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करम का लेख मिटे ना रे भाई।

करम का लेख का तात्पर्य क्या है?

करम का लेख! अर्थात् कर्म अथवा कार्य के विषय में लेख। किसी भी तथ्य के विषय में  लिखा जाता है, तो उस पर लेख तैयार हो जाता है। लेख का संबंध लेखन से है, लिखने की क्रिया से है। और कर्म कुछ करने का भाव अथवा अवस्था है। । कार्य शारीरिक भी होता है और मानसिक भी होता है। इसमें खाना, सोना, जागना, चलना, बोलना आदि सभी क्रियाएं संलग्न हैं। इसके अलावे जीवन निर्वाह एवम् अन्य दायित्वों के निर्वहन के लिए जो कुछ भी किया जाता है, सब कर्म है। और मन में किसी विचार का आना, अर्थात् सोचना भी कर्म ही है।

जब किसी व्यक्ति के विषय में कुछ लिखा जाता हैं, तो उसके विचारों, कार्यों का ही उल्लेख होता है। इसमें संबंधित व्यक्ति के गुण और दोष संलग्न होते हैं। यह जो लेख होता है, इसके कई रुप होते हैं। इसमें कार्यों का विवरण भी होता है, और कार्यों का आकलन भी किया जाता है। और इसमें किसी व्यक्ति एवम् संस्था दोनों के कार्य संलग्न हैं। व्यक्तिगत रूप में इसे दो प्रकार से समझा जा सकता है। यह किसी और के विषय में लिखा जा सकता है, और स्वयं के लिए भी लिखा जा सकता है।

जब अपने विषय में लिखा जाता हैं तो अपने कार्य-विचारों का उल्लेख होता हैं।  इसमें किए गए, किए जा रहे और जो कार्य किया जाना है, सभी संलग्न हैं। यह जो कार्य है, कार्यों के आकलन करने के विषय में है। या यूं कहें कि कार्यों के आधार पर ही किसी का आकलन किया जाता है। चाहे कोई व्यक्ति हो अथवा संस्था, प्रत्येक का आकलन उसके कार्यों के आधार पर ही किया जाता है। 

किसी के भी विषय में कुछ भी लिखा जाता है तो उसमें उसके कार्य-व्यवहार का ही उल्लेख किया जाता है। कर्म कुछ करने का भाव भी है, और अवस्था भी है। क्योंकि व्यक्ति जो सोचता है, उसी सोच को क्रियान्वित भी करता है। पहले विचार उत्पन्न होता हैं, फिर उसे कार्यरूप दिया जाता है।  विचार का आना कार्य के क्रियान्वित होने की अवस्था है। और जो जैसा सोचता है, अंशत: अथवा पूर्णतः वह वैसा ही करता है। 

प्रत्येक व्यक्ति अथवा संस्था के लिए अपने कार्यों का लेखा जोखा रखना महत्वपूर्ण है। यह आकलन करना जरूरी है कि उसने जो किया, वह क्यों किया? उससे जो हो रहा है, क्या सही हो रहा है? और आगे जो करना है, उस पर भी विचार जरुरी है। किसी भी कार्य को करने से पहले और करने के बाद उस पर विचार करना जरूरी है। सामान्यतः यही कर्म के लेख का तात्पर्य है। जो स्वयं में एक ऐसा कार्य है, जो प्रत्येक के लिए लाभकारी हो सकता है।

परन्तु  लिखा गया विवरण गलत भी हो सकता है। क्योंकि जो लेख किसी व्यक्ति द्वारा लिखा जाए, उसमें उसमें उसके मन के भाव भी निहित होते हैं। अर्थात् मनुष्य के द्वारा रचित लेख में मनुष्य की चतुराई भी काम करती है। और स्वयं का लिखा हुआ मिटाया भी तो जा सकता है। कागज के पन्नों में जो लिखा गया हो, मिट भी सकता है। उसे फाड़कर फेंका भी जा सकता है। यह खो सकता है या दुसरा कोई उसे नष्ट कर सकता है। 

