिन ईशावास्य कहता है कि सब प्रकृति कर रही है। विज्ञान भी यही कहता है कि सब प्रकृति कर रही है। लेकिन विज्ञान का जोर इस बात पर है कि सब यन्त्रवत हो रहा है। विज्ञान भी कहता है कि प्रकृति कर रही है सब, मनुष्य नहीं! धर्म भी यही कहता है, लेकिन धर्म कहता है, परमात्मा कर रहा है, मनुष्य नहीं! विज्ञान अहंकार को तोड़कर मनुष्य को नीचे गिरा देता है। और धर्म अहंकार को तोड़कर मनुष्य को ऊपर की यात्रा पर भेज देता है।
सामान्य मनुष्य यह तो मानता है कि भाग्य का निर्माता ईश्वर है! परन्तु वह स्वयं को कर्त्ता भी समझ लेता है। और विडम्बना यह है कि कर्मों का फल अगर अशुभ हो तो इसका दोष भी ईश्वर पर मढ़ दिया जाता है। सामान्य व्यक्ति का मन इस विषय में संशय की स्थिति में बना रहता है। वह यह नहीं समझ पाता कि यदि सबकुछ ईश्वर की इच्छा से है तो कर्मों का फल उसे क्यों भोगना पड़ता है।
ज्ञानियों की समझ के अनुसार ‘सब-कुछ परमात्मा की इच्छा से संपन्न होता है, परन्तु कर्म करने के लिए हम स्वतंत्र होते हैं।’ साधारण को यह बात समझ में नहीं आती! मनुष्य के जीवन में जो भी घटित होता है, पूर्व निर्धारित होता है। इसी के आधार पर वह अपने कर्मों का चयन करता है। जब कोई अशुभ घटित होना होता है, तो उस समय उसकी बुद्धि उसी अनुसार कार्य करने लगती है। और जब कुछ अच्छा होना होता है तो उसकी बुद्धि सही दिशा में संयोजित हो जाती है। अर्थात् मनुष्य के जीवन में जो भी घटित होना होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होने लगते हैं। इसका एक सटीक उदाहरण हमें रामायण के एक प्रसंग से पता चलता है।
रामायण के कथा में स्वर्ण मृग का वर्णन किया गया है। चलता-फिरता अर्थात् सजीव स्वर्ण का हिरन का होना कल्पना का विषय हो सकता है। यथार्थ में ऐसा होना संभव नहीं है। फिर भी ऐसा वर्णन है कि माता सीता को यह दिखता है, और वो श्रीराम से उसे पकड़कर लाने को कहती है। माता सीता एवम् श्रीराम दोनों ही के बुद्धि-विवेक पर कोई संशय नहीं किया जा सकता। परन्तु माया से उत्पन्न उस स्वर्ण हिरन की तलाश में श्रीराम निकल पड़ते हैं। हां उनके अनुपस्थिति में माता का ख्याल रखने की जिम्मेदारी वे लक्ष्मण को सौंप जाते हैं।
न निर्मित केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरंगी। तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि:।।
चाणक्य
फिर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि लक्ष्मण भी श्रीराम की रक्षा करने निकल पड़ते हैं। सीता के द्वारा लक्ष्मण के प्रति कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जो लक्ष्मण को उन्हें छोड़कर जाने को विवश कर देता है। वह जाने से पहले एक सीमा रेखा खींचकर जाते हैं, और उनके वापस लौट आने तक उसका उलंघन ना हो, सीता से ऐसा आग्रह कर निकल पड़ते हैं। परन्तु ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि माता सीता से लक्ष्मण-रेखा का भी उलंघन हो जाता है, और रावण द्वारा उनका हरण हो जाता है।
जब नाश मनुष पर छाता है पहले विवेक मर जाता है!
