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ऐसी वाणी बोलिए …

ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करै आपहूं शीतल होय।।

उक्त दोहा संत कबीरदास जी की वाणी है। दोहे का भावार्थ है! मीठे बोल यानि वाणी की मधुरता सुनने वाले एवम् बोलने वाले दोनों के मन को शांत करती है। परन्तु मीठे बोल बोलना सभी संभव हो पाता है, जब मन अहंकार से रहित हो। 

कबीर कहते हैं; वाणी ऐसी बोलनी चाहिए जो दुसरों के मन को शांति दे और स्वयं के मन को भी शांत करे। इसका विपरीत अर्थ है कि दुसरों के प्रति कटु वाणी से उन्हें तो कष्ट होगा ही, आप को भी सुख नहीं मिलेगा। 

अगर आप से यह पूछा जाय कि कोई आपसे कटु वचन बोलता है, तो आपको कैसा लगता है? स्वभाविक है आपको अप्रिय लगेगा। ठीक उसी प्रकार आपके कटु वचन दुसरों को भी अप्रिय लगेगा, इस बात का ध्यान रखना चाहिए। अतः हमेंशा यह प्रयास करें कि आपके द्वारा किसी से ऐसा वर्ताव न हो, जो आपको स्वयं नापसंद हो।

ऐसी वाणी बोलिए! इस पद में एक शब्द है ‘वाणी’ यानि कि मुख से निकले शब्द। अर्थात इस पद में यह कहा जा रहा है कि बोलते समय सजगता की जरूरत है। जब हम किसी से कुछ कहते हैं तो किसी न किसी भाषा का प्रयोग करते हैं। और भाषाओं में शब्दों का प्रयोग होता है। जब हम शब्दों का उच्चारण करते हैं तो ध्वनि उत्पन्न होती है। 

‘मन का आपा खोय’ अर्थात् अहंम भाव का त्याग कर । मन को अहम् भाव से मुक्त रखकर बोलना चाहिए, इतनी सतर्कता जरूरी है। जब हम अहंकार में होते हैं तो जीवन में समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। हर किसी के साथ नम्र व्यवहार करने से उन्हें तो सुख मिलता ही है, बदले में हमें भी सम्मान मिलता है। इस प्रकार भीतर और बाहर दोनों ओर से प्रतिक्रिया स्वरुप हमें सुख और शांति का अनुभव होता है। 

प्रयत्न ऐसा हो कि आपकी बातों से किसी को कोई कष्ट न हो! औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय! अर्थात् आपकी वाणी ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर दुसरों के मन को शांति मिले और आपके मन को भी शांति मिले। परन्तु यह तभी संभव है, जब हम नम्र होते हैं। नम्रता वह गुण है जो हमारे भीतर समानता का भाव विकसित करता है। 

नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य का आभुषण है !

स्वामी विवेकानंद

बोलते वक्त सजग और सतर्क रहने की जरूरत है, तभी वाणी में मधुरता बनी रह सकती है। अगर भाषा संतुलित हो, वाणी में मधुरता हो तो सुनने वाले को मधुर प्रतीत होता है, उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। और ऐसा करने से बोलने वाले को भी सुकून मिलता है। इससे संवाद करने का जो आशय होता है, सार्थक होने की संभावना अधिक होती है।

जब मन और वाणी एक होकर कोई चीज मांगते हैं, तब उस प्रार्थना का फल अवश्य प्राप्त होता है।

रामकृष्ण परमहंस

बोलते समय अगर सही ढ़ग से वाणी का प्रयोग किया जाय तो वह बोलने के उद्देश्य का पुरक हो सकता है। यह हमेंशा ध्यान रहे कि अप्रिय वाणी अथवा कठोर वचन दुसरे के मन को दुखी कर सकता है। अगर हम बोलते समय मुख से निकलते वाणी के प्रति सजग न रहें तो अनर्थ हो सकता है। वाणी एक स्वर अथवा ध्वनि ही नहीं, बल्कि एक भाव है, जो शब्दों के रूप में प्रगट होता है। 

वाणी से व्यक्ति के समझ का पता चलता है, उसकी नम्रता प्रर्दशित होती है। वाणी में इतनी शक्ति होती है कि वह किसी के मन को शांत अथवा अशांत कर सकता है। कड़वी वाणी बोलने से स्वयं के मन को भी दुखी करता है और दुसरों को भी दुखी कर देता है। व्यक्ति के मुख से निकले बोल उसके गुण और अवगुण को दर्शाते हैं।

