अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण के उपदेशों को श्रीमद्भागवत गीता नामक ग्रन्थ में संकलित किया गया है। यह मानव मात्र का ग्रन्थ है! एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें मानवमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया है। पौराणिक भारतीय शास्त्रों में श्रीमद्भागवत गीता का स्थान वही है, जो उपनिषद एवम् धर्मसूत्रों को प्राप्त है। गीता एक पावन ग्रन्थ है! जो महाभारत युद्ध के आरंभ होने से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण एवम् अर्जुन के बीच हुवे संवाद का संकलन है। कुरूक्षेत्र में युद्ध के लिए पहुंचने पर जब अर्जुन का मन द्वंद से भर जाता है, तब श्रीकृष्ण उन्हें उपदेश देते हैं! अर्जुन के प्रश्न और श्रीकृष्ण के उपदेशों को श्रीमद्भागवत गीता नामक ग्रन्थ में संकलित किया गया है।
मेंरे परमपूज्य गुरुदेव स्वामी तपेश्वरानंद (लालबाबा) ने मुझसे कहा था कि यदि अध्यात्म को जानना चाहते हो तो पहले गीता पढ़ो! श्रीमद्भागवत गीता में जो बातें कही गई हैं, जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैैं। जहां दर्शन का अंत होता है, वहां से अध्यात्म की यात्रा की शुरुआत होती है। गीता का नित्य पाठ करने का अभ्यास करो। लोग घरों में पोटली में समेटकर इस अद्भुत ग्रन्थ को रख देते हैं। जबकिि इसे पढ़ने के लिए कोई विशेष विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है। सुबह हो, दोपहर हो, रात सोने से पूर्व हो! जब भी फूर्सत मिले इस ग्रन्थ को पढ़ने की आदत हर किसी को डालनी चाहिए। निरंतर अभ्यास से इसके अमृत वचन समझ में आने लगते हैं। और इसका फायदा यह होता है कि जीवन जीना सरल हो जाता है।
अनेक महापुरुषों ने इस पठनीय एवम् जीवनोपयोगी ग्रंथ के विषय में जो बातें कही हैं, अपने अध्ययन के आधार पर कुछ विचारों को प्रस्तुत कर रहा हूं। आशा करता हूं कि ज्ञानियों के इन विचारों को पढ़ने के पश्चात पवित्र गीता का अध्ययन करने की रुची पाठकों में अवश्य जगेगी।
महान विचारक ओशो ने गीता ग्रंथ के विषय में कहा है कि “मानव जाति के इतिहास में उस परम निगुढ़ त्तत्व के संबंध में जितने भी तर्क हो सकते हैं, सब अर्जुन ने उठाए। और शाश्वत में लीन हो गए व्यक्ति से जितने उत्तर आ सकते हैं, वे सभी श्रीकृष्ण ने दिए। इसलिए गीता अनुठी है! वह सार संचय है ; वह सारे मनुष्य की जिज्ञासा, खोज, उपलब्धि सभी का नवनीत है। इसमें सारे खोजियों का सार अर्जुन है! और सारे खोज लेनेवालों का सार श्रीकृष्ण हैं।”
स्वामी श्री लीलाशाह जी के शब्दों में “गीता अद्भुत ग्रन्थ है! विश्व की 578 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चूका है। हर भाषा में कई चिंतकों, विद्वानों एवम् भक्तों ने मीमांसाएं की हैं और अभी भी हो रही हैं। होती रहेंगी! क्योंकि इस ग्रंथ में सभी देश, जाति, पंथ के सभी मनुष्यों के कल्याण की अलौकिक सामग्री भरी हुई है। अतः हम सबको गीताज्ञान में अवगाहन करना चाहिए। भोग, मोक्ष, निर्लिप्तता, निर्भयता आदि तमाम दिव्य गुणों का विकास करनेवाला यह ग्रंथ विश्व में अद्वितीय है।”
गीताकार की भुमि को नमन करने के लिए कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीअर टुडो का भारत आगमन हुवा था। उन्होंने कहा है कि “मैंने बाइबिल पढ़ी, एंजिल पढ़ी और अन्य धर्म ग्रंथो को पढ़ा, सभी अपने-अपने स्थान पर ठीक हैं, किन्तु हिन्दुओं का यह ग्रंथ तो अद्भुत है। इसमें किसी मत-मजहब, पंथ अथवा संम्प्रदाय की निंदा-स्तुति नहीं है, इसमें तो मानवमात्र के उत्थान की बाते हैं। गीता मात्र हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं है, मानवमात्र का ग्रंथ है।”
भारत के वायसराय रह चूके वॉरेन हेंस्टिंग्स के अनुसार “किसी भी जाति को उन्नति के शिखर पर ले जाने के लिए गीता का उपदेश अद्वितीय है।”
