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विधि का विधान।।

विधि का विधान

विधि का विधान यही है, अर्थात् वही होना है जो विधाता के द्वारा रचित है। यहां राम से आशय परमात्मा से है, विधाता से है। किसी भी स्थिति अथवा घटना के होने को यह मान लिया जाता है कि यह तो होना ही था। ‘होना था सो हो गया’, ‘जो होना है वह होकर रहेगा’, ऐसी बातें अक्सर लोगों के द्वारा कही जाती हैं। जो होना है, वही होता है। कहां, कब और कैसे क्या होगा यह कोई नहीं जानता। ना जन्म और ना ही मरण, ना कर्म और ना ही कर्मों का परिणाम, कुछ भी किसी के वश में नहीं है। मनुष्य के जीवन में, वैसी कोई भी परिस्थितियां, कोई भी घटनाएं, जो उसके वश में न हो, नियति अथवा भाग्य का लेख समझ लिया जाता है।

नियति का आशय नियत होने की स्थिति है। यहां नियत का आशय उन बातों से है, जिनके विषय में यह कहा जाता है कि जिनका होना तय है। जिनका होना तय है , जो भाग्य के अनुसार होता है। तो इस भाग्य को कौन गढ़ने का नियम क्या है? और इस भाग्य को गढ़ता कौन है? यह जो नियम है, एक अवधारणा है, जिसे विधि का विधान समझा जाता है। और यह जो नियम है, इसके नियंता को विधाता कहा गया है। 

होइहिं वही जो राम रचि राखा।
को करि तरक बढ़ावहिं साखा।‌।

अर्थात् वही होना है, जो राम रचित है। अब राम कौन हैं? इस नाम को कौन किस रूप में लेता है, यह व्यक्तिगत समझ का विषय है। राम के नाम से जो सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व हुवे, जिन्हें संसार मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जानती है। ईश्वर को विधाता, परमात्मा, परमपिता आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। इनमें से एक संबोधन राम भी है। भारतीय पौराणिक शास्त्रों में उन्हें रामावतार कहा गया है। रामावतार यानि ईश्वर के अवतार! तुलसी के राम विधाता स्वरूप हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास ज्ञानी तो थे ही, एक उत्कृष्ट भक्त भी थे। उन्होंने जो कहा है, उसपर संदेह तो किया जा सकता है। लेकिन उनके बोल संदेह का विषय नहीं है। इसलिए उन्होंने कहा है कि जो अवश्यंभावी है, उस विषय पर तर्क करना व्यर्थ है। क्योंकि इससे केवल विचारों का विस्तार ही होगा। इस विषय पर तर्क करना और विचारों में उलझना निरर्थक है। 

करम प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।

मनुष्य के सांसारिक जीवन में जो भी घटित होता है, वह कर्म के अनुसार होता है। जो जैसा कर्म करता है, उसके साथ वैसा ही घटित होता है। तुलसी यह भी कहते हैं कि ‘होइहिं वही जो राम रचि राखा।’ अर्थात् वही होता है जो विधि के द्वारा रचा जाता है। नियति पर किसी का कोई वश नहीं है। और यह भी कहते हैं कि ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।’ अर्थात् सबकुछ कर्म पर आधारित है। जो जस करहिं सो तस फल चाखा – और कर्म के प्रकृति के अनुसार ही फल का स्वाद होता है। 

एक उक्ति का आशय है कि जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, मनुष्य के हाथ में नहीं है। चाहे जितना शोर मचा लो, जितना जोर लगा लो, जो होना है, वह होकर रहेगा। इस बात पर तर्क करना व्यर्थ है। सबकुछ विधि के विधान के अनुसार होता है। यह विधि का विधान है।

और एक उक्ति का आशय है कि जीवन की दिशा और दशा कर्म की प्रकृति पर निर्भर करता है। जो जैसा करता है, उसके साथ वैसा ही होता है। यह कर्म का विधान है।

सामान्यतः ये जो दोनों तथ्य एक दुसरे के विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा ही है अथवा नहीं,  यह विचार का विषय है। क्योंकि ज्ञानियों की बातों में भ्रम का समावेश नहीं होता। भ्रम अथवा संदेह साधारण मनुष्य के सीमित बुद्धि का विषय है। जो बातें आसानी से समझ में नहीं आती, उन्हें समझने का प्रयास करना पड़ता है।

जो खुद को कर्मवादी मानते हैं, वो उनका उपहास करते नजर आते हैं, जो भाग्य पर निर्भरता की बात करते हैं। वो कहते हैं कि व्यक्ति के जीवन में सफलता या असफलता, हर्ष या विषाद का कारण वह खुद होता है। भाग्य पर निर्भरता व्यक्ति को उन चीजों से दूर कर देता है, जिसे वह अपने प्रयासों से प्राप्त कर सकता था। लेकिन ऐसे लोग जब किसी चीज को पाने का करने प्रयास करते हैं। और प्रयास के उपरांत भी जब कभी उन्हें सफलता नहीं मिलती, तो यह कहते सुने जा सकते हैं कि यह मेंरे भाग्य में नहीं था। 

ऐसी ही स्थिति भाग्य पर निर्भरता प्रदर्शित करनेवालों के साथ भी देखी जा सकती है। उनके जीवन में जब भी कुछ अच्छा घटित हो रहा होता है, वे यह नहीं कहते कि सब भाग्य कर रहा है। लेकिन जब कुछ ऐसा घटित हो जाता है, जो वांछित नहीं है, तो भाग्य को कोसते दिखाई देते हैं। उन्हें यह ऐसा महसूस होता है कि अगर हमारे द्वारा प्रयास किया जाता, तो जो हुवा वह नहीं होता। वास्तव में जो भाग्यवादी होने का दिखावा करते हैं, उन्हें भाग्य पर भरोसा ही नहीं होता। 

कहते हैं न कि जब समय अनुकूल हो तो मिट्टी को छुने से सोना हो जाता है। किसी के साथ कुछ अच्छा होना होता है, तो सारी परिस्थितियां उसके अनुकूल होने लगती हैं। और ठीक इसके विपरीत ऐसा भी कहा जाता है कि समय प्रतिकुल हो तो सोने को छुने से वह मिट्टी हो जाता है। लोगों को यह भी कहते हुवे सुना जा सकता है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि। अर्थात् जब समय प्रतिकुल हो, तो बुद्धि भी दुषित हो जाती है। यह जो कुछ भी होता है, सब नियति का ही खेल है, विधि का विधान है।

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