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इच्छा का अर्थ — Meaning of Desire

इच्छा का अर्थ क्या है? इस प्रश्न का उतर है, किसी चीज को पाने की ओर मन की प्रवृति !  यह एक मनोवृति है, जिसे आकांक्षा, अभिलाषा, लालसा, कामना आदि नामों से भी जाना जाता है। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति सुख-सुविधाओं के साथ जीना चाहता है। सुख, सफलता एवम् समृद्धि की लालसा प्रत्येक के मन में होता है। परन्तु यह बात भी उतना ही सच है कि किसी की भी सभी इच्छाएं पूरी नहीं हो पाती। 

कुछ पाने की इच्छा का पूर्ण न हो पाना ही व्यक्ति के दुखी होने का सबसे बड़ा कारण है। अगर व्यक्ति की कोई इच्छा पूर्ण हो भी जाती है तो उसे जो सुख मिलता है, अस्थायी होता है। क्योंकि इस संसार में कोई वस्तु ऐसी नहीं है, जिसके मिल जाने से किसी का जीवन पूर्णतया सुखमय हो सके। अतः किसी को दुख से बचना हो तो उसका एक उपाय है, और वह है इच्छाओं का विसर्जन कर देना। 

जरुरतों में और चाहने में फर्क होता है! जैसे हमारे शरीर को जो चाहिए होता है, और अपने शरीर के लिए हम जो चाहते हैं उसमें फर्क होता है। हमारा न्यूनतम आवश्यकता क्या है! जो जीने के लिए आवश्यक है? सामान्यतः शरीर को पोषण के लिए आहार चाहिए होता है! और पहनने के लिए वस्त्र। मजे की बात तो यह है कि आहार कैसा होना चाहिए, यह हम तय करते हैं। वस्त्र कैसा होना चाहिए, यह भी हम तय करते हैं। जबकि इनके चयन में कोई बाध्यता नहीं है! 

शास्त्रों में लिखा है कि मनुष्य का जो तन है, कर्म प्रधान है। जब किसी चीज को वह पाना चाहता है, तो कर्म की ओर प्रवृत होता है। कर्म के दो प्रकार बताए गए हैं, कर्तव्य और अकर्तव्य। परिणाम की चाहत के विना जो कर्म होते हैं, वैसे कर्म कर्तव्य कहलाते हैं। और कुछ पाने की चाह के साथ जो कर्म होते हैं अकर्तव्य कहलाते हैं। 

सामान्य व्यक्ति अपने समस्त जीवन में अकर्तव्य में ही लगा रहता है। इसका जो मुख्य कारण है सुख प्राप्त करने की इच्छा, सुख भोग की कामना। कुछ इच्छाएं पूर्ण होती हैं और कुछ पूर्ण नहीं हो पाती! ऐसा सभी के साथ होता है। जब किसी को कुछ प्राप्त हो जाता है, तो वह खुश हो जाता है। और प्रयास करने के बाद भी यदि उसे कुछ प्राप्त नहीं हो पाता तो वह निराश हो जाता है। 

जो हम कर सकते हैं, उसे करने में डरते हैं, उसे हम करते नहीं। और जो हम नहीं कर सकते, उसको करना चाहते हैं, या यूं कहें कि करने में लगे रहते हैं। 

व्यक्ति के समक्ष दो विकल्प हैं! या तो वह अपनी इच्छाओं को पुरी करने में ही लगा रहे! या फिर फिर अपनी इच्छाओं का परित्याग कर दे। साधारण मनुष्य की स्थिति ऐसी है कि वह इच्छाओं की पूर्ति न होने से दुखी भी होता है, और कामना भी करता रहता है। प्रतिफल यह मिलता है कि न तो उसकी इच्छाएं पूर्ण हो पाती हैं और न ही उसे दुख से छुटकारा मिल पाता है।

इच्छा मानव ज्ञान की सहज स्फूरना है, बस ध्यान रहे कि वह वासना के रूप में परिवर्तित न हो जाए, क्योंकि तब वो दुख ही देगा। _

स्वामी रामतीर्थ

व्यक्ति के मन में जो कामनाएं उत्पन्न होती हैं, वे सभी पूरी हों ऐसा कोई नियम नहीं है। वह चाहे जितना प्रयत्न कर ले, उसकी सभी इच्छाएं कभी पूरी नहीं हो सकती। यह जानते हुए भी कि उसकी समस्त इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती, उनका त्याग नहीं करता। वह सारा जीवन अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में ही लगा देता है। और अंत में पछताता है, यह लगभग सभी का अनुभव है। 

