मन के मते न चलिए ! उक्ति ज्ञानी संत कबीरदास की वाणी है। इसका तात्पर्य है कि मन के अनुसार मत चलो..! कबीर हमें सचेत करते हैं कि मनोगामी मत बनो, क्योंकि इसके अनेक मत हैं। अगर सवाल ‘मन के प्रकृति’ पर है तो इसके प्रकृति को समझना होगा। यह समझना होगा कि मन क्या है? ‘मन की प्रकृति‘ क्या है? लेकिन यह समझना कठिन है। कारण कि मन कोई वस्तु तो है नहीं! हम इसे देख नहीं सकते, छू नहीं सकते, इसका केवल आभास होता है। फिर हम कैसे जान पायेंगे कि मन क्या है? मन की प्रकृति क्या है?
मन के मते न चलिए , मन के मते अनेक !
‘मन के मते अनेक’ ! कबीर कहते हैं कि यह जो त्तत्व है, इसके अनेक मत हैं। एक नहीं अनेक मत हैं! अब जरा सोचिए! क्या आप किसी एक मत के अनुसार चल पाते हैं? विचारों की धारा बहती रहती है, इसके सतह पर। ये जो विचार हैं, आते जाते रहते हैं, रुकते नहीं, ठहरते नहीं बहुत देर तक। विभिन्न तरह के विचारों का प्रवाह निरंतर चलता रहता है। होता यह है कि किसी एक विचार को पकड़ने कि कोशिश करो तो दुसरा सामने आ जाता है। दुसरे का कहना मानों तो तीसरा आ जाता है। इस प्रकार हम एक नहीं अनेक विचारों के भंवर में उलझ जाते हैं।
मन के मते न चलिये , मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है सो साधु कोई एक।।
कबीर वाणी का आशय है कि इस अनेक मत वाले क़ो स्वयं के ऊपर कभी सवार मत होने दो। जो इस चंचल प्रकृति वाले को सदैव अपने अधीन रखने में समर्थ हो जाता है, वह सज्जन कोई विरला ही होता है।
मन के अनुसार मत चलो! यह जो कहे करने को, मत करो! सोचो, समझो, जरा ठहर कर विचार करो। यह जो कहे, उसके औचित्य पर विचार करो। कबीर की यह उक्ति मनुष्य मात्र को मनोगामी न होने की सीख देती है। यह उक्ति ‘मन को नियंत्रित‘ करने की जरूरत पर जोर देती है।
अब जरा सोचिए कि संत कबीर ने ऐसा क्यों कहा है? हम ‘मन के मते’ क्यों न चलें? यह जो प्रश्न है, इसका हल भी आखिर हमें ही ढुंढना होगा। कबीर वाणी ने ‘मन की प्रकृति‘ पर जो सवाल उठाये हैं। इनका हल ढुंढने के लिए हर किसी को विचार करने की जरूरत है।
इस ‘मन पर विचार‘ जरुरी है। इसके विषय में जानने की जरूरत हर किसी को है। परन्तु यह जो मन है, जिसे हम चित्त भी कहते हैं, इसे स्पष्ट रूप में परिभाषित करना सरल नहीं है। क्योंकि यह अमूर्त है, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इसका हम केवल आभास कर पाते हैं। इसे ना तो कभी किसी ने देखा है, और ना ही स्पर्श किया है। यह लीलाधर है, अनेक रुपों में प्रगट होता है।
सामान्य शब्दों में यह जो त्तत्व है, मनुष्य के मस्तिष्क का वह प्रक्रिया है जो किसी विषय, वस्तु या घटना के संबंध में सोचने और समझने का कार्य करता है। दुसरे शब्दों में मनुष्य के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का नाम मन है।
मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रायड के अनुसार ‘मन का सिद्धान्त‘ एक प्रकार का परिकल्पनात्मक सिद्धांत है। यह हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में सहायक होता है। रेबर के अनुसार इसका आशय परिकल्पित मानसिक प्रक्रियाओं तथा क्रियाओं की संपूर्णता से है, जो मनोवैज्ञानिक प्रदत व्याख्यात्मक साधनों के रुप में कार्य कर सकती है।
विख्यात दार्शनिक ओशो के शब्दों में : “मेंरे अनुसार मन तुम्हारे शरीर का वह हिस्सा है जो तुम्हें दिया गया है, वह तुम्हारा नहीं है। इसका अर्थ है, वह जो निर्मित किया गया है। इसका अर्थ है, वह जो समाज ने तुम पर भर दिया है। मन का अर्थ तुम्हारे संस्कार से है, वह तुम नहीं हो। तुम्हारी चेतना तुम्हारे मन से पृथक है।”
ओशो कहते हैं; “मन एक पानी का बुलबुला है, जिसमें कुछ भी नहीं है। परन्तु यह पानी का बुलबुला नदी में तैरता हुआ प्रतीत होता है। तुम बुलबुले को जैसे ही छूते हो, वह टुट जाता है। भीतर कुछ भी नहीं है, वहां बस एक दीवार थी, बुलबुले की दीवार। तुम्हारा मन बस बुलबुले की एक दीवार के समान है, भीतर तुम्हारा शुन्य है। यह मात्र एक बुलबुला है, छेद कर दो और यह विदा हो जायेगा।”
‘मन को समझने के लिए मन पर ही विचार करना होगा।‘ हम जो सोचते हैं! जो करते हैं! कैसे करते हैं? क्यों करते हैं? वह कौन है जो हमसे वह सब करवाता है? कोई तो है! जिसके निर्देशानुसार हमारी इन्द्रियां कार्य करती हैं। यह जो त्तत्व है, अदृश्य है, इसी आभासी त्तत्व को मन कहा गया है। वास्तव में हम जो करते हैं, वो हम नहीं कर रहे होते हैं। हमसे जो कार्य होते हैं, करवाने वाला यह चित्त ही है। हमारा तन एक यंत्र की भाति कार्य करता है। इस शरीर रूपी यंत्र को हम नहीं चलाते, हमारा चित्त इसे संचालित करता है।
जैसे कम्प्यूटर एक यंत्र है। इसे विभिन्न कार्यों, उद्देश्यों के लिए उपयोग में लाया जाता है। और प्रत्येक कार्य एवम् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भिन्न भिन्न योजनाएं बनाई जाती हैं, प्रोग्राम बनाया जाता है। यह यंत्र इन्हीं योजनाओं के अनुरूप क्रियान्वित होता है। इस यंत्र को चलानेवाले इन योजनाओं को सॉफ्टवेयर कहा जाता हैं। और इसके दृश्य अवयवों को हार्डवेयर कहा जाता है। ऐसे ही हमारा मन भी एक सॉफ्टवेयर की तरह है, जो हमारे तन रूपी हार्डवेयर को संचालित करता है
मन की प्रकृति क्या है ..?
मन को कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है। इसके अनेक मत होते हैं। समाज अनेक होते हैं, धर्म और संस्कृतियां अनेक हैं और प्रत्येक समाज अलग मत को निर्मित करता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसकी चार अवस्थाएं बतायी गई हैं। वर्तमान अथवा चेतन अवस्था , अनुपस्थित या अचेतन अवस्था , दोहरा या अर्द्धचेतन अवस्था और शान्त एवम् एकाग्र अथवा अतिचेतन अवस्था !
