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राधा और मीरा: प्रेम और भक्ति की उपमा।

राधा और मीरा दोनों ही भारतीय इतिहास और साहित्य के दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण चरित्र हैं। राधा और मीरा, दोनों अलग अलग व्यक्तित्व हैं। दोनों अलग अलग समय में अवतरित हुई थीं। पर दोनों में एक समानता है, दोनों ही श्री कृष्ण के अनुरागी हैं। 

राधा कृष्ण की सखी थी, प्रेमिका थी। राधा का समय श्री कृष्ण के साथ बीता था। राधा के चरित्र में प्रेम की महक है, उन्होंने श्री कृष्ण से प्रेम किया था। ऐसा प्रेम जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपने जीवन को श्री कृष्ण के प्रेम में अर्पण कर दिया। राधा का प्रेम श्री कृष्ण के साथ एकत्व भाव को व्यक्त करता है। 

मीरा ने केवल कल्पना के आधार पर श्री कृष्ण को अपना सबकुछ मान लिया था। मीरा के चरित्र में भक्ति का समावेश है। मीरा का प्रेम श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव को दर्शाता है। उन्होंने अपने जीवन को भगवान कृष्ण की भक्ति में समर्पित कर दिया। मीरा का प्रेम एक आध्यात्मिक संवाद है, जो उन्होंने अपने भजनों के माध्यम से व्यक्त किया है।

एक राधा एक मीरा: एक प्रेम दीवानी एक दरस दीवानी।

एक राधा एक मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा,
अंतर क्या दोनों के चाह में बोलो,
एक प्रेम दीवानी एक दरस दीवानी।

उपरोक्त पंक्तियां गीत एवम् संगीत के रथी रविन्द्र जैन की रचना है। इन पंक्तियों के भावार्थ को समझने के लिए गंभीरता से सुनने और विचार करने की जरूरत है। 

गीतकार कहता है कि राधा को प्रेम की चाहत है और और मीरा दर्शन का अभिलाषी है। राधा और मीरा दोनों की चाहत श्री कृष्ण के लिए है। राधा ने प्रेम को और मीरा ने भक्ति को परिभाषित किया है। राधा जहां उत्कृष्ट प्रेम का प्रतीक है, वहीं मीरा को भक्ति की उपमा कहा जा सकता है। दोनों का चरित्र अपने आप में अप्रतीम है, अद्वितीय है।

इन दोनों के समर्पण भाव में अंतर क्या है? इस विषय पर विवेचना अत्यंत कठिन है। क्योंकि दोनों ने श्री कृष्ण के लिए स्वयं को निस्वार्थ रूप से समर्पित किया था। 

एक राधा एक मीरा,
एक मुरली एक पायल,
एक पगली एक घायल,
अंतर क्या दोनों के प्रीत में बोलो,
एक सुरत लुभानी एक मुरत लुभानी।

जहां तक दोनों में अंतर की बात है, तो यहां शब्दों का खेल खेला जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि दोनों अलग अलग व्यक्तित्व थीं, जो अलग अलग समय में अवतरित हुई थीं। और श्री कृष्ण को चाहने का दोनों का जो ढंग था, उसमें भिन्नता थी। जहाँ राधा ने भगवान कृष्ण को अपना प्रेमी माना था, तो मीरा ने भगवान कृष्ण को अपना पति माना था। एक का समर्पण का आधार प्रेम था, तो दुसरे का समर्पण का आधार भक्ति था। 

प्रेम और भक्ति दोनों ही भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उपयोग में आने वाले शब्द हैं। और शब्दों के साथ खेला जा सकता है। क्योंकि शब्दों के अर्थ अपने अपने समझ के अनुसार लगाए जाते हैं। अपनी अपनी समझ के आधार पर लोगों के द्वारा शब्दों का विश्लेषण किया जाता रहा है। 

सामान्यतः प्रेम कामनाओं के समर्थन के साथ आता है। यह अनुभवपूर्ण और भावनात्मक होता है। जो किसी व्यक्ति के प्रति अभिरुचि को दर्शाता है। जबकि भक्ति एक संदेहास्पद और विचारशील भाव हो सकता है। 

राधा और मीरा का समर्पण का आधार प्रेम और भक्ति था। और समस्त संसार ने इन दोनों के समर्पण भाव को समर्थन दिया है। इससे यह ज्ञात होता है कि इन दोनों का समर्पण भाव सामान्य नहीं हो सकता। 

साधारण के लिए प्रेम में आकर्षण है, अभिरुचि है। यह आकर्षण किसी के शारीरिक सौंदर्य के लिए हो सकता है। अपने शुद्ध स्वरूप में प्रेम कभी भी शारीरिक सौंदर्य पर टिका नहीं रह सकता। 

गहन अर्थों में प्रेम एक आनंदमय भावना है। प्रेम वह अनुभूति है, जिसमें साथ रहने का आभास निरंतर होता है। यह एक आध्यात्मिक भाव भी हो सकता है। इसमें दिव्यता या परमात्मा के प्रति एकत्व भाव का अनुभव समाहित है। इसलिए यह कहा गया है कि प्रेम ही ईश्वर है। 

राधा का प्रेम अद्भुत है। राधा केवल एक उपसर्ग नहीं है, जो कृष्ण के पहले लगाया जाता है। यह एक अद्भुत, अपरिमित एवम् अपरिवर्तित चाहत की उपमा है। राधा की दीवानगी किसी भी बंधन से मुक्त है, मन के विषय से परे है। राधा का प्रेम आध्यात्मिक है, आत्मिक है।