कर्म इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी किया जाता है। और कुछ पाने की इच्छा के वगैर भी किया जाता है। वास्तव में हमारा जीवन इच्छाओं के अधीन नहीं है। हमारा मन हमें इच्छाओं, कामनाओं की ओर ढकेलता है। 

हम में से प्रत्येक को इस बात पर विचार अवश्य करना चाहिए! यह विचार करना चाहिए कि इच्छा पूर्ण होने या न होने की स्थिति का वास्तव में हमारे जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है? इच्छाओं के पूर्ण होने की स्थिति में हमें क्या मिल जाता है! और इनके पूर्ण नहीं होने की स्थिति में हमारा क्या खो जाता है?  कोई इच्छा अगर पूरी नहीं होती है, तो क्या हमारा जीवन बेकार हो जाता है? 

जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो!

जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो! क्योंकि तुम्हारे भीतर समस्त संसार का प्रकाश है। वही प्रकाश जो साधना पथ को प्रकाशित कर सकता है। यदि तुम भीतर नहीं देख सकते तो उसे कहीं और देखना व्यर्थ है।

Osho

इच्छा का होना भी जरूरी है! या यूं कहें कि जीवन है तो इच्छा भी है। गहन अर्थों में यह मनूष्य के जीवन में अस्तित्वगत स्थितियों के कारण घटित हो रही है। यह बात और है कि साधारण मनुष्य की इच्छा बाहर की ओर उन्मुख है। यह अज्ञानता के कारण है! वास्तव में मनुष्य के जीवन का लक्ष्य क्या है? मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है, स्वयं को जानना! यह जानना की उसका अस्तित्व कहां से है। मनुष्य के जीवन का जो अस्तित्व है, उसका कारण उसके भीतर विद्यमान परम ऊर्जा है। यही जीवन ऊर्जा का कारण है, जो परमसता ईश्वर का ही अंश है। इसी ऊर्जा को जानना मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। और इसे जान लेने की चाहत का होना ही इच्छा का वास्तविक स्वरुप है। 

अपने एक प्रवचन में ओशो के द्वारा एक सूत्र पर चर्चा की गई है। यह सूत्र है ‘जो तुम्हारे भीतर है उसी की इच्छा करो।’

इस सूत्र को समझाते हुवे उन्होंने कहा है: “यह बड़ा उल्टा है! दो अर्थों में उल्टा है। एक तो हम सदा उसकी इच्छा करते हैं, जो हमारे भीतर नहीं है। इच्छा का अर्थ ही यह होता है जो हमारे पास नहीं है, जिसका अभाव है, उसकी ही इच्छा होती हैं। इच्छा का अर्थ ही यह हुवा कि अभी हमारे पास नहीं है, कल हो सकता है! कल हो सकेगा, उसकी वासना ही तो इच्छा है।

यह सूत्र कहता है कि ‘जो तुम्हारे भीतर है उसकी इच्छा करो।’ तो पहली बात यह है कि जो तुम्हारे भीतर नहीं है, उसकी इच्छा मत करना। और हमारी सारी इच्छाएं तो उसी की हैं जो हमारे भीतर नहीं है। हम तो उसी को मांग रहे हैं, जो हमारे पास नहीं है। और यह तर्कसंगत भी है कि हम उसी को मांगें, जो हमारे पास नहीं है। जो पास है ही उसे मांगने का क्या अर्थ? इसलिए पहली बात तो यह है कि इच्छा जो भीतर है, उसकी होती ही नहीं! इसलिए सूत्र बड़ा उल्टा है।

और दुसरा इसलिए भी यह सूत्र गहरा और उल्टा है कि जीवन में मिलता केवल वही है, जो हमारे पास था। वह तो कभी मिलता ही नहीं, जो हमारे भीतर था ही नहीं। कुछ भी हम पायें, वह बाहर ही रह जायगा! और जो बाहर ही रह जायगा, वह हमें मिलता कहां? वह हमसे छीना जा सकता है, उसकी चोरी हो सकती है, उसपर डाका डाला जा सकता है। और न चोरी हो, न डाका पड़े, कुछ भी न हो तो भी मौत छीन लेगी। मौत के क्षण में जो आपने चाहा था, इकट्ठा किया था, वह आपके हाथ से गिर जायगा। वह आपके पास था, लेकिन वह आपका नहीं हुवा था। आपका हो जाता तो कोई भी आपसे छीन नहीं सकता था।

