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अंत ही आरंभ है …

अंत ही आरंभ है! संस्कृत में एक उक्ति है, ‘अंत: अस्ति आरंभ’, अर्थात् अंत ही आरंभ है। सामान्यतः यह उक्ति संदेह उत्पन्न करता है। अंत का आशय पतन से है, और आरंभ का उत्थान से है। अंत का अर्थ किसी चीज का नष्ट हो जाना है, किसी कार्य का समाप्त हो जाना है। और किसी चीज का उद्भव होना आरंभ है, किसी कार्य का शुरुआत होना आरंभ है। आरंभ किसी अनुष्ठान का, किसी चीज के निर्माण का प्रथम चरण है। अंत के विपरीत है आरंभ! अंत और आरंभ विपरीत स्थिति है, विपरीत घटना है। तो फिर अंत से आरंभ कैसे हो सकता है? 

लेकिन सैद्धांतिक रूप से इसे सत्य कहा गया है। सत्य कैसे? यह विचारणीय है। सिद्धांत ऐसे मत होते हैं, जो निश्चिंत किये हुवे होते हैं। मनिषियों के द्वारा प्रमाणित तथ्यों को ही सिद्धांत की संज्ञा दी गई है। अत: सैद्धांतिक कथनों पर संदेह नहीं किया जा सकता है। जरुरत इन कथनों में निहित वास्तविक अर्थ को समझने की है। संदेह प्रश्न खड़ा करता है, लेकिन हर प्रश्न का निदान भी है। और यह जो निदान है, इसे खोजना पड़ता है। इसके मिल जाने पर संदेह मिट जाता है। 

संदेह और विश्वास दोनों मन की अवस्थाएं हैं। दोनों मन की अवस्थाएं हैं, लेकिन एक दुसरे के विपरीत हैं। जहां संदेह होता है, वहां विश्वास नहीं होता। और जहां विश्वास होता है वहां संदेह नहीं होत। लेकिन संदेह इसलिए होता है, क्योंकि विश्वास है। जब संदेह का अस्तित्व मिट जाता है, तो विश्वास का उद्भव होता है। संदेह का अंत ही विश्वास का आरंभ है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अंत ही आरंभ है।

अब प्रश्न है कि क्या वास्तव में किसी चीज का, किसी भाव का, किसी क्रिया का अंत होता है? यह जो संदेह है, जो किसी चीज पर, किसी तथ्य पर उपस्थित होता है, क्या वास्तव में इसका अंत होता भी है? इन सारे प्रश्नों का उत्तर है ‘नहीं’। हमें संदेह का केवल आभास होता है। इसका कारण उस विषय पर ज्ञान का अभाव है, जिस पर संदेह होता है। जैसे उजाले के अभाव में अंधेरे का आभास होता है। 

वास्तव में अंधेरा का कोई अस्तित्व नहीं होता। अंधेरा वहीं होता है, ज़हां उजाला का अभाव होता है। केवल अभाव होता है, क्योंकि उजाले का अंत नहीं होता है। वैसे ही संदेह का कोई अस्तित्व नहीं होता। और जो जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता, सत्य के ज्ञान के अभाव में संदेह उपस्थित होता है। 

अंधेरे का आभास होता है, केवल आभास होता है। उजाले का उद्भव होता है, तो अंधेरा मिट जाता है। और उजाले का अंत होता है तो अंधेरा छा जाता है। लेकिन वस्तुत: ना तो अंधेरे का अंत होता है, और न उजाले का अंत होता है। उजाले का जो स्रोत है, उसका अंत होता नहीं है। सुरज का अंत नहीं होता, उससे उजाले की किरणें अनवरत निकलती रहती हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर लट्टू की भांति घूमती हुवी सुरज की परिक्रमा करती रहती है। इस क्रम में पृथ्वी के जिस भाग में सुरज की किरणें पड़ती हैं, वहां उजाला होता है। और पृथ्वी के जिस तरफ किरणें नहीं पड़ती, वहां अंधेरा होता है। यही दिन के उजाले और रात की कालिमा के उपस्थित होने का कारण है। 

वास्तव में किसी भी भाव, क्रिया अथवा चीज का अंत नहीं होता, अंत के घटित होने का केवल आभास होता है। विज्ञान जिसे विशेष ज्ञान कहा जाता है, इस विशेष ज्ञान के अनुसार भी किसी चीज का अंत नहीं होता है। विज्ञान का भी यह मानना है कि समस्त जगत ऊर्जा से संचालित होता है। हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजें ऊर्जा से संचालित होती हैं। और यह जो ऊर्जा है अनेक रूपों में प्रकट होती हैं। ऊर्जा का अंत नहीं होता, केवल रुपांतरण होता है। यह जो रुपांतरण की प्रक्रिया होती है, इसी से अंत और आरंभ होता है। 