दार्शनिकों के दृष्टि में यह जो अतिचेतन अवस्था है, यही चेतना है । चेतन, अचेतन और अर्द्ध चेतन ये चित्त की बाह्य अवस्थायें हैं। चेतना एक है ! चित और चेतना में अन्तर है। चेतना का सम्बंध भीतर से है, जबकि चित्त का जुड़ाव बाह्य गतिविधियों से होता है। भीतर की चेतना में ही ज्ञान है, विवेक है, धर्म है। भीतर की चेतना से ही मन निर्मल हो पाता है। बाहरी गतिविधियों में ही लिप्त रहने से यह जीवन निरर्थक हो जाता है।
‘मन की प्रकृति‘ में अस्थिरता है, चंचलता है। यह मतवाला, गतिमान एवम् शक्तिशाली त्तत्व, बहुत ही चालाक है। यह हमेशा हमारा उपयोग करता है, परन्तु हमें लगता है कि हम इसका उपयोग कर रहे हैं। यह हमारा मालिक बन बैठा है और हम समझते हैं कि हम इसके मालिक हैं। हम इसके प्रभाव से खुद को अलग नहीं कर पाते, यही हमारे परेशानियों का कारण है। क्रोध, लोभ, भय, कामना, वासना, अहंकार एवम् निराशा जैसी समस्त नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत हमारा मन ही है।
कबहूं मन गगनहिं चढै कबहूं गिरै पताल।
कबहूं मन अनमुनै लगै कबहूं जावै चाल।।
‘मन की प्रकृति’ पर कबीर वाणी का आशय है कि यह जो मन है! अस्थिर एवम् अत्यधिक चंचल है। कभी यह आकाश में विचरण करता है तो कभी पाताल में गिर जाता है। कभी सांसारिकता से परे सुख की खोज में निकल पड़ता है। कभी भजन-भक्ति में लीन होना चाहता है तो कभी सांसारिक विषयों में ही भटकता रहता है।
कबीर यह मन लालची समझै नाहि गंवार।
भजन करन को आलसी खाने को तैयार ।।
यह जो मन है! अधिकांश इंद्रिय-सुख भोगने की लालसा में ही भटकता रहता है। और सकारात्मक विचारों को समझने का प्रयास ही नहीं करता। जैसे एक गंवार यानि मुर्ख से कुछ कहो तो वह नहीं समझता और समझने का प्रयास भी नहीं करता। यह मन भजन-भक्ति में आलसी बना रहता है, परन्तु भोजन के लिए हमेशा तैयार रहता है। अज्ञानता के कारण इंद्रिय-सुखों को भोगने में ही यह हमेशा तत्पर रहता है।
तन की भुख सहज अहै तीन पाव की सेर।
मन की भुख अनंत है निगले मेरु सुमेर।।
कबीर वाणी हमें सावधान करती है। आशय है कि तन का जो भुख है, सहज है, साधारण है। तन के भुख को मिटाया जा सकता है। यह तीन पाव या किलोभर अनाज के दानों से मिट सकता है। परन्तु मन का जो भुख है, उसे भुख को मिटाना सहज नहीं है। मन का भुख अनंत है, यह सुमेर पर्वत को भी निगल सकता है।
मन के बहुतक रंग हैं छिन छिन बदले सोंच।
एक रंग में जो रहै ऐसा विरला होय।।
संत कबीर हमें सावधान करते हुए कहते है; कि इस मतवाले से लगाव रखना सर्वथा अनुचित है। यह जो त्तत्व है, पल पल बदलता रहता है। जो जीवन को एकरसता यानि समभाव से जी लेते हैं वे असाधारण होते हैं।
पानी से है पातला धुंवा ही तै झीन ।
पवना वेगी उतावला सो दोसत् कबीर कीन्ह।।
संत कबीर के दोहे ‘मन की प्रकृति‘ को व्यक्त करते हैं। उन्होंने कहा है कि यह पानी से भी पतला है, धुआं से भी झीन है। और इसकी जो गति है,वायु से भी तेज है। इससे मित्रता ना करो तो ही अच्छा है।
मन एक वाइरस के समान है!
यह जो मन रूपी सॉफ्टवेयर है, वाइरस (virus) है, जो हमारे शरीर रुपी हार्डवेयर को मुख्य सॉफ्टवेयर से संचालित होने में व्यवधान उत्पन्न करता है। हमारे शरीर और आत्मा के बीच में जो अवरोध है, वह हमारा मन ही है। यह इतना चालाक चतुर और शक्तिशाली है कि हमारे तन को अपने अनुसार संचालित करता रहता है। जो वास्तविक सॉफ्टवेयर है, मन रुपी वाइरस के कारण क्रियाशील नहीं हो पाता। जिसके कारण हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटक जाते हैं।
‘मन के मते अनेक‘ ! जो विधाता के द्वारा तन में समाहित सॉफ्टवेयर है, यानि आत्मा। वह तो उसी का अंश है, जो अविनाशी है, नश्वर है। यह नैसर्गिक ऊर्जा है, इसलिए समस्त सकारात्मक शक्तियां इसमें मौजूद हैं। और हमारा मन तो कृत्रिम है, वाइरस सॉफ्टवेयर है। यह हमारे द्वारा ही निर्मित होता है। परिवार से, समाज से लिए गए हमारे संस्कार ही हमारे मन का निर्माण करते हैं। यानि कि यह मन ही सांसारिक है, इसलिए हमें सांसारिक गतिविधियों में ही लगाए रखता है।
जिस प्रकार कम्प्यूटर में वाइरस आ जाता है तो बाहरी अंग, ओपरेटिंग सिस्टम एवम् अन्य जरूरी सॉफ्टवेयर ठीक से काम नहीं करते। ठीक इसी प्रकार मन की गंदगी कामना-वासना के कारण मनुष्य भीतर के ऊर्जा से, ज्ञान-विवेक से अनभिज्ञ रहता है। और ज्ञान के अभाव में मन के मते ही चलता रहता है। मन जब निर्मल हो जाता है, तो भीतर के ऊर्जा के संपर्क में आने लगता है। धीरे धीरे जिस मन का हमें आभास होता है, वह मिट जाता है। फिर हमारा जो शरीर है नैसर्गिक सॉफ्टवेयर से संचालित होने लगता है।
मन को नियंत्रण में रखना जरुरी है !
