मन की आंखे खुलती हैं! प्रेम से अथवा ध्यान से !
ज्ञानियों का कहना है कि ‘मन की आंखें’ समस्त सृष्टि का अनुभव करने में समर्थ होती हैं। मन की आंखें अगर खुली हों तो स्वयं के भीतर सृष्टिकर्ता का साक्षात्कार कर पाना संभव हो जाता है। तन की आंखें बाहर देखने वाली आंखे होती हैं, और भीतर देखने् के लिए मन की आंखे होती हैं। बाहर देखनेवाली आंखें बंद होती है तो भीतर देखनेवाली आंखें खुलती हैं।
सृष्टिकर्ता ने संसार के जीवधारियों के तन को विशिष्ट अंग के साथ निर्मित किया है। आंखें वो अंग हैं, जिसके कारण जीवों में अपने आसपास के वातावरण को देख ने की क्षमता होती है। ‘तन की आंखे’ हमें आसपास के दृश्य को चलचित्र की तरह दिखाती हैं। यह कैमरे की तरह होती हैं, जो आसपास के दृश्यों को प्रतिबिम्बित करती हैं। आंखें मानव के पांच ज्ञानेन्द्रियो में से एक है। परन्तु जहां तक देखने की बात है, तन की आंखें बाहरी दृश्यों का ही अनुभव कराती हैं।
आंखो की एक विशेषता यह भी है कि ये मन के भावों को भी व्यक्त करती हैं। मन में जो भाव प्रगट होते हैं, वे आंखों में झलकती है। मन में छिपे भाव को आंखों से व्यक्त किया जाता है और नेत्रों से ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। कवि रहीम कहते हैं :
कवि रहीम इक दीप तें प्रगट सबै दुति होय। तन सनेह कैसे दुरै दृग दीपक जरू दोय।।
रहीम कहते हैं कि जब एक ही दीपक के प्रकाश से घर में रखी सारी वस्तुएं स्पष्ट दिखने लगती हैं। तो फिर नेत्र रुपी दो दो दीपकों के होते हुवे तन मन में बसे भाव को कोई कैसे छुपाकर रख सकता है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि “ब्रम्हांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं, वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है।”
यह जो मन की आंखे हैं, दो तरह से आंखें खुलती हैं, प्रेम से या ध्यान से। प्रेम एक ऐसा तत्व है, जिससे मन की आंखे खुल जाती हैं। फिर व्यक्ति भीतर बैठे परम द्रष्टा का साक्षात्कार कर पाने में सफल हो जाता हैं। ध्यान एक क्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने मन को चेतना की एक विशेष अवस्था में ले आने का प्रयास करता है। ध्यान के द्वारा जब मन की आंखे खुलती हैं, तो तन मन में आंतरिक ऊर्जा का संचार होता है। ध्यान क्या है जानिए ! Know what is meditation. जिसकी मन की आंखे खुल जाती हैं, वह व्यक्ति जागरुक हो जाता है।
संत कबीर कहते हैं कि कोई अगर प्रेम का ढ़ाई अक्षर को ठीक प्रकार से पढ़ ले, समझ ले तो वह सर्वज्ञ हो जाता है। और जो सर्वज्ञ हो जाता है उसे और कुछ जानने की जरूरत नहीं होती। उसकी मन की आंखे खुल जाती हैं।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय। ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।। _ संत कबीर
इस जगत में एक संतुलन है, जैसे दिन है तो रात भी है। उजाला है तो अंधेरा भी है। इसी प्रकार अच्छाई और बुराई समान रुप से मनुष्य के भीतर स्थित होता है। इससे कोई कभी वंचित नहीं हो सकता। जब तक कोई व्यक्ति अपना ध्यान अच्छाईयों पर केन्द्रित नहीं करता, तब तक वो चीजें प्रबल रहती हैं, जो अच्छी नहीं होती। यह स्वयं पर निर्भर करता है कि कोई किस चीज का उपयोग करता है। क्रोध का या दया का, प्रेम का अथवा घृणा का!
ओशो के शब्दों में; हृदय के द्वार बंद हैं, तो परमात्मा का दिखाई देना असंभव है। आंखे खुली हो तो रोशनी है। आंख के खुले होने में रोशनी है, और आंखें बंद हों तो एक नहीं हजार सुर्य ऊग जायें तो भी अंधेरा रहेगा, अमावस की रात रहेगी। लेकिन यह तुम्हारी भूल नहीं, करीब करीब सबकी भूल है। परमात्मा दिखाई न दे तो, लोग सोचते हैं, परमात्मा होगा नहीं, इसलिए दिखाई नहीं देता। वैसे विरले एक न एक दिन परमात्मा को देखने में समर्थ हो जाते हैं। इसलिए अंतिम सुत्र है! परमात्मा की तलाश छोड़ो, आंख कैसे खुले इसकी युक्ति सीखो!
ध्यानी आंख बंद करके, यानी बाहर की आंखें बंद कर लेता है। बाहर देखने वाली आंखें परमात्मा को नहीं देख पायेगी। क्योंकि परमात्मा तो तुम्हारे अंतरतम में छुपा बैठा है। उसे देखना हो तो बाहर देखनेवाली आंखें बंद करनी होगी। बाहर देखनेवाली आंखें बंद होती है तो भीतर देखनेवाली आंखें खुलती हैं। वही रोशनी जो बाहर भटक जाती है, छिटक जाती है, भीतर संग्रहित हो जाती है। उसी रोशनी के सघनीभूत होने पर तुम्हें अपना अंतस्तल दिखाई पड़ता है।
गीतकार राय चंद बोराल द्वारा रचित इस गीत की पंक्तियां पुरे तन मन को परमसत्ता के स्मरण में लगाने की सीख देती है। इस मतलब की दुनिया में रहना तो है पर दुनियादारी में रम जाना सर्वथा अनुचित है।
दुनिया क्या है एक तमाशा, चार दिनों की झुठी आशा ! पल में तोला पल में माशा, तराजू लेके हाथ में तोल सके तो तोल! बाबा मन की आंखे खोल ..!
मतलब की सब दुनियादारी, मतलब के हैं सब संसारी ! जग में तेरा हो हितकारी, तन मन का सब जोर लगाकर नाम हरि का बोल! मन की आंखे खोल बाबा मन की आंखे खोल..!
अध्यात्म क्या है ! Know what is spirituality.
ओशो समझा गये हैं कि परमात्मा कोई और नहीं है, तुम्हारे भीतर बैठा हुवा साक्षी परमात्मा है।जिसने भीतर परमात्मा देख लिया, उसे फिर बाहर भी दिखाई पड़ने लगता है। जिसने अपने भीतर पहचान लिया, उसने सबके भीतर पहचान लिया, मगर पहला दर्शन स्वयं के भीतर घटना चाहिए।
संसार में ऐसे विचारक हुवे हैं,जिनके मन की आंखें खुली हैं। ऐसे बुद्ध पुरूष हुवे हैं, जिन्हें बोध की प्राप्ति हुवी है। हर युग में, प्रत्येक काल में ऐसा होता आया है। और संसार में जो एक बार घटित हुवा हो उसकी पुनरावृति होती रही है। कभी कृष्ण के रुप में, कभी बुद्ध के रुप मे, कभी नानक के रुप में तो कभी कबीर के रुप में बुद्ध पुरुषों का अवतरण होता रहा है।
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