रामधारी सिंह ‘दिनकर‘
रामायण काल के उपरांत महाभारत काल में दृष्टि डालें तो एक पात्र का वर्णन आता है, महारथी कर्ण का। इस बात का उल्लेख मिलता है कि जन्म के साथ ही उनके अंदर विलक्षण गुण मौजूद थे। उनका जन्म ही दिव्य कवच और कुंडल के साथ हुवा था, जो किसी भी तरह के आघात से उनके शरीर का रक्षण करता था। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर उन्होंने शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुणता प्राप्त की थी।
परन्तु धर्मनिष्ठ एवम् बल और विवेक से समृद्ध होते हुवे भी उन्होंने दुर्योधन के अनैतिक कर्मों का समर्थन किया। ऐसी स्थितियां बनती चली गई और उनसे वह सब होता चला गया, जो उन जैसे योद्धा से अपेक्षित नहीं था। परिस्थतियां ऐसी भी आयी कि उनका दिव्य क्वच-कुंडल भी उनके शरीर से अलग हो गया। अंत समय में उनकी सारी विद्या जो उन्होंने भगवान परशुराम से ग्रहण की थी। और जिस विद्या के बलपर वे अजेय थे, विस्मरण हो जाता है। कर्ण को भी यह आभास था कि उन्होंने अधर्म का साथ दिया है। परन्तु होता वही है, जो होना होता है।
इन घटनाओं के पीछे जो रहस्य छिपा है, इसपर चिंतन करने से यह बात प्रत्यक्ष होता है कि भविष्य में जो घटित होने वाला है, उसके घटने की स्थिति पूर्व में ही बन जाती है। और उसी के अनुसार मनुष्य की बुद्धि कार्य करने लगती है। अर्थात् भाग्य के अनुसार ही कर्म की प्रेरणा मिलती है, और कर्म के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। इन्हीं अर्थों में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने कर्मों के प्रति स्वतंत्र तो होता है, पर कर्म पर उसका अधिकार नहीं होता। और चूंकि कर्म उसी के द्वारा संपन्न होता है, अतः उसका फल भी उसी को भोगना पड़ता है।
‘सकली तुमारी इच्छा’ यही प्रकृति का नियम है! मनुष्य का मन पूर्व-निर्धारित दिशा में ही कार्य करने के लिए उसे प्रेरित करता है। यह पूर्व-निर्धारित कार्य अथवा कार्यों का संलाचन जिस शक्ति के द्वारा की जाती है, मनुष्य इस शक्ति के हाथ का खिलौना होता है।
सबकुछ कर्म पर निर्भर करता है। ईश्वर किसी से कुछ गलत नहीं करवाता, अच्छा या बुरा का चूनाव व्यक्ति स्वयं करता है। जैसा वह कर्म करता है, उसकी बुद्धि वैसी ही हो जाती है। जब भी किसी व्यक्ति का मन गलत कर्म की ओर आकर्षित होता है, तो भीतर से एक आवाज अवश्य आती है कि इसे मत करो! यह आत्मा का आवाज है, अर्थात् जगत की जो सृजनशक्ति है, और जिसने आपका भी सृजन किया है, आपको अनुचित एवम् अनिष्ट का संकेत अवश्य देती है।
जीवन के सभी नियम बड़े विरोधाभासी हैं। विरोधी नहीं, विरोधाभासी हैं! दिखाई पड़ते हैं कि विपरीत हैं। महावाक्यों की जितनी दुर्दशा होती है जगत में, उतनी और किसी चीज की नहीं होती। ऋषियों के साथ जो अन्याय होता है, उतना किसी के साथ नहीं होता। क्योंकि उन्हें समझना कठिन हो जाता है। हम उनसे जो अर्थ निकालते हैं, वे हमारे अर्थ होते हैं।
Osho
‘सकली तुमारी इच्छा’ , प्रकृति कहें या नियति! यह जो शक्ति है, सबकुछ इसी की इच्छा से घटित होता है। परन्तु यह शक्ति जो प्रत्येक के भीतर विद्यमान है, हमें हमेशा उचित-अनुचित का संकेत देती है। जब किसी व्यक्ति का विवेक अपने भीतर के आवाज का आभास करता है, उस आवाज को सुनता है और उसके कहे अनुसार करने का प्रयत्न करता है। तो फिर अंदर से उसे समर्थन भी प्राप्त होता है। और फिर उस व्यक्ति से अच्छे कार्य संपन्न होते हैं, जिसका प्रतिफल भी अच्छा होता है। अतः हमारे साथ जो गलत होता है, उसका दोष हम ईश्वर को नहीं दे सकते। सामान्य दृष्टि में सभी कर्मों का कर्ता मनुष्य है, परन्तु वास्तव में उसके द्वारा जो कर्म होते हैं, उस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता। सबकुछ पहले से ही निर्धारित होता है।
आंख जिसे देख सकती है वो नष्ट होगा। वह कहीं सुनाई नहीं पड़ता; क्योंकि कान जिसे सुन सकते हैं वो खो जायगा। उसका कहीं कोई स्पर्श नहीं होता; क्योंकि हम जिसे छू सकते हैं, वह नष्ट होगा। इन्द्रियां जिसे जान सकती हैं, वह विनाश का क्षेत्र है! असल में इन्द्रियां जान ही उसे सकती हैं, जो बन रहा है या मिट रहा है! उसे नहीं जो है। अगर उस है को जानना है तो उसे जानने का उपाय इंद्रियां नहीं हैं। स्वयं के अंतस में उस जगह को खोज लेना है, जहां इन्द्रियों की कोई गति नहीं होती।
Osho