मन में संकल्प और विकल्प निरंतर उभरते रहते हैं। यह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अवस्था का आभास कराता है। सकारात्मक विचारों से विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। और नकारात्मक विचारों के कारण मनुष्य पतनशील हो जाता है।
हमारे बंधन और मुक्ति दोनों का कारण हम स्वयं हैं। मन के कारण ही हम मनुष्य है। मनुष्य में चिंतन-मनन का सामर्थ्य भी इसके कारण ही होता है। इसके भीतर वह क्षमता भी होती है, जिससे मनुष्य चिंतनशक्ति, स्मरणशक्ति, निर्णयशक्ति, वुद्धिभाव, व्यवहार, एकाग्रता आदि गुणों को धारण करने में सक्षम हो जाता है।
विख्यात दार्शनिक ओशो ने कहा है; “हम वास्तविक शांति चाहते हैं तो हमें भीतर की ओर यात्रा करनी होगी। अपने अंदर मौजूद शांति को जगाना पड़ेगा, अपने मन को एकाग्र करना होगा। जब तक यह बाहर भटकेगा, शांति भीतर नहीं उतरेगी। जब शांति होती है तब मन नहीं होता और जब मन होता है तो शान्ति नहीं मिलती। यह जब एक जगह ठहर जाता है, तब वहीं से शांति की यात्रा शुरू हो जाती है।”
‘नियंत्रित मन’ का मालिक मनुष्य का मस्तिष्क सकारात्मक ऊर्जा से परिपुर्ण हो जाता है। मनुष्य के चिंतन शक्ति को सकारात्मक और सक्षम बनने हेतू इसे नियंत्रित करना जरूरी होता है। इस पर आपका नियंत्रण होना ही चाहिए।
मन चलत तन भी चलै ताता मन को घेर।
तन मन दोऊ बसि करै होय राई सुमेर।।
कबीर कहते हैं ; हमारा जो शरीर है, मन के मते ही चलता है। मन चलता है तो तन भी चलता है। इसलिए मन पर नियंत्रण जरूरी है! मन का मिट जाना जरूरी है। यदि अपने शरीर एवम् मन को वश में कर सको, तो राई को भी पर्वत बना सकते हो। अर्थात् कबीर के कहने का तात्पर्य है कि मन को अगर वश में कर सकें तो फिर कुछ भी असंभव नहीं है।
चंचल मन निश्चल करै फिर फिर नाम लगाया।
तन मन दोऊ बसि करै तातै कछु नहि जाय ।।
कबीर वाणी हमें सीख देती है कि निरंतर भजन-भक्ति में इस चंचल मन को लगाकर स्थिर करना चाहिए। अपने तन-मन को नियंत्रित करने से किसी का कुछ नहीं जाता। कोई नुकसान नहीं होता, नियंत्रित मन शांत प्रकृति को प्राप्त कर जीवन में सकारात्मक प्रभाव डालता है।
विवेक का उपयोग करके अच्छे या बुरे का अंतर समझा जा सकता है। जो अपने तन मन को वश में करने का प्रयत्न करते हैं अथवा वश में कर लेते हैं, उनका कुछ नहीं खोता है।
कबीरा बैरी सबल है एक जीव रिपु पांच।
अपने अपने स्वाद को बहुत नचावै नाच ।।
ये जो पांच हैं, इन पांचों को कबीर ने सबल शत्रु कहा है। जीव तो एक है, पर उसके दुश्मन पांच हैं। वे अपने अपने विषय में लगे रहते हैं और तांडव मचाते रहते हैं।
ये पांच कौन हैं? ये पांच हैं हमारी इन्द्रियां! आंख, नाक, कान, जिह्वा एवम् त्चचा। ये मन के आदेशपालक हैं, वही करते हैं, जो मन कहता है। ये जो इंद्रियां हैं, ये हमारे शरीर के विशेष अंग हैं, दृश्य, गंध, स्रवण, स्वाद एवम् स्पर्श इनके विषय हैं। इन्हीं के माध्यम से मन अपनी कामनाओं – वासनाओं को पूरा करता है। इन पांचों को साधे बिना मन को साध पाना असंभव है।
