मनिषियों की अगर सुने तो उनका कहना है, कि जीवन में आनंद ही आनंद है। आनंद के सिवा कुछ भी नहीं है। ऋषियों के कहे वचनों को असत्य नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर ही ऐसा कहा है। परन्तु साधारण मनुष्य को ऐसा लगता है कि जीवन में दुख ही दुख है। साधारण मनुष्य को उस अवस्था का अनुभव ही नहीं है। वह तो पिंजरे के पंक्षी की भांति अपने ही संस्कारों के बंधन में जकड़ा हुआ है। जीवन में दुख है, यह इस बात का प्रमाण है कि साधारण मनुष्य के जीवन में ध्यान का दीपक नहीं जला है।
निम्नांकित पंक्तियां गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के एक रचना से उद्धृत है। गुरूदेव ने इस रचना में व्यथित मन और आनंदित चित की अवस्था पर प्रकाश डाला है। वन की चिड़िया प्रतीक है, उन्मुक्तता का, आनन्द का और पिंजरे की चिड़िया प्रतीक है परतंत्रता का, मोह के बंधनों का।
पिंजरे की चिड़िया कहे वन की चिड़िया रे
पिंजरे में रहना बड़ा सुखकर
वन की चिड़िया कहे ना…
मैं पिंजरे में कैद रहूं क्योंकर
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
निकलूं मैं कैसे पिंजरा तोड़कर
वन की चिड़िया गाये पिंजरे के बाहर बैठे
वन के मनोहर गीत
पिंजरे की चिड़िया गाये रटे रटाए हुवे जितने
दोहे और कविता के गीत
वन की चिड़िया कहे पिंजरे के चिड़िया रे
गाओ तुम भी वनगीत
पिंजरे की चिड़िया कहे सुन वन की चिड़िया रे
कुछ दोहे तुम भी लो सीख
वन की चिड़िया कहे ना
तेरे सिखाये गीत मैं ना गाऊं
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
मैं कैसे वनगीत गाऊ़
ऐसे ही दोनों पाखी बातें करे रे मन की
पास फिर भी ना आ पाये रे…!
मोह के बंधन ही जीवन में दुख के कारण हैं! एक पंक्षी जो वन में रहती है, खुले आसमान में विचरती है। और एक पंक्षी है, जो पिंजरे में बंद है। दोनों को जीवन के जीवन में परिस्थितियां भिन्न हैं, एक स्वतंत्र है, तो दुसरा परतंत्र। जो स्वतंत्र है, उसके जीवन में आनंद है, वह अपने आनन्द से निहाल जीवन का अनुभव बांटने का प्रयास कर रही है। वह चाहती है कि पिंजरे के पंछी के जीवन में भी आनंद हो। जिसके जीवन में आनंद है, वह सर्वत्र आनंद विखेरना चाहता है। पिंजरे की चिड़िया पिंजरे में बंद है, उसे उस स्वतंत्रता का अनुभव ही नही है, जो बाहर मौजूद हैं। वह पिंजरे भीतर मिल रहे सुविधाओं से सुखी है, इसी मग्न है।
ठीक उसी प्रकार से साधारण मनुष्य सुख को ही आनंद समझ बैठता है। जबकि सुख को टिकाकर रखा नहीं जा सकता। सुख हमेशा किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर करता है। आनंद की अवस्था किसी पर आधारित नहीं होता। यह मनुष्य के स्वभाव के कारण ही होता है। एकबार जिसे आनंद की अनुभूति हो गई तो फिर वह इससे अलग नहीं हो सकता।
पिंजरे के पंछी में भी उड़ने की लालसा है, पर वह उड़ नहीं सकती। जब जब परिस्थितियों में बदलाव आता है, किसी कारण उसके सुख में कमी आती है, उसका मन तब तब व्यथित होता है। मुक्त गगन में उड़ने का जो आनंद है, उस अवस्था का उसे आभास नहीं है। पिंजरे की पंक्षी को मुक्त गगन में उड़ने के लिए उसे पिंजरे को तोड़ कर बाहर आना होगा। मुक्त गगन में उड़ने का प्रयास करना होगा। वन की चिड़िया स्वतंत्र है। उन्मुक्त होकर खुले आसमान में उड़ने का जो आनंद है, उसे मिल चूका है। पिंजरे की पंक्षी पिंजरे के बाहर की दुनिया से अनभिज्ञ है। पिंजरे के भीतर उसे जो सुख मिल रहा है, उसे ही वह आनंद समझ रहा है।
मन की व्यथा का कारण हमारे बंधन हैं !