भक्ति पर गहनता से विचार करें, तो यह विश्वासपूर्ण होता है। भक्ति का आधार आस्था और विश्वास है। भक्ति अपने आराध्य के प्रति आस्था, विश्वास और समर्पण को व्यक्त करता है। भक्ति में अपने आराध्य को स्वीकार करते हुए उनके प्रति पूर्ण समर्पण का भाव समाहित है। 

मीरा की दीवानगी भक्ति से ओतप्रोत है। श्री कृष्ण की दीवानी मीरा को कृष्ण के अलावे और कुछ दिखाई नहीं देता था। यह बात समस्त संसार में प्रचलित है। एक कथा के अनुसार अपने बालपन में एक दिन राजकन्या मीरा अपने महल के छत पर खड़ी थी। उन्होने एक बारात को नीचे से गुजरते देखा। उन्होंने अपनी माता से गुजरते भीड़ के संबंध में जानना चाहा। माता ने उन्हें बताया कि ये लोग बाराती हैं, जो वर के साथ कन्या के घर जा रहे हैं। वर का विवाह उस कन्या से होगा, फिर सभी वर-वधु को साथ लेकर लौट जाएंगे। कौतूहल वश मीरा ने पूछा कि मेंरा वर कौन है? इस पर माता ने हंसते हुए श्री कृष्ण की एक मुर्ति को दिखाकर कह दिया कि यही तेरे पति हैं। परन्तु यह बात मीरा के मन को भा गई। और मीरा ने श्री कृष्ण को अपना वर मान लिया। आगे क्या हुआ यह जगजाहिर है।

राधा और मीरा, दोनों ने श्याम को चाहा था। राधा का श्री कृष्ण के प्रति अभिरुचि प्रेम के उच्चतम स्वरुप को दर्शाता है। वहीं मीरा का जो समर्पण है, श्री कृष्ण के प्रति, वह अद्भुत है। दोनों का जीवन आध्यात्मिकता से ओतप्रोत है। दोनों का गंतव्य एक है, रास्ते अलग हैं। श्री कृष्ण को जानने का, पाने का तरीका अलग है। 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
राधा के मनमोहन,
राधा नित श्रृंगार करे,
और मीरा बन गई जोगन,
एक रानी एक दासी,
दोनों ही प्रेम की प्यासी,
अंतर क्या दोनों के तृप्ति में बोलो,
एक जीत न मानी एक हार न मानी।

राधा के जीवन में रस है, तभी रास है। साहित्य के पन्ने उनकी और श्रीकृष्ण रास लीलाओं का वर्णन से भरे हुए हैं। राधा का प्रेम जब परिपक्व हो जाता है, अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है। उसके बाद श्रीकृष्ण से अलगाव का भी उनपर कोई असर नहीं हुआ। 

शुरुआत में प्रेम भावनात्मक हो सकता है। इसका आधार शारीरिक आकर्षण हो सकता है। पर जब मन की सीमाओं को तोड़कर आत्मिक हो जाता है, तो अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अपने शुद्ध स्वरूप में प्रेम बंधनमुक्त हो जाता है। यह आनंद की अवस्था है। राधा के जीवन में विरह नहीं है, वियोग की वेदना नहीं है। प्रेम दीवानी राधा का जीवन श्याममयी है, और राधा के मनमोहन।

मीरा का बाल सुलभ मन कृष्ण को अपना पति मान लेता है। सामान्य के लिए यह संदेहास्पद स्थिति है। परन्तु बालपन तो कोरा कागज के समान होता है। जो लिखा गया, और फिर उसे मिटाया नहीं गया तो वह अंकित हो जाता है। कालांतर में यही मीरा के मन का विश्वास के रूप में उभरकर सामने आता है। फिर आस्था में परिवर्तित हो जाता है, और वैराग्य का रुप धारण कर लेता है। यही तो भक्ति का शुद्ध स्वरूप है। 

प्रेम और भक्ति में अंतर को समझना कठिन है। प्रेम जब परिपक्व हो जाता है तो भक्ति में रुपान्तरित हो जाता है। प्रेम वैराग्य की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, हर विषय से, हर बंधन से मुक्त हो जाता है। और भक्ति में जो वैराग्य है, उसमें भी प्रेम समाहित है। समस्त बंधनों से मुक्त होकर अपने आराध्य को पाने की चाह, प्रेम ही तो है। 

प्रेम में ऋंगार है, वहीं भक्ति में वैराग्य है। लेकिन दोनों ही राह पर चलने का उद्देश्य आत्मतृप्ति है। अपने मूल स्वरूप में प्रेम और भक्ति में अंतर को जान पाना कठिन है। अपने उच्चतम स्वरुप में दोनों ही आध्यात्मिक हैं। इतना कहा जा सकता है कि ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। अगर चाहत है, जीवन के उद्देश्य को पूरा करने का। तो शुरुआत राधा की तरह और अंत मीरा के तरह होना चाहिए। 

प्रेम के मार्ग पर चलिए, भावनात्मक ही सही। फिर भक्ति के रथ सवार होक मंजिल तक पहुंचने से जीवन सफल हो सकता है। क्योंकि ज्ञानियों का कहना है कि भगवान भी भक्त का कहा मानते हैं। राधा और मीरा दोनों ने श्री कृष्ण के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। इनका जो चरित्र गाथा है, युगों से लोगों के आध्यात्मिक उन्नति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

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