इन पांचों से बांधीया फिर फिर धरै शरीर।
जो ये पांचो बसि करै सोई लागै तीर ।।
कबीर कहते हैं इन पांचों से बंधा मनुष्य अनेकों बार जन्म लेता रहता है। जन्म लेकर शरीर धारण करता रहता है। और मनोगामी होकर इन पांचों के विषय-वासनाओं से मुक्त नहीं हो पाता। जो इन पांचों को नियंत्रित कर लेता है, मन पर भी नियंत्रण पा लेता है। ऐसा करनेवाला ही जीवन रुपी इस भवसागर को पार कर पाता है। इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है, और यही मनुष्य रुप में जन्म लेने का कारण है।
मन के मते न चलिए! इंद्रियां हमेंशा हमें मनानुसार ही चलाती हैं। पहले इन इंद्रियों को नियंत्रित करना जरूरी है। निरंतर अभ्यास से, लगातार प्रयास करने से ऐसा करना असंभव नहीं है। योग, ध्यान, भक्ति, आराधना आदि अनेक क्रियाएं हैं, जिनके द्वारा हम ऐसा कर सकते हैं। इंद्रियों को अगर समझा सको कि मन के मते न चलिए! तो मन पर नियंत्रण रखना आसान हो जाता है। और मन जब नियंत्रित हो जाता है तो शात हो जाता है, स्थिर हो जाता है। अन्तर्मुखी होकर धवल, सकारात्मक आत्म ऊर्जा के प्रभाव में आ जाता है।
मन के मते अनेक ! इस मन पर नियंत्रण जरूरी है। हमारे शरीर और आत्मा के बीच का सेतू भी हमारा मन ही है। यह जब निर्मल हो जाता है, तब अन्तर्मुखी हो जाता है। कम्प्यूटर के उपयुक्त सॉफ्टवेयर से सही परिणाम प्राप्त करने के लिए, जिस प्रकार वाइरस क्लीनर से वाइरस को हटाया जाता है। ठीक उसी प्रकार मन को नियंत्रित कर स्थिर किया जा सकता है। इसे संयमित कर इसमें निहित मलीनता को हटाया जा सकता है।
शान्त चित्त शक्तिशाली होता है!
हम स्वयं ही हमारा सबसे बड़ा दुश्मन हैं और मित्र भी। स्वयं को शात और स्थिर रखना सीख लें तो फिर जीवन सुखमय हो जाता है।
जिनका मन शिकायतों से भरा होता हैं, वैसे लोग अशान्त होते हैं। उन्हें कहीं भी सुकून नहीं मिलता, वे गलत होते हैं। वास्तव में वे लोग सुकून या शांति की तलाश में हैं ही नहीं। वे स्वयं को उलझाए रखने के लिए भीड़ से घीरे रहते हैं। परेशानियों को खुद निमंत्रित करने की आदत भी उनकी ही होती है। जो लोग वाकई स्वयं को शांत रखना जानते हैं, वे भीड़ में भी एकांत खोज लेते हैं। वे भरी बाजार में भी एकांत का आभास पा सकते हैं। अशान्त प्रवृत्ति वाले समस्याओं और चिंताओं को ओढऩे की अपनी आदत के कारण ऐसा कर नहीं पाते।
जब हमारा चित्त शांत और स्थिर हो जाता है, तो जीवन आनंदमय हो जाता है। यह बकवास नहीं है, अनेकों ने अपने प्रयत्न से समझा, इसे नियंत्रित किया और उन्हें आनंदमय जीवन का अनुभव भी हुवा है। मनुष्य का प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया, सुख दुख का अनुभव उसके चित्त की स्थिति पर निर्भर करता है। शरीर भी इसी के हिसाब से कार्य करता है।
शेक्सपियर के शब्दों में – “और हमारा यह जीवन, सार्वजनिक पारस्परिक क्रियाओं से दूर, पेड़ो की बोली सुन पाता है। नदी को पुस्तक समान पढ़ पाता है। पत्थरों का उपदेश सुन पाता है और हर वस्तु में अच्छाई देख पाता है”।
एकाग्रता के अप्रतिम उदाहरण !
