मन को नियंत्रित करने के उपाय !
वायु की भांति गतिमान और चंचल प्रकृति वाले मन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत कठिन है। साधारण मानव के लिए तो यह एक असंभव कृत्य है। वायु की भांति चंचल प्रकृति के स्वामी का स्वामी बनना दुश्कर है। परन्तु लगातार प्रयास और ज्ञान का अंकुश देकर इसे नियंत्रित किया जा सकता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करते हुवे कहा है कि ‘हे पार्थ यह मन अति चंचल है, उसे वश में करना अत्यंत कठिन है, परन्तु असंभव नहीं है।’
ज्ञानियों ने मन पर नियंत्रण के अनेक उपाय बताए हैं। आइए इस बात पर चर्चा करने से पहले मन की प्रकृति पर विचार करते हैं। मन प्राणियों के तन का एक अदृश्य अंग है। यह जो मन है बहुरूपिया है एवम् बहुत शक्तिशाली है। इसके अनेक चेहरे हैं। मन अंहकारी भी है और बुद्धिमान भी है। मन जब अकड़ जाता है और कहता है मैं ही सबकुछ हूं, तब वह अहंकार है। जब वह विचार करता है, और उस विचार को लेकर सुनिश्चित एक मार्ग पर चलता है तब वह बुद्धि है। इसके रूप-रंग और ढ़ंग बहुत हैं, परन्तु मन एक है। मन की महीमा अद्भभुत है। मन भटकाता भी है और जीवन को संवारता भी है। सुख-दुख, हर्ष-विषाद आशा-निराशा, शान्ति-अशान्ति जैसी अनुभुतियां सबकुछ मन का ही खेल है।
मन के मते न चलिये – Man Ke Mate mat Chaliye
मन और आत्मा !
मनुष्य का जीवन दो त्तत्वों से प्रभावित होता है, जड़ और चेतन। शरीर जड़ तत्व है, मन और आत्मा चेतन तत्व हैं। अब प्रश्न उठता है कि मन और आत्मा एक ही हैं या अलग-अलग हैं ? ज्ञानियों ने आत्मा को परमात्मा का अंश कहा है। और मन को शरीर का अंश माना जाता है। फिर आत्मा और मन एक कैसे हो सकते हैं?
ओशो ने इनकी तुलना सागर के तुफान और सागर से की है। ओशो के शब्दों में; विक्षुब्ध जब हो जाय सागर तो हम कहते हैं तूफान है। आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं मन है। और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं आत्मा है। मन जो है वह आत्मा की विक्षुब्ध अवस्था है। चेतना जब हमारे भीतर विक्षुब्ध है, विक्षिप्त है, तूफान से घिरी है तब वह मन है। इसिलिए जब तक आपको मन का पता चलता है, तब तक आत्मा का पता नहीं चलेगा। इसलिए मन ध्यान में खो जाता है। इसका मतलब यह है कि, वे जो लहरें उठ रही थी आत्मा पर, सो जाती हैं, वापस शांत हो जाती हैं। तब आपको पता चलता है मैं आत्मा हूं। जब तक विक्षुब्ध है तब तक पता चलता है मन है। विक्षुब्ध मन अनेक रुपों में प्रगट होता है। कभी अहंकार की तरह, कभी बुद्धि की तरह, कभी चित्त की तरह।
मैं की माया !
