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देनहार कोऊ और है — Denhar Kou Aur Hai

देनहार कोऊ और है! अर्थात् देनेवाला कोई और है, हम अगर किसी को कुछ देते हैं तो केवल चीजों को हस्तांतरित करते हैं। देनहार हम नहीं होते, अगर ऐसा कोई समझता है तो यह उसकी नासमझी है। देनहार! अर्थात् दाता, सरल तरीके से कहें तो इस शब्द का अर्थ है देनेवाला! जब कोई किसी को कुछ देता है तो वह देनहार अथवा दाता समझा जाता है। लेकिन वास्तव में देनहार है कौन ? इस पर कितने लोग विचार करते हैं? आइए इस शब्द के आशय को समझने के लिए एक प्रसंग पर चर्चा करते हैं!

मध्ययुगीन काल में एक ही समय में दो ज्ञानी पुरुष हुवे थे। एक को स्वामी तुलसीदास और दुसरे को रहीम खानखाना के नाम से जाना जाता है। रहीम ज्ञानी तो थे ही, दानी एवम् परोपकारी भी थे। रहीम शहंशाह अकबर के नवरत्नों में से एक थे। जाहिर सी बात है कि धन-दौलत की उन्हें कमी नहीं रही होगी। परन्तु जैसा उनका आमद था, वैसा ही उनका खर्च! जिस प्रकार उनके पास धन आता था, उसी प्रकार वे बांट भी दिया करते थे। उनके संबंध में साहित्यज्ञ रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि वे अपने समय के कर्ण थे! कोई उनके दर पर कुछ पाने की इच्छा लेकर आता तो खाली हाथ लौटकर नहीं जाता था। लेकिन उनकी विशेषता यह थी कि देते समय वे अपनी नजरों को झुका लेते थे।

उनके समकालीन स्वामी तुलसीदास को उनके इस अनोखे अंदाज के विषय में पता चला। एक ज्ञानी दुसरे ज्ञानी को न समझ पाये ऐसा कैसे हो सकता है? फिर भी उन्होंने रहीम के देने के ढंग पर चुटकी लेते हुए एक दोहा लिखकर उनके पास भेज दिया।

ऐसी देनी देन जूं कित सीखो हो सैन।

ज्यों ज्यों कर ऊच्यो करो त्यों त्यों नीचे नैन।।

अर्थात् तुलसीदास जी ने उनसे यह पूछ ही लिया कि सांई! देने की ऐसी जो विधि है, इसकी सीख आपको कहां से मिली है। देते समय जैसे-जैसे आपके हाथ ऊपर की ओर उठते हैं, आपकी नजर वैसे-वैसे नीची होती चली जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने पंडित तुलसीदास के इस दोहे के प्रत्योतर में एक दोहा लिखकर भेजा, जो इस प्रकार है: 

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन रैन।

लोग भरम हम पे करैं यातै नीचे नैन।।

अर्थात् देनेवाला तो कोई और है, जो रात-दिन हमारे पास भेजता रहता है। लोग भ्रमवश यह समझ सकते हैं कि देनेवाला मैं हूं! इसलिए देने में संकोच है, क्योंकि लोग यह न समझ बैठें कि मैंने दिया है। इसलिए जब देने के समय हाथ ऊपर उठते हैं तो नजर नीची हो जाती है।

देनहार कोऊ और है! देनेवाला तो ईश्वर है, जिसने सबकुछ रचा है, जो हम सबका सृजन हार है और जो हम सबका पालनहार है, जो कुछ भी है, सबकुछ उसी का तो है। तुलसी का सवाल और रहीम का जबाब! दोनों ही ज्ञानियों की बातें हैं। और ज्ञानियों की बातों को ज्ञानी ही समझ सकता है। वही समझ सकता है, जो इस धारणा पर भरोसा करता हो, जो सबकुछ ईश्वर का है। परमात्मा का है सबकुछ! इसे वही मान सकता है, जिसने स्वयं को जाना हो, भीतर ज्ञान के प्रकाश का अनुभव किया हो। 