मन अगर अहंकार से भरा हो तो वाणी भी अप्रिय हो जाती है। अगर हम मन को आपा से मुक्त कर नहीं बोलते तो हमारे मुख से निकले शब्दों की मधुरता मलीन हो जाती है। अच्छे भाव अच्छे शब्दों को जन्म देते हैं। प्रत्येक शब्द का कोई न कोई अर्थ निकलता है। और अर्थ का बोध करानेवाली जो शक्ति है, उसका प्रभाव उन शब्दों का प्रयोग करनेवाले के मनोभाव पर निर्भर करता है। 

वाणी से ही वाणों की वर्षा होती है, जिस पर इसकी बौछारें पड़ती हैं, वह दिन-रात दुखी रहता है।

बाल्मिकी

शब्दों की शक्ति ही बोलने वालों के मनोभाव पर निर्भर करता है। वाणी में जो शक्ति है, कड़वा बोलने वालों को शहद बेचने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। और मीठे वचन बोलकर मिर्ची भी सरलता से बेंची जा सकती है। शब्दों के चयन पर निर्भर करता है कि उसकी कीमत मिलेगी अथवा चूकानी पड़ेगी।

ऐसा हो सकता है कि समझदारी से शब्दों का प्रयोग करें, और सुननेवाले उसका मतलब दुसरा निकाल लें। क्योंकि सुनने वाले भी अपनी समझ और मनोभाव के अनुसार ही शब्दों का मतलब निकालते हैं। परन्तु अपनी ओर से हमेंशा सही मनोभाव के साथ शब्दों का प्रयोग करना ही उचित है। अगर आप सही हैं तो हमेशा ऐसा नहीं होता कि आपके बातों का गलत मतलब निकाला जाए। 

जब दो व्यक्तियों अथवा पक्षों के मध्य किसी विषय पर संवाद होता है तो विवाद की संभावना भी बनी रहती है। ऐसी स्थितियों में दोनों पक्षों को मानसिक द्वंद से गुजरना पड़ सकता है। विचार मंथन के दौरान अमृत और विष दोनों निकलकर सामने आते हैं। बल्कि अमृत से ज्यादा विष की संभावना अधिक होती है। हमारा प्रयास होना चाहिए कि उस विष को कंठ में ही रोक लें, उसे वाणी में परिवर्तित नहीं होने दें। केवल अमृत ही वाणी का रुप ले तो यह सब के हित में होता है। वाणी में सरलता, व्यवहार में सरलता अगर हो तो यह सबके लिए हितकारी होता है। दो

वास्तव में हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण चीज है, जो हमें अन्य जीवों से पृथक करता है। वह है भाषा, जो शब्दों से निर्मित है। शब्द एक कुंजी की भाति कार्य करते हैं। इसका सही प्रयोग कर लोगों के बन्द दिमाग का ताले खोले जा सकते हैं। विचारों के आदान-प्रदान के लिए हमें शब्दों का प्रयोग करने की जरूरत होती है। इसलिए हरसंभव यह प्रयास करना चाहिए कि बोलते समय हमारी वाणी सरल हो, मीठास से भरी हो। ‘ऐसी वाणी बोलिए’ ऐसा कहकर कबीर यही इशारा कर गये हैं। 

ओशो के शब्दों में ; “अर्थ शब्दों में नहीं होता है, अर्थ देखनेवालों की आंखों में होता है। अर्थ शब्द में छिपा नहीं है कि तुमने शब्द को समझ लिया तो अर्थ को समझ लिया। शब्द तो केवल निमित है, खुंटी है, टांगना तो तुम्हें अपना कोट ही पड़ेगा। तुम जो टांगोगे, वही खुंटी में टंग जायगा। वेद को जब बुद्धु पड़ेगा तो वेद उसी के अनुसार बुद्धु हो जाते हैं।” 

Osho

शब्द कितने ही करीब क्यों न हों, अर्थ अगर किसी के मन को छू न सके तो व्यर्थ है। पढ़ना, सुनना, बोलना सब व्यर्थ है। अगर ज्ञानियों की कही बातों को हम जीवन में नहीं उतार सकें तो ये भी व्यर्थ की बातें हैं। कबीर के कहे का अर्थ हम क्या निकालते हैं, यह हम सब के अपने-अपने समझ पर निर्भर करता है। वैसे ज्ञानियों की वाणी रहस्यमय होती है, इतनी आसानी से समझ में नहीं आती। कबीर की वाणी के भाव को, एक एक शब्द के सही अर्थ को समझने के लिए गहन चिंतन की जरूरत है। 

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