जर्मन विचारक डॉ एल्जे ल्युडर्स के अनुसार “गीता में दर्शनशास्र और धर्म की धाराएं साथ साथ प्रवाहित होकर एक-दूसरे से मिल जाती हैं। भगवद्गीता और भारत के प्रति हमलोग आकर्षित होते रहते हैं।”
लॉर्ड रोनाल्डशे के शब्दों में “सत्य क्या है! इसका विवेचन भगवद्गीता में बहुत अच्छी तरह से किया गया है। विश्व में यह ग्रंथ-रत्न अप्रतीम, अद्भुत है।”
ब्रिटिश मनीषी एफ. एच. मोलेम ने कहा है कि “बाइबिल का मैने यथार्थ अभ्यास किया है! उसमें जो दिव्यज्ञान लिखा है, वह केवल गीता के उद्धरण के रूप में है। मैं ईसाई होते हुवे भी गीता के प्रति इतना सारा आदरभाव इसलिए रखता हूं कि जिन गुढ़ प्रश्नों का समाधान पाश्चात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैं, उनका समाधान गीताग्रंथ ने शुद्ध एवम् सरल रीति से दिया है। उसके सूत्र अलौकिक उपदेशों से भरपूर लगे, इसलिए गीता मेंरे लिए साक्षात् योगेश्वरी है। वह तो विश्व के समस्त धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवर्ष का अमूल्य है।”
एक आयरीश रहस्यवादी लेखक जॉर्ज डब्ल्यू रसेल के अनुसार “मुझे आभाष होता है कि इतने विश्वास पूर्वक लिखने के पूर्व भगवद्गीता के लेखकों ने शान्त स्मृति के द्वारा उन अन्तर्द्वंद से भरे हुवे हजारों जीवनों को अवश्य देखा होगा, तभी तो वे ऐसी चीजें लिख सके, जिसे पढ़कर हमारी आत्मा को इतनी शांति और निश्चिंतता अनुभव होती है।”
ब्रिटिश कवि एवम् ‘The light of Asia’ के लेखक एडविन आर्नोल्ड ने कहा है कि “इतने उच्च कोटी के विद्वानों के पश्चात् मैं इस अद्भुत काव्य के अनुवाद करने का जो साहस कर रहा हूं, वह केवल उन विद्वानों के परिश्रम से ऊठाये लाभ के स्मृति में है। और इसका दुसरा कारण यह भी है कि भारतवर्ष के इस सर्वप्रिय काव्यमय दर्शनशास्र के विना अंग्रेजी साहित्य निश्चय ही अपूर्ण रहेगा।”
एक अमेरिकी प्रकृतिवादी कवि एवम् दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो गीता से इतना प्रभावित हुवे कि अपना सब-कुछ त्याग दिया और वन में कुटिया बनाकर चिंतन में लग गए। उन्होंने कहा है; “मैं हर रोज श्रीमद्भागवत गीता के जल में स्नान करता हूं! वर्तमान काल की कृतियों से यह कहीं अधिक है। जिस काल में यह लिखी गई, वह सचमुच निराला समय रहा होगा। प्राचीन काल की सभी स्मरणीय वस्तुओं में भगवद्गीता से श्रेष्ठ कोई भी वस्तु नहीं है। इसमें इतना उत्तम और सर्वव्यापी ज्ञान है कि ऊसके लिखनेवाले को हुवे अगणित वर्षों के पश्चात भी इसके समान दुसरा एक भी ग्रंथ अभी तक नहीं लिखा गया। गीता के साथ तुलना करने पर जगत का आधुनिक समस्त ज्ञान मुझे तुच्छ लगता है।”
ख्वाजा दिल मुहम्मद ने लिखा है ” रुहानी गुलों से बना यह गुलदस्ता हजारों वर्ष बीत जाने पर भी दिन दुना और रात चौगुना महकता जा रहा है। यह गुलदस्ता जिसके हाथ में भी गया, उसका जीवन महक उठा। ऐसे गीतारुपी गुलदस्ते को मेंरा प्रणाम है। सात सौ श्लोकरूपी फूलों से सुवासित यह गुलदस्ता करोड़ो लोगों के हाथ गया, फिर भी मुरझाया नहीं।”
डॉ मुहम्मद हाफिज सैयद के शब्दों में “श्रीमद्भागवत गीता योग का एक ऐसा ग्रन्थ है, जो किसी जाति, वर्ण अथवा धर्म-विशेष के लिए ही नहीं अपितु सारी मानव जाति के लिए उपयोगी है। भगवद्गीता पर बाहर वालों तथा अहिन्दुओं का उतना ही अधिकार है, जितना किसी भारतीय या हिन्दु कहलाने वाले का है।”
लोकमान्य तिलक के शब्दों में “ज्ञान-भक्ति युक्त कर्मयोग ही गीता का सार है! वह सर्वोपरि, निर्भय और व्यापक है। वह सत है! अर्थात् वर्ण, जाति, देश या किसी अन्य भेदों के झगड़ो में नहीं पड़ता, किन्तु सभी को एक ही मापदंड से सद्गति देता है। वह अन्य सभी धर्मो के विषय में यथोचित सहिष्णुता दिखलाता है। वह ज्ञान, भक्ति और कार्य युक्त है! और अधिक कहें तो वह सनातन वैदिक धर्मवृक्ष का अत्यंत मधुर तथा अमृतफल है।”