कोई लाख करे चतुराई, करम का लेख मिटे ना रे भाई।

यह एक प्रसिद्ध भजन की पंक्ति है। इस उक्ति में ‘करम का लेख’ के साथ में चतुराई का भी उल्लेख किया गया है। चतुराई से यहां आशय करम के लेख को मिटाने के प्रयास से है। और यह उक्ति कहती हैं कि करम के लेख को मिटाया नहीं जा सकता है। चाहे जितना जोर लगा लो, यह मिटता नहीं है। ऐसा क्यों कहा गया है! यह विचार का विषय है।

गहन अर्थ में करम का लेख एक परिकल्पित अवधारणा है। भारतीय पौराणिक शास्त्रों में ऐसी परिकल्पना की गई है कि मनुष्य के जीवनकाल में जो कर्म होते हैं, उसका हिसाब रखा जाता है। इसमें पूर्व जन्मों में किए गए कर्मों का भी लेखा जोखा संलग्न होता है। कर्म के लेख का संबंध कर्म के परिणाम से है। इस अवधारणा का तात्पर्य है कि मनुष्य से जो कर्म होते हैं, उन कर्मों के गुणवत्ता के आधार पर परिणाम प्राप्त होता है। 

इस शास्त्र सम्मत परिकल्पना के अनुसार कर्म को दो प्रकार से देखा जाता है। एक कर्म वो है, जो वर्तमान जीवन में किए जाते हैं। और दुसरा जो पूर्व के जन्मों में किए गए हैं। इसके अनुसार पूर्व के जीवन के कर्मो के परिणाम जो अभोग्य रह जाते हैं, वर्तमान जीवन में भोगना होता है। शास्त्रों में इसे संचित कर्म कहा गया है। यह जो परिणाम है, जो जन्म – जन्मांतर में किए गए कर्मो का फल है, इसे भाग्य कहा गया है। इस प्रकार से देखा जाए तो करम का लेख का संबंध भाग्य से है। और किसके भाग्य में क्या लिखा है, यह कोई नहीं जानता। क्योंकि पूर्व के जन्म का स्मरण किसी को होता नहीं है। 

परन्तु यह जो अवधारणा है, इसके प्रति मन में संदेह बना रहता है। मनुष्य इस बात को तो मानता है कि जैसा कर्म होता है, वैसा ही परिणाम भी मिलता है। उत्कृष्ट विचारों के साथ उत्तम कार्य किया जाए, तो परिणाम भी उत्तम होने की संभावना अधिक होती है। लेकिन परिणाम उसी मात्रा में प्राप्त हो, यह निश्चित नहीं है। और कौन से कर्म उससे संपन्न होंगे, उसे यह भी ज्ञात नहीं होता। 

सामान्यतः कोई भी कार्य वांछित परिणाम पाने की मंशा के साथ किया जाता है। और यह बात भी सही है कि लगन के साथ परिश्रम किया जाए, तो सार्थक परिणाम मिलने की संभावना होती है। परन्तु वांछित परिणाम की मात्रा निश्चित हो, यह जरूरी नहीं है। वांक्षित से कम भी प्राप्त हो सकता है, और अधिक भी मिल सकता है। कभी ऐसा भी होता है कि परिणाम चाह के विपरीत प्राप्त होता है। और ऐसा भी होता है कि व्यक्ति जो करना चाहता है, कर नहीं पाता। इस प्रकार देखा जाए तो मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है। 

यह बात तर्कसंगत प्रतीत होता है कि लेकिन यह जो उत्कृष्ट मानसिकता है, जिसे सुमति भी कहते हैं। इसका उपस्थित होना और कार्य के समापन तक इस अवस्था में बने रहना महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या ऐसा हो पाता है? क्योंकि मति तो मन का विषय है, और दीर्घ काल तक मन को किसी एक जगह स्थिर रखना अत्यंत कठिन है।

इस परिकल्पना के अनुसार करम का लेख लिखने वाला कोई और है। और कर्मो का परिणाम देनेवाला भी वही है, जिसे विधाता की संज्ञा दी गई है। इसके अनुसार जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, पूर्व नियोजित होता है। वांछित अथवा अवांछित, जो भी घटित होता है, उसका घटित होना सुनिश्चित होता है। परन्तु इन परिस्थितियों, घटनाओं का घटित होना अनिश्चित है। अनिश्चित का यहां आशय घटना के घटित होने के समय से है। यह जो अवस्थाएं हैं, कब, कैसे और किस प्रकार उपस्थित होती हैं, इसे कोई नही जानता। इसीलिए तो कहा जाता है कि किसी के साथ कभी भी, कहीं भी और कुछ भी हो सकता है। 