स्वामी विवेकानंद – के मन की एकाग्रता ऐसी थी, कि एक बार कोई चीज पढ़ ली या देख ली, तो उन्हें सबकुछ अक्षरस:: याद हो जाता था। कई लोग उनकी इस प्रतिभा के कायल थे। एक बार वे अपने एक विदेशी मित्र से मिलने गए। जिस कमरे में वे बैठे थे, वहां कुछ किताबें भी रखी थीं। स्वामी जी के मित्र को कुछ काम आ गया और वो थोड़ी देर के लिए बाहर चले गए। खाली समय देख विवेकानंद ने वहां पड़ी एक किताब उठा ली। वह किताब उन्होंने जीवन में पहले कभी नहीं पढ़ी थी। मित्र काम निपटाकर लौटा, तब तक उन्होंने पूरी किताब पलट कर देख ली।
मित्र ने उन्हें परखने के लिए पूछा क्या वाकई आपने पूरी किताब पढ़ ली है। विवेकानंद बोले हां, काफी अच्छी किताब है। उन्होंने उसकी व्याख्या प्रारंभ की। यह तक बता दिया कि किस पृष्ठ पर क्या लिखा है। मित्र ने उनसे पूछा कि इतनी जल्दी किताब को पढ़कर याद कैसे रख लिया, जबकि वो तो अभी तक उसे पढऩे के लिए अपना मानस तक नहीं बना सका। वो अपने आप को एकाग्रचित्त करना चाहता है लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा। विवेकानंद ने कहा कि मैं हमेशा अपने भीतर रहने का प्रयास करता हूं, अपने मन पर किसी चिंता या समस्या को हावी नहीं होने देता। जहां चाहता हूं वहीं शांति का आभास होता है। इस पर नियंत्रण कर लिया तो फिर सभी कार्य बहुत ही सरल हो जाते हैं।
विद्यासागरजी मन की एकाग्रता का एक अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत कर गये। उनकी एकाग्रता ही उन्हें बुद्धिमान बना दिया। बंगाल के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता ठाकुरदास बंधोपाध्याय आठ रूपये मासिक पर एक दूकान में काम करते थे। पर उन्होने अपने मेधावी पुत्र की शिक्षा की ओर पूरा ध्यान दिया। गरीबी में भी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आगे बढ़ते गये। वो एक बार जो चीज पढ़ लेते , उसे कभी नही भूलते। रोशनी के अभाव में वे सड़क के किनारे बिजली के खम्भों के नीचे खड़े होकर अपना पाठ पढ़ते थे। उनमें गजब की एकाग्रता थी। एक बार की बात है, वे बिजली के खम्भे के नीचे अध्ययन में इस कदर तल्लीन हो गये थे कि बगल से बारात गुजर गयी और उन्हें इस शोो शराबेे का आभास भी नहीं हुवा।
जीवन का उद्देश्य क्या है ..!
कम्प्यूटर का निर्माण विभिन्न कार्य विशेष के लिए किया गया है। यह जो पूरा यंत्र है, हार्डवेयर भी और सॉफ्टवेयर भी! मानव के मन का ही कृत्य है। जिसे विभिन्न भौतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बनाया गया है। इसी प्रकार मनुष्य का तन है, जो एक हार्डवेयर है और इस हार्डवेयर के भीतर भी सॉफ्टवेयर डाला गया है। अब जरा सोचिए! इसका इंजिनियर कौन है? और इस मानवरुपी यंत्र को बनाने कारण क्या है? साफ शब्दों में कहें तो मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है?