ओशो कहते हैं; साधारण मानव एक यंत्र की भांति जीता है। उसका प्रेम, उसकी घृणा, सब यान्त्रिक है, उसमें कहीं कोई चेतना का अस्तित्व नहीं है। लेकिन इन सारे कर्मो को करके वह सोचता हैं कि वही कर्ता हैं। जो ऐसा समझ लेता है वह यहीं रूक जाता है और उसकी आगे की यात्रा बंद हो जाती है। जब तक मनुष्य की आत्मा सचेतन न हो, जब तक मानव का बोध जाग्रत ना हो, तब तक ना तो कर्म उसके होते हैं, ना विचार उसके होते हैं। इस बोध के द्वारा ही इस किरण का जन्म हो सकता है, जो हमें सचेतन जीवन दे सकती है, और यान्त्रिक जीवन से ऊपर उठा सकती है।
सबकुछ मन का ही खेल है। मनुष्य के तन और आत्मा के बीच में मन अवस्थित है। यह तन और आत्मा के बीच का अवरोध है। और यह विक्षुब्ध मन के कारण है। अपने विक्षुब्ध अवस्था में वह अंहकारी हो जाता है। इस मैं के अभिमान की मदिरा पीकर मनुष्य मदहोश हुवा जाता है। फिर मन जो सोचता है, वही करता है। यह मन ही है जो मोह-माया के संसार का निर्माण करता है।
तन और आत्मा के बीच का सेतु भी मन ही है। वह मनुष्य के जीवन में संतुलन का भी कारक है। अगर मैं रूपी मदीरा का त्याग कर ज्ञानरुपी रस का पान किया जाय, तो जीवन संतुलित हो जाता है। मोह-माया के बंधनों से मुक्ति पाना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। प्रत्येक मनुष्य को अपने मन को नियंत्रित कर! स्वयं के भीतर प्रवेश कर! स्वयं को जानने का प्रयास करना चाहिए। स्वयं के अंतर्तम में प्रवेश करने में जो सफल हो जाता है। उसे आत्मा जो कि परमात्मा का अंश है! उस परम प्रकाश का साक्षात्कार हो जाता है।
ध्यान क्या है जानिए ! Know what is meditation.
मन को नियंत्रित कैसे करें !
मन को वश में करने का उत्तम उपाय है; उसकी दिशा को ही बदल देना। जो मानसिकता विकारों की ओर जा रहा है, उसे सदविचारों की ओर मोड़ देना। जो भी हमारे आसपास घट रहा है, उन सब की जड़े हमारे मन में निहित है। इसी से विचार उत्पन्न होते हैं और यही सदा कारण होता है। अगर यह गलत दिशा में अग्रसर हो तो इसे परिवर्तित कर देना उत्तम उपाय है।
भारतीय दर्शन से हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की शिक्षा मिलती है। मनुष्य का शरीर स्थुल तत्व से बना है। आहार भी स्थूल है, जिससे हमारे शरीर का पोषण होता है। यदि उसे शुद्ध और सात्विक बना लिया तो मन पर नियंत्रण पाना सरल हो जाता है। आहार पर नियंत्रण के बाद शरीर को साधने का प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। विविध प्रकार के आसन-व्यायाम आदि का विधान शरीर को साधने के लिए ही है। इससे शरीर की चंचलता कम होती है, जिसका मन पर व्यापक असर होता है।
महर्षि पतन्जली ने योग को ‘मन की वृत्तियों के निरोध’ के रूप में परिभाषित किया है। उन्होंने ‘योगसूत्र’ नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है। उन्होंने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। यह आठ आयामों वाला मार्ग है, जिसमें आठों आयामों का अभ्यास किया जाता है। योगाभ्यास से व्यक्तित्व का विकास होता है, प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। ध्यान, योग के साधना से अहंकार मिट जाता है।
योग क्या है! जानिए : Know what is yoga !
