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भक्तियोग — Realization of God with Bhakti Yoga

प्रिय बंधुगण ; आइए संक्षिप्त में यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि ‘भक्तियोग’ क्या है? योग के अनेक विधियों में से एक है भक्तियोग। यह पावन शब्द दो शब्दों ‘भक्ति’ और ‘योग’ के मेंल से बना है। योग क्या है! इसकी चर्चा पिछले आलेख में की जा चूकी है। भक्ति का अर्थ है, ईश्वर के प्रति निष्ठा। इस प्रकार ईश्वर के प्रति आस्थावान होकर ईश्वर को उपलब्ध होने का मार्ग है भक्तियोग। भक्ति के विना कोई आध्यात्मिक मार्ग नहीं है। योग क्या है! जानिए : Know what is yoga ! )

ज्ञानीजन जिन्होंने ईश्वर को जाना है, उन्होंने कहा है कि ईश्वर एक अनुभुति है! प्राणियों में जिस त्तत्व का समावेश होता है, जिसके कारण जीवन है! परमतत्व का अंश मात्र है। जबतक आत्मत्तत्व से साक्षात्कार नहीं होता, परमत्तत्व से साक्षात्कार असंभव है। मनुष्य को जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी इसलिए माना गया है कि उसमें परमत्तत्व को जानने की शक्ति होती है। और यही मनुष्य जीवन का वास्तविक उद्देश्य होता है। 

राजयोग क्या है जानिए ! Know about Raja Yoga!

भक्तियोग का मार्ग मनुष्य को जीवन के लक्ष्य तक सीधा और सुरक्षित पहूंचा देता है। यह मार्ग ऐसा है कि हर किसी लिए इसपर चलना सहज होता है। परन्तु इसके लिए मन में ईश्वर के प्रति आस्था को धारण करने की आवश्यकता होती है। और इसके लिए जो मुख्य तत्त्व है, वह है विश्वास! मन में विश्वास का होना। क्योंकि जब तक मन खुद के प्रति अविश्वासी होगा, वह और किसी विषय-वस्तु पर विश्वास नहीं कर सकता। 

भक्तियोग के माध्यम से ईश्वर के किसी भी रुप की आराधना की जा सकती है। भक्ति के लिए ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है। संत कबीर के अनुसार; यह संसार काजल की कोठरी है, इसमेें कर्मरुपी कपाट कालिख के ही बने हुवे हैं। ज्ञानियों ने पृथ्वी पर पत्थर की मुर्तियां स्थापित करके भक्ति के मार्ग का, मुक्ति के मार्ग का सृजन किया है।

‘कागद केरी कोठरी मसि कर्म कपाट। पांहनी बोई पृथवी पंडित पाड़ी बात।।’ 

कबीर

भक्तिहीन व्यक्ति का जीवन जलहीन मछली के समान है, विना पंख के पक्षी की तरह है, कटि पतंग की तरह है। वहीं एक भक्त की अपनी कोई इच्छा आकांक्षा नहीं होती। वह अपने जीवन रुपी पतंग का डोर परमात्मा के हाथों सौंप देता है। उसके साथ जो भी होता है उसे वह ईश्वर का उपहार के रूप में स्वीकार करता है। 

भगवतगीता में अर्जुन को निमित बनाकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने जगत को संदेश दिया है;

“मय्येव मन: आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय। निवसिष्यसि मय्मेव अंत ऊर्घ्व न संशय:।।”

अर्थात् हे अर्जुन! मुझमें ही मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तुम मुझमें ही वास करोगे, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

“अथ चितं समाधानुं न शक्रोषि मयिस्थिरम्। अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय।।”

यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थापित करने में समर्थ नहीं हो, तो हे धनंजय! अभ्यास स्वरुप योग द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा करो। 

ईश्वर के नाम स्मरण, उनके गुणों का स्रवण, भजन-पूजन, शास्त्रों का अध्ययन, चिंतन-मनन, ध्यान आदि के अभ्यास से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं;

“अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मतकर्मपरमोभव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यासि।।”

यदि तुम उपयुक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेंरे लिए कर्म करने को परायण हो जा। इस प्रकार मेंरे लिए कर्म करते हुवे तुम मेंरी प्राप्ति स्वरूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा।

 “अथैतदप्यशकक्तोऽअसि मद्योगममाश्रिता। सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान।।”

यदि मुझे प्राप्त करने हेतू उपयुक्त साधन को  करने में भी तुम असमर्थ है, तो मन, बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने हेतु कर्मों के फल का त्याग करो।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाध्यानं विशिष्यते। सर्वकर्मफल त्यागस्त्यागच्छान्तिरनन्तरम्।।

मर्म को न जानकर किये जाने अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर स्वरुप का ध्यान श्रेष्ठ है। और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति का अनुभव होता है। 

कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga

ईश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम की अवस्था तक पहुंचने से पूर्व मनुष्य के मन में उहापोह की स्थिति होती है। इसका आशय है कि वह ईश्वर को सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तो मानता है, किन्तु ईश्वर से कामना भी करता है। जब दुःख में अथवा परेशानी में होता है तो ईश्वर की ओर जाता है। सामान्य मनुष्य आजिविका, धन-संपदा, पदोन्नति आदि के लिए ही भक्ति करते हैं। जबतक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य को लेकर ईश्वर की भक्ति करता है, तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता। केवल ईश्वर के निमित्त कर्मरत रहने वाले व्यक्ति का ईश्वर में भक्ति बना रहता है। उसके जीवन में इष्ट के प्रति चिंतन भी बना रहता है।

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