और यह भी कहा जा सकता है कि मनुष्य के द्वारा जो कर्म होते हैं, उसके भाग्य के अनुसार होते हैं। जैसा कर्म होता है, परिणाम वैसा ही प्राप्त होता है, यह तो ठीक है। लेकिन मनुष्य वही करने को विवश भी हो जाता है, जो उसके भाग्य में है। 

कर्म के विधान पर गहराई से विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि कर्म ही मूलत्तत्व है। सबकुछ कर्म पर निर्भर करता है, भाग्य का निर्माण भी कर्म के आधार पर ही होता है। क्योंकि भाग्य बीते समय में किए गए कर्मों का ही परिणाम है, जो वर्तमान में परिलक्षित होता है। इस परिकल्पना के अनुसार यह पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का फल है। लेकिन यह वर्तमान जीवन के कर्म को भी प्रभावित करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्म का संपादन भी भाग्य के अनुसार ही होता है। 

‘करम का लेख’ अगर भाग्य से संबंधित है, तो यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के भाग्य का निर्धारण उसके कर्म के अनुसार होता है। उत्कृष्ट मानसिकता एवम् कार्यों के गुणवत्ता के आधार पर जीवन के दशा को सुदृढ़ किया जा सकता है। अगर दशा ठीक नहीं हो तो अपने सकारात्मक प्रयासों से दिशा को बदला जा सकता है। ऐसा करके पूर्व के कर्मों के प्रभाव को भी कम किया जा सकता है। किसी के वर्तमान में किए कर्म ही उसके भविष्य को गढ़ता है। और वर्तमान जीवन में जो कर्म होते हैं, वही अगले जन्म के भाग्य को भी गढ़ता है। और फिर जो जिसके भाग्य में है, उसी के अनुरूप वह कर्म भी करता है।

यह जो रहस्य है, अद्भुत है। साधारण के समझ से परे है। क्योंकि इसे तर्क वितर्क से समझना कठिन है। इस अवधारणा पर तर्क करना ही व्यर्थ है। भाग्य कर्म से विमुख नहीं करता है, कर्म का निर्धारण भाग्य के अनुसार होता है। अगर भाग्य कर्म से विमुख करे तो कर्म ही नहीं होगा। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य को गढ़ता है, लेकिन उसे बदल नहीं सकता। किसी के जीवन में जो कुछ भी घटित होता है। वस्तुत: उसी के किए का फल है।

भाग्य और कर्म में यह जो खेल है अद्भुत है। कौन है जो जन्म जन्मांतर में किए गए कर्मों का लेखा जोखा रखता है! कौन है जो कर्म के लेख का लेखन करता है, और भाग्य का निर्माण करता है! और फिर भाग्य के अनुसार ही कर्म करने को विवश करता है। साधारण मनुष्य के लिए यह समझ से परे है। उसे इस विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हो पाता। या यूं कहें कि वो इसे समझने का प्रयास ही नहीं करता है। जिसे यह समझ में आ गई, वह जो कर्म और भाग्य के चक्र से मुक्त हो जाएगा। 

भारतीय पौराणिक शास्त्रों में इन प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। इन प्रश्नों को खोजने के लिए ही धर्म का प्रतिपादन हुवा है। एक समर्थ सत्ता की परिकल्पना की गई है, जो नियंता है, विधाता है। इस परम सत्ता को परमात्मा कहा गया है। इसी नियंता का एक अवतार पुरुष, जिन्हें परमात्मा का पूर्णावतार माना जाता है। उन्होंने इन सारे प्रश्नों का उत्तर खोजने का मार्ग प्रशस्त किया है, जो करम का लेख में छुपा है। यह जो ज्ञान है श्रीमद्भागवत गीता में उल्लेखित है। जरूरत इस पावन ग्रंथ के अध्ययन, मनन करने की है। और यह व्यक्तिगत प्रयास का विषय है।

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