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मन पर कविता

मन पर कविता : मन को समझना सरल नहीं है। प्रस्तुत है अलग-अलग समय में मन पर मन के भाव जो काव्य रूप में अभिव्यक्त हुवे हैं।

मन पर चार रोचक कविताएं !

मन पर कविता (१) मन रे भावनाओं से भरे हो तुम

मन रे! भावनाओं से भरे हो तुम
कभी रुलाकर हंसाते हो
कभी हंसाकर रुलाते हो तुम

हंसाते हो, हंसा जाते हो कभी
है कैसा यह लुभावन कौतुक तेरा!
जो रुलाना और रुलाते रहना ही
है मौजूद हमेशा नियत में तेरा!

तेरे खेल को जिसने समझ लिया
तो जीवन उसका निखर गया!
भावनाओं के भंवर में जो डुब गया
तो सबकुछ उसका विखर गया!

जब तक है कोई अंजान तुझसे
होता न कोई हर्ष-विषाद उसे!
आती हैं इच्छाएं, जरुरतें सभी
हो जाता है जब परिचय तुमसे!

तुम न होगे तो भावनाएं न होंगी
न कोई आस न कोई तृष्णा होगी!
सुख-दुख से परे होगा यह जीवन
न कोई निराशा न कोई निंदा होगी!

कोई तन जब तेरे अधीन हो जाता है
मानो झोंपड़ी में हाथी घुंस जाता है!
मन रे! भावनाओं से भरे हो तुम
सुख की चाह तो है तुझमें
पर शांति से क्यों डरे हो तुम !!

मन पर कविता (२) : मन है एक समन्दर की तरह

मन है एक समन्दर की तरह
कामना की भंवर है जिसमें
लालसा की लहरें उमड़ती हैं
महत्त्वाकांक्षा का तीव्र बहाव
सबकुछ पाने को मचलता है।

आता है जब कोई तुफान
होता है कुछ ऐसा प्रतीत
छा जाने समस्त धरा पर
ही सागर यूं उमड़ता है।

पर निगल न सका कभी
समस्त धरा को उमड़ते
सागर के इन तुफानों ने।

कुछ ऐसी ही होती है
मानव के मन की मंशा
पर यूं ही मचलने से कभी
होती नहीं, हो सकती नहीं
पूरी इसकी लालसाएं सभी।

तब अतृप्त उदास मन में
उठती हैं चिंताओं की भंवर
घबराहटों की लहरें उमड़ती हैं
निराशा की तीव्र बहाव में
शांति कहीं खो जाती है।

बात हो विशाल समन्दर की
या हो विकराल मन की
हैं सब ऊपर के सतह का
यह कृत्य, खेल यह सारा।

स्थिरता है भीतर के तल में
है वहां नीरव शाति की धारा
प्रयत्न कर गये जो भीतर
देखा उसने अलग नजारा।

जिसने भी देखा है कभी
इस शांत अविरल धारा को
कह गये वो अनुभव अपना
इस जग को समझाने को।

देखा था इसे कभी कबीर ने
कहा है यह उन सबके लिए
दिखा नहीं यह जिन्हें कभी
इस खेल में जो उलझ गये।

जिन ढुंढ़ा तिन पाइयां
गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूड़न डरा
रहा किनारे बैठ।।

मन पर कविता (३) : मन रे! उदास है तू किसलिए

मन रे! उदास है तू किसलिए
पूरी न हुई चाहत तेरी इसलिए
जो नहीं मिला वह क्यों न मिला
और जो मिला वह कैसे मिला !

किया था क्या उसके लिए
वो जो तुझे मिला नहीं
और जो तूझे मिल गया यूंही !

विन किए ही कुछ पाने की
मन में ललक क्यों है !
कर्म है अगर जीवन में
तो उदासी की लहर क्यों है !

अपनी रुचियों की क्षमताओं की
पहचान करो पड़ताल करो !
गर हो त्रुटी हो कोई कमी तो
सुधार करो विस्तार करो !
कुछ काम करो कुछ काम करो
यूंही न जीवन को बर्बाद करो !

कर्म ही बंधन कर्म ही पूजा
कर्म से बंधा है यह संसार !
गर चाहो मुक्ति इस बंधन से
तो कर्म में ही है इसका सार !
कर्म की नैया न हो जीवन में
मन रे करोगे कैसे दरिया पार !!

मन पर कविता (४) : कदम कभी रुकते नहीं

कदम कभी रुकते नहीं
कभी मंद कभी तेज
रुक रुककर ही सही
चलते रहते हैं मगर
थक जाता है जो तन
तो ठहर जाते हैं कदम
कहीं किसी पड़ाव पर

मिट जाती है जब
तन की यह थकान
चल पड़ते हैं फिर से
किसी और पड़ाव तक
कदम कभी थमते नहीं
चलती है सांसें जब तक
मन गर थक जाए तो
भटक जाते हैं कदम
या फिर थम जाते हैं
कहीं किसी पड़ाव पर

जाना तो कहीं और है
पर डगर की नहीं समझ
और न मंजिल का पता
मालुम होगा फिर कैसे
है कदम को जाना कहां
फिर लगता है कुछ ऐसा
ठहर गया हो जीवन जैसा

कही है एक सयाने ने
समझने की है यह बात
मन के हारे हार है
मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए
मन ही की परतीत।।

3 thoughts on “मन पर कविता”

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