इस संसार में समय समय पर मनिषियों द्वारा मानव जीवन को दुख, कष्ट एवम् अज्ञानता से बाहर निकालने के लिए इशारा किया जाता रहा है। परन्तु साधारण मनुष्य अपने बंधनों में, अपने विचारों में ही उलझा हुआ है। वन की और पिंजरे की दोनों ही पाखी अपने मन की बातें तो करते हैैं पर आपस में कभी मिलकर उड़ नहीं पाते। पिंजरे के चिड़िया के मन में जो उलझन है, यही साधारण मनुष्य के सोच की बिडम्बना है। और यही सबके जीवन में व्यथा का कारण है।
ध्यान में उतरकर खोजिए, आनंद आपके भीतर है !
जीवन का आनंद कैसे उठाएं – Jeevan Ka Anand Kaise Uthayein
जीवन में आनंद की अवस्था को प्राप्त करने का प्रयास कुआं खोदने जैसा है। आनंद के अवस्था को पाने के लिए दिल की गहराइयों में उतरना होता है। अगर आपको पानी पीने की इच्छा हो और आप मुंह खोलकर प्रतीक्षा करें कि जब बर्षा होगी तो आपके मुंह में गिरेगी और आपका प्यास बुझ जायगा। हो सकता है बर्षा की कुछ बुंदें आपके मुंह में पड़ भी जाय, पर अपनी प्यास बुझाने का यह तरीका निराशाजनक है। और फिर जब जब आपको प्यास लगे तब तब बरसात हो, ऐसा कर पाना आपके वश में नहीं है। अगर आपको हमेशा पानी चाहिए तो इसके लिए आपको कुंआ खोदना होगा, जिससे कि आपको बराबर पानी मिलता रहे।
परम पूज्य रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में;
“अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पाओगे कि कहां जा रहे हो। अपने भीतर झांको। आंँखें दृष्टि देती हैं; हृदय राह दिखाता है।।”
ध्यान से मन को शांति मिलती है!
जीवन में शांति का, आनंद का अनुभव तब होगा जब जीवन में प्रार्थना होगा। बाइबिल कहती है; हमें मन की शांति मिलती है!
“किसी भी बात को लेकर चिंता मत करो, मगर हर बात में प्रार्थना और मिन्नतों और धन्यवाद के साथ अपनी विनतियाँ परमेश्वर को बताते रहो। और परमेश्वर की वह शांति जो हमारी समझने की शक्ति से कहीं ऊपर है, तुम्हारे दिल के साथ-साथ तुम्हारे दिमाग की सोचने-समझने की ताकत की हिफाज़त करेगी।”
जीवन में अगर दुख है! और यह हमारे सोच के कारण है। अगर सुख और दुख के सोच से ऊपर उठना हो तो आनंद के अवस्था को पाना होगा। आनंद के अवस्था को पाने के लिए जीवन में ध्यान का दीपक जलाना होगा। मैं यह नहीं कहता कि इससे कष्ट आने बन्द हो जायेंगे। कष्ट दुख और निराशा के क्षण आते जाते रहेंगे, लेकिन वो हमें प्रभावित नहीं कर पायेंगे। मनिषियों ने जिसे आनंद कहा है, बस यही है। उन्होंने अपने भीतर के गहराइयों तक प्रवेश कर आनंद के अवस्था को जाना। तभी वो कह गये कि जीवन में आनंद ही आनंद है।
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