महर्षि अरविन्द गीता-दर्शन से प्रभावित थे, उन्होंने ‘गीता प्रबन्ध‘ नामक एक पुस्तक भी लिखी है। उनका मानना था कि “भगवद्गीता मानव जाति का एक सच्चा ग्रंथ है, जो पुस्तक से अधिक एक जीवंत रचना है। जिसमें हर आयु वर्ग के लिए एवम् सभ्यता के लिए नया अर्थ है। समता, अनासक्ति, कर्मफल त्याग, ईश्वर के प्रति समर्पण, निष्काम कर्म, गुणातितता और स्वधर्म सेवा ही गीता का मूल तत्त्व या स्वभाव है। गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है, वह मानव कर्म नहीं अपितु दिव्य कर्म है।”
संत ज्ञानेश्वर ने कहा है कि “विरागी जिसकी इच्छा करते हैं, संत जिसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और ब्रह्मज्ञानी जिसमें ‘अहमेव ब्रह्मस्मि’ की भावना रखकर रमण करते हैं! भक्त जिसका श्रवण करते हैं, जिसकी त्रिभुवन में सबसे पहले वन्दना होती है, उसे लोग भगवद्गीता कहते हैं।”
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “गीता के लिए एक प्रारंभिक अल्प भुमिका आवश्यक है। दृश्य कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में न्यस्त है। एक ही वंश की दो शाखाएं पांच सहस्त्र वर्ष पूर्व भारत के साम्राज्य के निमित्त युद्ध कर रही थी। पांडवों के पास अधिकार था, किंतु कौरवों के पास बल। पांडव पांच भाई थे और वो एक वन में वास कर रहे थे। कृष्ण पांडवों के मित्र थे। कौरव लोग उनको सुई की नोक को ढंक सकने भर भी धरती नहीं देना चाहते थे।
प्रथम दृश्य युद्धक्षेत्र है! दोनों पक्ष अपने संबंधियों और मित्रों को देख रहे हैं- एक भाई इस ओर, दुसरा उस ओर, पितामह इस ओर, पौत्र दुसरी ओर। तब अर्जुन स्वयं अपने मित्रों और संबंधियों को दुसरे पक्ष में देखता और अनुभव करता है कि उसे उनका वध करना पड़ सकता है, तो उसका दिल बैठ जाता है। और वह कहता है कि अब मैं युद्ध नहीं करुंगा! इस प्रकार गीता आरंभ होती है।
गीता का प्रारंभ इस भांति सारगर्भित श्लोक से होता है: ‘उठ, हे पार्थ’ त्याग दे हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को, इस कलैस्य को, उठ खड़ा हो और युद्ध कर! तब अर्जुन इस विषय पर तर्क करने का प्रयास करते हुवे उच्चतर नैतिक प्रश्नों को उठाता है। अप्रतिरोध प्रतिरोध से किस प्रकार उत्तम है, आदि। वह अपने को न्यायोचित सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, लेकिन वह (कृष्ण को) मुर्ख नहीं बना पाता। कृष्ण उच्चतर आत्मा या ईश्वर हैं! वह (अर्जुन के) तर्क की वास्तविकता को समझ लेते हैं।
यदि कोई केवल यह श्लोक पढ़े ‘क्लैव्यं मा संयम गम: पार्थ नैत्तत्वपयूपपध्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ।।‘ तो उसे संपूर्ण गीता-पाठ का लाभ होता है, क्योंकि उसी एक श्लोक में पूरी गीता का संदेश निहित है।”
स्वामी विवेकानंद की परम शिष्या भगिनी (sister) निवदिता के शब्दों में “अशांत मन के लिए अभीष्ट ऐसा कुछ भी नहीं है, जो गीता में न आया हो।”
स्वामी विवेकानंद के अनुसार श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ने और समझने के लिए स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन की जरूरत होती है। एक दिन की बात है, एक युवक विवेकानंद के पास आया उनसे गीता के विषय में जानने की इच्छा जताई। स्वामीजी ने पहले उसे कुछ दिनों तक फुटबॉल खेलने की सलाह दी, और फिर आने को कहा। युवक स्वामीजी की बात से अचंभित हो गया। वह सोंच में पड़ गया कि गीता पढ़ने की जिज्ञासा के बीच फुटबॉल खेलने की बात कहां से आ गई? उसने सोचा कि स्वामी टाल-मटोल कर रहे हैं, हमें पढ़ाना नहीं चाहते। उसकी इस मनःस्थिति को भांप कर स्वामीजी ने उसे समझाया कि गीता वीर पुरूषों का शास्त्र है! एक सेनानी द्वारा एक महारथी को दिया गया उपदेश है! अतः पहले तन की शक्ति में वृद्धि करो, तन स्वस्थ होगा तो समझ भी परिष्कृत होगी। तब जाकर गीताजी जैसा कठिन विषय सरलता से समझ सकोगे। पहले तन को संभालना सीखो! जो तन को नहीं संभाल सकता, वह गीताजी के विचारों को, अध्यात्म को कैसे संभाल सकता है! उसे जीवन में कैसे उतार सकता है? गीता को समझने के लिए स्वस्थ तन और स्वच्छ मन की आवश्यकता होती है।
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