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इस बात के संबंध में ओशो कहते हैं कि यह परमात्मा पर धारणा का लाभ है। ‘देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन रैन’ परमात्मा पर धारणा का यह लाभ है कि तुम अपने को किसी के चरणों में रख सकते हो। सब तरह से रख सकते हो। ‘देनहार कोऊ और है, भेजत सो दिन रैन‘ कोई भेजे चला जा रहा है, हमारा किया कुछ भी नहीं है। कोई कर रहा है! ‘लोग भरम मुझ पे करैं याते नीचे नैन’ इसिलिए आंखे संकोच से नीचे कर लेते हैं कि लोग बड़ी गलत बात सोंच रहे हैं कि हम दे रहे हैं। देनेवाला कोई और है। तो अहंकार को खड़े होने की जगह नहीं रह जाती। परमात्मा की धारणा का लाभ है कि अहंकार न बचे। 

अगर कोई ठीक से उपयोग करे तो धारणाएं लाभपूर्ण हैं। और अगर कोई ठीक से उपयोग न करें तो धारणाएं खतरनाक हैं। सत्य जहर हो सकता है, सब पीने वाले पर निर्भर है। समझदार तो ऐसे भी हुवे हैं कि जहर को भी औषधि बनाकर पी गये। और नासमझ ऐसे हुवे कि औषधि को जहर बनाकर पी गये, विषाक्त हुवे और मर गये।

मैं जो तुमसे कह रहा हूं, तुममें से जो समझ पायेंगे उनके ही काम का है। मैं जो तुमसे कह रहा हूं, तुमने सुन लिया, तुम्हारे कानों में पड़ गया, तुम्हारा हो गया। अब तुम जो चाहो सो करो, जो अर्थ निकालना है निकालो। तुम सुनोगे तुम्हारे ही ठंग से, तुम उसका उपयोग भी करोगे तुम्हारे ही ठंग से।

Osho

सामान्य व्यक्ति की हालत यह है कि वह मन के ऊपरी सतह से सोंचता है, वह बुद्धि के अनुसार चलता है। मनुष्य की जो बुद्धि है, मन के अनुसार कार्य करती है। जिन वस्तुओं को पाने में उसे श्रम करना पड़ता है अथवा किसी भी प्रकार से उसे वह पा लेता है तो मान लेता हैं कि उसी का है! और  अगर उन वस्तुओं को किसी को देना पड़े तो मन में देने का भाव उभर कर आता है। मन में अहंकार उभर कर आता है, वह खुद को ही देनहार समझ लेता है।

अहंकारी व्यक्ति प्राय: शंकालु हुवा करता है, और इसी कारण अपने जीवन को जहर बना लेता है।

मुंशी प्रेमचंद

आप चाहे कितनी ही पवित्र शब्दों को पढ़ लें या बोल लें, जब तक उसपर अमल नहीं करते, उसका कोई फायदा नहीं है।

महात्माबुद्ध

अगर ज्ञानियों की मानें तो इस संसार में देनहार कोई भी नहीं है। क्योंकि जब हमारा कुछ है ही नहीं तो फिर देने की बात ही बेमतलब है। जो उपलब्ध है, जो हमारे पास है! उसे हम समझ लेते हैं कि वह मेंरा है। हम भ्रम पाल लेते हैं, यह भूल जाते हैं कि देनहार कोऊ और है! जो भी मेंरे पास है, किसी और का दिया हुवा है। जो मुझे मिला है, किसी और का दिया हुआ है। तो फिर जब हमारे द्वारा किसी और के पास वह वस्तु हस्तांतरित होता है तो हम देनेवाले कैसे हो सकते हैं। रहीम के उक्त दोहे का निहितार्थ भी यही है। और महत्त्वपूर्ण यह है कि जो है उसे जानना है। 

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