डर क्या होता है..!
डर अथवा भय एक नकारात्मक भावना है, जो जीवमात्र को महसूस होता है। मनुष्य के मन में भी कहीं न कही डर छुपा होता है। ओशो के अनुसार ‘डर एक काले बादल की तरह होता है जो मनुष्य के जिन्दगी को ढंक लेता है। डर के अनेक रुप और कारण होते हैं। सामान्यतः अंधविश्वास, अनिश्चितता, महत्वाकांक्षा आदि इसके कारण होते हैं। अंधविश्वास जनित भय काल्पनिक चीजों के कारण उत्पन्न होता है। कल क्या होगा! इसका मालुम न हो पाना अनिश्चितता से उत्पन्न भय है। लोग क्या कहेंगे! यानि सामाजिक मान-प्रतिष्ठा को खोने का भाव महात्वाकांक्षा जनित भय है।
यह एक मनोभाव है जो आनेवाली किसी विपत्ति अथवा होनेवाली किसी हानि के आशंका से उत्पन्न होती है। मनुष्य के मन में जो डर होता है, उसका एक कारण उसका समाज और आस-पास के लोग भी होते हैं। ओशो के शब्दों में ‘हमारा समाज, राज्य, हमारे आस-पास के लोग चाहते हैं कि हर व्यक्ति डर में ही जिए। चाहे वह नर्क का डर हो, स्वर्ग का डर हो, मौत का डर हो या फिर इस दुनिया से गुम हो जाने का डर हो’।
जीवन में भय से कैसै उबरा जाय, इसके लिए क्या करना चाहिए ? यह एक जटिल प्रश्न है, परन्तु इसका हल भी उसी के पास होता है जो भयभीत है। जीवन में भय क्यों है! इसे ठीक तरह से समझने पर ही भय से मुक्त हुवा जा सकता है। ओशो के शब्दों में ‘किसी भी समस्या का समाधान उससे भागने पर नहीं होता, बल्कि उसे समझने पर होता है। हमेशा अपने डर को समझना चाहिए। अगर आपने अपने डर को समझ लिया तो आपका डर वहीं खत्म हो जायगा। जितना ज्यादा आप उसे समझेंगे या उसे स्वीकार करेंगे उतनी जल्दी वह समाप्त हो जायगा’।
भय का अंतिम सीमा चरम साहस है !
कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद के अनुसार भय का अंतिम सीमा ही चरम साहस होता है। उनके द्वारा रचित उपन्यास ‘सेवासदन’ में एक घटना का उल्लेख कर इसे समझाया है। कथा का मुख्य पात्र अपने परिवार से नाराज़ होकर घर छोड़कर भाग जाने का फैसला करता है। वह विना किसी को बताये घर छोड़ना चाहता है। दिन के उजाले में वह ऐसा नहीं कर सकता। अंत: रात के अंधेरे में वह घर छोड़ने का योजना बनाता है। परन्तु उसके समक्ष एक समस्या आ खड़ी होती है। वह जिस गांव में रह रहा है, उस गांव के लोगों में एक पीपल के वृक्ष को लेकर अंधविश्वास फैला हुआ है। लोगों के बीच इस बात की चर्चा है कि उस वृक्ष में प्रेत का निवास है। और वह वृक्ष गांव से बाहर जाने के मार्ग में एक सुनसान जगह पर अवस्थित है। दिन ढलने के पश्चात उधर से होकर कोई नहीं गुजरता। उस वृक्ष को लेकर कथा के नायक के मन में भी भय समाया हुआ है। परन्तु वह घर से भाग जाने का निर्णय कर लेता है। आधी रात के समय वह चुपचाप घर से निकल जाता है। जैसे ही वह सुनसान इलाके में पहुंचता है, भय से उसके पैर थमने लगते हैं। दिल की धड़कनें बढने लगती है।वह धीरे-धीरे आगे बढता है, और वृक्ष से कुछ दूरी पहले आकर ठिठक जाता है। अब तक वह इतना भयभीत हो चुका है कि वृक्ष के सामने से गुजरना उसके लिए कठिन हो गया है। हिम्मत जूटाकर वह आगे बढता है, जैसे ही वह वृक्ष के निकट पहूंचता है, वृक्ष से खड़खड़ाने की ध्वनि सुनाई देती है। वह भय से सिहर जाता है, वह असमंजस में पड़ जाता है! घर वह छोड़ चुका है, अतः वापस जाकर हंसी का पात्र नहीं बनना चाहता। उसे हर हाल में आगे में आगे जाना ही होगा। जब जो होगा देखा जायेगा, यह सोचकर दौड़कर वृक्ष के सामने चला जाता है। और वृक्ष के तना को पकड़कर झकझोरने की कोशिश करता है। इसी क्रम में वह एक बिल्ली को वृक्ष से उतरकर भागते देखता है। वृक्ष से आ रही खड़खड़ाहत की आवाज भी गुम हो जाती है। वह होशा में आता है, अब सब कुछ सामान्य हो जाता है। अब उसे इस बात की समझ आ गई है कि वह नाहक डरा हुआ था। और वह भागने में सफल हो जाता है।
अज्ञानता भय का कारण है !
कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता! पर यह हर कोई जानता है कि उसे इस संसार से जाना है। इस संसार में जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी होगी यह निश्चित है। यह प्रकृति का बनाया हुआ भय है, पर इस पर मनुष्य कोई नियंत्रण नहीं है। और यही मनुष्य के भय का कारण है, ऐसा नहीं है। कल क्या होगा, यह जीवन कैसे कटेगा, लोग क्या कहेंगे! सभी इस बात से भयभीत हैं। इस संसार में जितने भी लोग हैं, एक समय वो नहीं थे। अब हैं और एक समय आयेगा कि वे नहीं रहेंगे। सबको एक दिन यहां से जाना है और खाली हाथ ही जाना है। इस बात को जिसने समझ लिया वह भयग्रस्त नहीं हो सकता।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा, शोक,और भय के संबंध में समझाया है। इस विषय पर उनके कहे अमृत वचनों का सरल अर्थ है, कि “न यह शरीर तुम्हारा है न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश से मिलकर बना है और एक दिन इसी में मिल जायगा। मृत्यु तो शरीर का होता है। आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता। आत्मा तो अमर है, शस्त्र इसे काट नहीं सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकता। जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता। जैसे मनुष्य अपने पुराने वस्त्रों को त्यागकर दुसरे नये दुसरे नये वस्त्र धारण करता है। वैसे ही मृत्यु के पश्चात अपने पुराने शरीर को त्याग कर आत्मा नये शरीर में प्रवेश करता है। तुम क्या लेकर आये थे जो तुमने खो दिया। खाली हाथ आये थे और खाली हाथ ही जाना है। अब तक जो हुवा अच्छा ही हुवा, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है और जो होगा अच्छा ही होगा। फिर क्यों व्यर्थ डरते हो! क्यों व्यर्थ चिंता करते हो!”
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मनुष्य के मन में जो डर है, उसके अज्ञानता के कारण है। इसे उसने स्वयं निर्मित कर रखा है। जो भय प्राकृतिक है, उसमें उसका कोई वश नहीं। और जो भय उसने निर्मित किया है, उसके साये में सारा जीवन गुजार देता है। जीवन का जो आनंद है उसका आभास तक नहीं कर पाता । कोई भी व्यक्ति डर के साथ खुशी से जी नहीं सकता। अतः जीवन का आनंद लेना है, तो भय से मुक्त होना ही होगा। और इसके लिए मन में संतोष का होना, मन का शांत होना अनिवार्य है। और इसे अगर पाने की चाहत हो तो मन के गहराइयों तक पहुंचना होगा। भीतर की यात्रा करनी होगी। चाणक्य के अनुसार ‘अच्छा आचरण दुख को मिटाता है, विवेक अज्ञान को नष्ट करता है और ज्ञान से भय का अंत हो जाता है’। जब मन शान्त होगा तो भय से मुक्ति भी मिल जायेगी। ध्यान और भक्ति वह साधन है जिससे भय के बीज को नष्ट किया जा सकता है। ध्यान से ज्ञान और भक्ति से कृपा की प्राप्ति होती है। श्री कृष्ण ने स्वयं अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा है कि “तुम स्वयं को परमात्मा को समर्पित कर दो, यही उत्तम सहारा है। जो इस बात को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सदा मुक्त रहता है।”
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