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संगत से गुण होत है ..!

संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात! इस कथन का आशय ही यह है कि किसी के जीवन में गुण या अवगुण का आना-जाना, उसके संगत का असर होता है। संगत अथवा संगति किसी के साथ मिलने या होने की क्रिया या भाव है। जिससे कोई जुड़ा हो, वह कोई विचार, वस्तु अथवा व्यक्ति हो सकता है।

संगत से गुण होत है, संगत से गुण जात।।

हमारे जीवन में संगति का गहरा प्रभाव पड़ता है। संगत के अनुसार ही मति होती है, और वैसी ही गति हो जाती है। जैसे संगी-साथी होते हैं, बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। किसी के सोच की दिशा से ही उसकी दशा निर्मित होती है। संगति अच्छे विचारों, व्यक्तियों के साथ हो तो सुसंगति कहलाता है। सुसंगति से किसी व्यक्ति का जीवन प्रगतिशील हो जाता है। इसके उलट है कुसंगति, जो पतन का कारण होता है। मेंहंदी पीसने वाले का हाथ मेंहदी के रंग से रंग जाता है। वैसे ही काजल की कोठरी से गुजरो तो दाग लगता ही है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन के विषय में एक कथन है जो मैंने पढ़ी है! अपने अनुसंधान के विषय में चर्चा करने के वे बड़ी-बड़ी संस्थाओं में जाया करते थे। उनका ड्राइवर उनकी गतिविधियों को नजदीक से देखा करता था। एक दिन की बात है, एक विश्वविद्यालय में में व्याख्यान देने के पश्चात वे लौट रहे थे। रास्ते में उनके ड्राइवर ने उनसे कहा- महाशय, आपके जैसा तो मैं भी बोल सकता हूं। आपके साथ रहते-रहते और आपकी बातें सुनते हुवे इतना तो कर ही सकता हूं।

आइंस्टीन ने हंसते हुवे कहा कि ठीक है, अगली बार तुम्हें भी मौका दुंगा। फिर एक दिन जब वे एक दुसरी संस्था में व्याख्यान देने गये। तो उन्होंने उस ड्राइवर के कपड़े पहन लिए और अपनी पोशाक ड्राइवर को पहनाकर उसे मंच पर भेज दिया। उस ड्राइवर ने भी बेखौफ होकर बड़े बड़े विद्वानों के समक्ष ऐसा व्याख्यान दिया। किसी को यह समझ में नहीं आया कि वक्ता आइंस्टीन नहीं कोई और है।

व्याख्यान समाप्त होते ही एक वैज्ञानिक ने उस ड्राइवर से कुछ प्रश्न पूछा! तो उसने यह कहते हुए कि इसका जबाव मेंरा ड्राइवर देगा और निकल गया। ड्राइवर के रुप में आइंस्टीन आए और सारे सवालों का जवाब दिया। बाद में उन्होंने सबको बताया कि व्याख्यान देनेवाला उनका ड्राइवर है। यह जानकर सभी अचंभित हो गये। आइंस्टीन के साथ का ड्राइवर पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह बुद्धिमान हो गया। और विद्वानों के बीच व्याख्यान देने के योग्य हो गया। अगर यह बात सच है तो यह संगति के असर एक अप्रतीम उदाहरण है।

किसी भी व्यक्ति के चरित्र का निर्माण में उसके संगत का असर होता है। व्यक्ति जैसी संगति में रहता है, जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। कबीर के दोहों में संगत के प्रभाव पर अनुकरणीय प्रकाश डाला गया है। अगर गहनता से विचार करें तो कुसंगति के प्रभाव से खुद को बचाया जा सकता है।

कदली सीप भुजंग मुख स्वाति एक गुण तीन। जैसी संगति बैठिये तै सोई फल देत।।

संत कबीर के कहने का आशय है कि जैसी संगति होती है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। गुण-दोष संगत के अनुसार प्रगट होते हैं। स्वाति के बुंद कदली से मिलकर कपुर, सीप से मिलकर मोती और सांप के संगत से जहर बन जाता है।

संगत से सुख ऊपजै कुसंगत सो दुख होय।कह कबीर तहॅं जाइये साधु संग जहॅं होय।।

संत कबीर के इस दोहे का भावार्थ है कि संगत करनी हो तो सज्जन पुरूषों के साथ करनी चाहिए। सत्संग से जीवन में सुख का उदय होता है और कुसंगति दुख का कारण बन जाता है।

कबीर संगति साधु की नित प्रति कीजै जाय।दुरमति दुर बहावसी देसी सुमती बताय।।

कबीर संत पुरुषों की संगत में निरंतर रहने का मशवरा देते हैं। सत्संग से दुर्मति का शमन होता है और सुमति का उद्भव होता है।

कबीरा संगति साधु की ज्यों गंधी की बास। जो कछु गंधी दे नहिं तो भी बास सुबास।।

कबीर सत्संग की प्रकृति को समझाने के लिए गंधी का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। गंधी यानि गंध, इत्र बेचनेवाले के करीब कोई जाता है तो इत्र की सुगंध तो वह ले ही लेता है। भले ही गंधी उसे इत्र ना दे, पर सुगंध तो दे ही देता है। ठीक उसी प्रकार साधु पुरुषों की संगत करने से उनके सद्भाव एवम् सुविचारों का प्रभाव जीवन में पड़ता है। इत्र को छूने की जरूरत नहीं पड़ती, नजदीक चले जाने से ही उसका गंध नासिका को मिलने लगता है। ठीक उसी प्रकार साधु पुरुषों का ज्ञान का प्रकाश उनके समीप जाने वालों के मन के अंधकार को मिटा देता है। एक साधारण कीड़ा भी पुष्प की संगत पाकर देवताओं के मस्तक पर चढ़ जाता है।

संगती का प्रभाव तभी पड़ता है, जब हम संगत के प्रभाव में आना चाहते हैं। जिसे सही और गलत का फर्क मालुम नहीं होता, वह संगत का चुनाव कर पाते में असमर्थ हो जाता है। कोई गलत वस्तु अथवा विचार हमें दे सकता है, किन्तु उसे ग्रहण करना न करना खुद पर निर्भर करता है। ठीक वैसे ही किसी के अच्छे विचारों को जीवन में धारण करना पड़ता है।

साखी शबद बहुतै सुना मिटा न मन का राग।संगति सो सुधरा नहीं ताया बड़ा अभाग।।

कबीर के इस दोहे का भावार्थ है कि सुसंगति से जीवन में प्रगति तभी संभव है, जब उससे प्राप्त विचारों को मन में धारण कर सको। अच्छे विचारों को सुनकर भी अगर मन का राग न मिटे! जो सुसंगति के बाद भी नहीं सुधरे, तो समझो वह बहुत ही अभागा है। केवल तन से सज्जन पुरुष की संगति की जाय और मन अगर विषयों में ही लगा रहे यह ढोंग है। दिखावे और ढोंग से कुछ नहीं होता। बदलने के लिए बदलाव की प्रबल इच्छा की जरूरत पड़ती है।

इस बात से असहमत नहीं हुवा जा सकता कि चरित्र निर्माण में संगति का प्रभाव पड़ता है। परन्तु संभलकर चला जाय तो बच निकलने की संभावना बनी रहती है। हां संगत जिन लोगों को बिगाड़ देती है, उनके सुधरने की संभावना कम हो जाती है। जहां तक संभव हो कुसंगति से खुद को दुर रखना चाहिए। सुसंगति अवश्य करनी चाहिए, पर उसके गुणों को जीवन में अपनाने का प्रयास भी करना चाहिए।

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