जीवन का आनंद अगर सही तरीके से लेना हो तो मन पर नियंत्रण करना अतिआवश्यक है। इसके लिए उपाय भी हैं, परन्तु मैं की माया में उलझा मनुष्य को ये उपाय दुश्वार प्रतीत होते हैं। प्रख्यात धनुर्धर अर्जुन को भी इस विषय में असमंजस से गुजरना पड़ा। उसने श्रीकृष्ण से अपनी व्यथा को व्यक्त किया। श्रीकृष्ण मन पर नियंत्रण की आवश्यकता और निदान पर विस्तार से चर्चा की है। पवित्र गीता में दोनों के बीच इस विषय पर जो वार्तलाप हुवी हैं, उसका उल्लेख किया गया है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धनमोक्षयो:।।
श्री कृष्ण ने अर्जुन से यह बात कही है। श्लोक का शब्दार्थ है; यदि मन तुम्हारा स्वामी है और तुम उसके अधीन हो तो वह तुम्हें मोह-माया के बंधनों में जकड़ता रहेगा। और जब तुम मन को वश में कर लोगे तो एक ओर तुम उसके स्वामी हो जावोगे तो वही मन तुम्हें मोक्ष के द्वार तक ले जायगा।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है ; हे पार्थ! इस बात का स्मरण रहे कि मन शरीर का अदृश्य अंग है, परन्तु आत्मा से इसका कोई संबंध नहीं है। श्रीकृष्ण ने मानव शरीर की तुलना ऐसे रथ से की है, जिसका सारथी मन है। श्रीकृष्ण कहते हैं; हे पार्थ! मनुष्य का शरीर एक रथ की भांति है। और ज्ञानेन्द्रियां इस तनरुपी रथ के घोड़े हैं। घोड़ों को जो सारथी चलाता है, वह सारथी ही मन है। और उस रथ में बैठा हुवा जो उस रथ का स्वामी है, वही आत्मा है। इस प्रकार यदि आत्मा तनरुपी रथ में बैठा हुवा उस रथ का स्वामी है तो मन तनरुपी रथ का सारथी है।
श्रीकृष्ण कहते हैं; यह मन ज्ञानन्द्रियों को उसके विषयों की ओर ले जाता है। ऐसा तब तक होता रहता है, जब तक मनुष्य अपने मन को दिशा नहीं देता। परन्तु जब मनुष्य स्वयं मन के अधीन न रहकर, मन को अपने अधीन कर लेता है। तो वही मन एक उत्तम सारथी की तरह तनरुपी रथ को सीधे प्रभु के चरणों में ले जाता है।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
अर्थात् हे कौन्तेय! मन पर नियंत्रण करने के लिए उसपर दो प्रकार से कार्य करना होता है। एक मार्ग है अभ्यास का और दुसरा है वैराग्य का। अभ्यास का अर्थ है निरंतर प्रयास करना। चंचल घोड़े की तरह मन भी बड़ा चंचल और उद्दंड है। घोड़े को वश में करने के लिए घुड़सवार जितना प्रयास करता है, घोड़ा उतना ही प्रति रोध करता है। वह बारम्बार सवार को नीचे गिरा देता है। परन्तु अपने दृढनिश्चय के बल पर सवार अंतत: घोड़े को वश में कर लेता है। फिर वही घोड़ा घुड़सवार के इशारे पर चलता है। इसी प्रकार मन को दृढ़संकल्प के साथ निरंतर प्रयास करते हुवे सही मार्ग पर लाना पड़ता है। अंत में वह अपने स्वामी का कहा मानना शुरू कर देता है।
अभ्यास का महत्व : Importance of prectice
परन्तु एकबार सही मार्ग में आ जाने के उपरांत भी मन के फिर से भटकने की संभावना बनी रहती है। क्योंकि इन्द्रयों के विषय उसे सदा ही अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। अतः मन को यह समझना अतिआवश्यक होता है कि समस्त मोह-माया के ये बंधन मिथ्या हैं। मन जब इस बात को समझ लेता है तो बिषयों से मुक्त हो जाता है। और विषयों से मुक्त होना ही वैराग्य है।
वैरागी मन क्या है जानिए ! Know what is the recluse mind
विना ज्ञान के मन में वैराग्य उत्पन्न नहीं हो सकता। ध्यान और योग के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति होने पर मन वैरागी हो जाता है। और मन पर नियंत्रण करने जैसी दुश्कर कार्य सरल हो जाता है। जो इसमें सफल होता है, वह जितेन्द्रिय कहलाता है।
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