11 सितम्बर 1893 को अमेरिका के शिकागो शहर में एक धर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि “वर्तमान सम्मलेन, जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, स्वयं में गीता में बताये गए एक सिद्धांत का प्रमाण है। जो भी मुझ तक आता है; चाहे किसी भी रूप में, मैं उस तक पहुँचता हूँ, सभी मनुष्य विभिन्न मार्गों पर संघर्ष कर रहे हैं, जिसका अंत मुझ में है।”

अब स्वामीजी के इस कथन पर दृष्टिपात करें, तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि धर्म का मर्म क्या है? और अंत का धर्म से क्या संबंध है? धर्म धारण करने का विषय है। सामान्यतः यही समझा जाता है कि धर्म उपासना का मार्ग है। उपासना एक क्रिया है, जिसकी अनेक पद्धतियां इस संसार में प्रचलित हैं। इन्हीं पद्धतियों के अनुसार धर्म को भिन्न भिन्न दृष्टि से देखा और समझा जाता है। लेकिन सभी धर्मों में जो एक समानता है, वो यह है कि सभी में एक परम ऊर्जा की परिकल्पना की गई है। और सभी धर्मों में इस परम ऊर्जा की आराधना की जाती है। सभी उपासना पद्धतियों का एक ही लक्ष्य है। मार्ग अनेक हैं, परन्तु मंजिल एक है, यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है। विभिन्न उपासना पद्धतियों का उद्देश्य इसी परम ऊर्जा का साक्षात्कार करना होता है। यही प्रत्येक उपासना प्रक्रिया का उद्देश्य है, और इस उद्देश्य की प्राप्ति को ही यहां अंत कहा गया है।

अंत ही आरंभ है! यह बात जीवन पर भी लागू होता है। किसी का जन्म लेना उसके जीवन का आरंभ समझा जाता है। और मृत्यु को जीवन का अंत समझा जाता है। लेकिन क्या मृत्यु जीवन का अंत है? जन्म और मृत्यु का कारण जीवन ऊर्जा है। जब तक यह जीवन ऊर्जा शरीर में अवस्थित होता है, तब तक जीवन है। इस जीवन ऊर्जा का शरीर से बाहर आ जाना ही मृत्यु है। लेकिन वास्तव में जीवन का अंत नहीं होता, क्योंकि यह एक प्रकार का ऊर्जा से ही संचालित होता है। मृत्यु तो केवल शरीर की होती है। 

पवित्र गीता में इस बात का उल्लेख है कि जीवन ऊर्जा, जिसे आत्मा कहा गया है, यह अक्षय है। यह न तो सड़ना है और न गलता है। इसे अस्त्र शस्त्र से नष्ट नहीं किया जा सकता, और ना ही अग्नि इसे जला सकती है। जैसे जीर्ण वस्त्र को त्यागकर शरीर नवीन वस्त्र धारण करता है। ठीक वैसे ही आत्मा का जीर्ण शरीर को त्याग कर नवीन शरीर में प्रवेश होता है। यही जन्म और मृत्यु का कारण है। मृत्यु अंत नहीं है, यह जीवन का आरंभ है। और यह जीवन – मरण का चक्र चलता रहता है, इसका अंत नहीं होता। अंत तभी होता है, जब यह जीवन ऊर्जा अपने स्रोत परम ऊर्जा में विलीन हो जाता है। वास्तव में यह अंत नहीं है, इसे मुक्ति की संज्ञा दी गई है, जिसे जीवन का वास्तविक उद्देश्य कहा गया है। 

परन्तु संदेह का अंत नहीं है, क्योंकि ज्ञान का अभाव है। किसी भी विषय – वस्तु पर ज्ञान का अभाव संदेह के अस्तित्व में बने रहने का कारण है। संदेह इस बात पर बना रहता है कि जीवन क्या है? जिस ऊर्जा के कारण यह जीवन और मृत्यु की घटना उपस्थित होता है, उस ऊर्जा के विषय में अनभिज्ञता ही संदेह का कारण है। जिस प्रकार सुरज की किरणों का स्रोत सुरज है, उसी प्रकार जीवन ऊर्जा का स्रोत परम ऊर्जा है। इस परम ऊर्जा को ही परमात्मा कहा गया है। और जब तक किसी को इसका आभास न हो, संदेह बना रहेगा। 

अंत: अस्ति आरंभ! अंत ही आरंभ है। और आरंभ है तो अंत भी है। लेकिन न तो अंत है और ना ही आरंभ है। यह जो प्रक्रिया है, ऊर्जा के रूपांतरण का परिणाम है। इस खेल को जिसने समझ लिया, उसका ना अंत है, और न आरंभ है। वह तो इस प्रकिया से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। बात समझने की है, इसे समझने के लिए ही उन पद्धतियों का, उन विधानों का प्रादुर्भाव हुवा है, जिसे धर्म की संज्ञा दी गई है। और अंत एवम् आरंभ के जाल में उलझकर रहना भी ऊर्जा का ही खेल है। मन की सत्ता, मन की ऊर्जा समस्त भ्रम का कारण है। मन की प्रकृति ऐसी है, जिसके कारण परम ऊर्जा के प्रति संदेह बना रहता है।

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