इसलिए धर्म की दृष्टि में संपदा का अर्थ है, वह जो आपसे छीनी न जा सके। जो आपसे छीनी जा सके, वह विपदा है। संपति तो वही है जो तुम्हारे पास से छीनी न जा सके! जो भी हम बाहर से डालेंगे, वह वापस लिया जा सकता है। जो हमारे स्वभाव के साथ ही उपलब्ध हुवा है, वही हमसे छीना नहीं जा सकता। जो तुमसे छीनी न जा सके, उस सत्ता का नाम आत्मा ही है।

क्यों इधर उधर की इच्छा में समय और जीवन-ऊर्जा को नष्ट किया जाय? क्योंकि पा भी लिया जाए, तब भी खो जाना है! तो सारा श्रम व्यर्थ हो जाता है, पानी में खींची लकीर की तरह! हम खींच भी नहीं पाते और वो मिट जाती है। ठीक वैसी ही हमारी सारी संपदा है। हम उपलब्ध भी नहीं कर पाते कि सब खोना शुरू हो जाता है।

इच्छा करनी ही है तो उसकी इच्छा करो, जो पानी पर खींची लकीर साबित न हो और वह संपति तुम्हरा भीतर है! उस संपति को व्यक्ति पैदा ही होता है लेकर। इस अस्तित्व में कोई भी दरिद्र नहीं है! अस्तित्व सभी को सम्राट ही पैदा करता है। दरिद्र हम अपने हाथों से हो जाते हैं। दरिद्रता अर्जित है, बड़ी मेंहनत से हम दरिद्रता को कमाते हैं। संपदा लेकर पैदा होते हैं! वह हमारे भीतर ही छिपा होता है। 

लेकिन जो हमारे भीतर है, उसे भी पाना पड़ता है। क्योंकि उसका विस्मरण है! क्योंकि उसकी कोई यादाश्त नहीं है। जानकर हम अपने मन को ऐसे रास्ते पर ले गये हैं, जहां उसकी विस्मृति हो गयी है। हमारा ध्यान बाहर चला गया है। और भीतर ध्यान को लाने का मार्ग हम भूल गए हैं।

भगवान बुद्ध ने कहा है कि ‘जीवन दुख है!’ जब पूरा जीवन ही दुख मालूम होगा, तब अचानक ख्याल आयगा कि बाहर तो दुख है! तो मैं भीतर की खोज करके देख लूं कि वहां क्या है। बाहर जब सब व्यर्थ हो जाता है जो व्यक्ति भीतर की तरफ उन्मुख होता है। बच्चा तो पैदा होता है बाहर की तरफ उन्मुख! कभी कभी कोई जीवन में गहन अनुभव से गुजरकर भीतर की तरफ उन्मुख होता है। भीतर की उन्मुखता के लिए यही सूत्र है ‘जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसकी इच्छा करो’।”

इच्छाओं से ऊपर उठ जाओ! वे पूरी हो जाएंगी, अगर मांगोगे तो उनकी पूर्ति तुमसे दुर चली जाएगी।

स्वामी रामतीर्थ

ज्ञानियों की बातें व्यर्थ नहीं होती! उनकी बातों में जीवन दर्शन छिपा होता है। हां यह बात और है कि साधारण को उनकी बातों आसानी से समझ में नहीं आती। परन्तु गहराई से विचार करें तो उनकी बातें  समझ में आने लगती हैं। बुद्धिमान व्यक्ति के लिए इच्छाओं का परित्याग करना बहुत ही सहज है! परन्तु सामान्य के लिए यह अत्यंत कठिन है। जो सहज होता है, जरुरी नहीं कि वह सरल हो। जब तक कोई व्यक्ति अपनी पूरी जीवन ऊर्जा इसमें नहीं लगा देता, तब तक यह सरल नहीं हो पाता है। इच्छा का दमन करने से इसका त्याग करना संभव नहीं हो सकता। हम इच्छाओं का जितना दमन करेंगे, वे उतना ही बलवती होती चली जायेंगी। अतः इसके लिए समझ को विकसित करने की जरूरत है। अपनी इच्छाओं को समझ के साथ सही दिशा देने की जरूरत है। इसके लिए मन को नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। इच्छाओं का परित्याग इच्छाशक्ति से ही संभव है।

बुद्धिमान व्यक्ति सदैव आत्म संतुष्टि रुपी लौ अपनी इच्छाओं की आहूति से प्रकाशमान बनाए रखते हैं।

रामकृष्ण परमहंस

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