यह जो मन है हमारा, एक सॉफ्टवेयर ही तो है! इसी सॉफ्टवेयर से हमारा शरीर संचालित हो रहा है। ऐसा सॉफ्टवेयर जो हमारे शरीर को भौतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतू संचालित करता है। अब जरा सोचिए! क्या मन रुपी सॉफ्टवेयर के द्वारा हम जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं? अगर नहीं तो फिर वह कौन सा सॉफ्टवेयर है, जिसके द्वारा जीवन के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है?
प्रत्येक मनुष्य का इस संसार में जन्म लेना एक घटना है। घटना का घटित होना यानि मनुष्य रुपी एक यंत्र का उत्पादन हो जाना। और जन्म के साथ ही एक सॉफ्टवेयर नवजात तन रुपी हार्डवेयर में समाहित हो जाता है। यही वह सॉफ्टवेयर है, जिसे प्राण, आत्मा, soal आदि नामों से जाना जाता है। यही वह सॉफ्टवेयर है, जिसके कारण जीवन है।
प्रत्येक घटना, प्रत्येक कार्य के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। मनुष्य रुप में जन्म लेने का भी कोई न कोई कारण तो अवश्य ही होगा। इसी कारण को जानना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। विधाता! जो कर्ता है, सुपरकंप्यूटर है! जो समस्त संसार को संचालित कर रहा है। और मनुष्य तन के भीतर जो सॉफ्टवेयर है, प्राण रुपी सॉफ्टवेयर! इसी सुपर सॉफ्टवेयर का घटक है। इसी सुपर पावर की अनुभूति करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।
मन के मते अनेक ! हम अपने जीवन के उद्देश्य को तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब हमारा शरीर उस सॉफ्टवेयर से तादात्म्य स्थापित कर ले, जिसके कारण जीवन है। हम मनोगामी होकर जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। मनोगामी होकर हम केवल भौतिक उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हैं। जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आत्मज्ञानी होने की जरूरत है। जो वास्तविक है, जो कारण है जीवन का, जन्म लेने का नहीं होने का। इस आत्म-त्तत्व का साक्षात्कार कर जीवन – मरण के चक्र से मुक्त हुवा जा सकता है।
कबीर कहते हैं जो इस मन पर असवार है, अर्थात् जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया। अपने प्रारब्ध – Efforts के द्वारा जिसने जितेन्द्रिय होकर मन पर नियंत्रण पा लिया। वैसे सज्जन इस संसार में विरले ही हुवे हैं।
जिन्होंने इस अवस्था को प्राप्त लिया, वे मुक्त हो गये, धन्य हो गये। उन्हें वह सबकुछ मिल गया जिसे पा लेने के बाद और किसी चीज की जरूरत नहीं होती। जिस कम्प्यूटर को सुपर कम्प्यूटर स्वयं संचालित करे उसे फिर किसी और सॉफ्टवेयर की आवश्कता ही नहीं है।
कबीर के विचारणीय दोहे !
कबीर ने जाना था, इस मन को! और जानकर इसकी प्रकृति को नियंत्रित भी किया इसे। भीतर के त्तत्व को उन्होंने मन को प्रेम के बंधन में बांधकर जो अनुभव किया। और जो पाया, उन्होंने स्वयं कहा है –
कबीर मन परवत भया अब मैं पाया जान।
तन की लागी प्रेम की निकसी कंचन खान।।
कबीर कहते हैं ; यह मन पर्वत की भांति हो गया है, यह मैं अब जान गया हूं। और जबसे इसमें प्रेम का बंधन लगा है, तो सोने की खान निकल गया है। प्रेम का मार्ग हर किसी को परमात्मा तक ले जा सकता है।
कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राख।
विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाख।।
कबीर के ‘मन पर दोहे’ हमें मन की सवारी करने की सीख देती हैं। उन्होंने कहा है कि इस चतुर, चालाक पर सवार होकर चलना सीखो, इसके लिए हर संभव प्रयास की जरूरत है। खुद पर इसे सवार मत होने देना । यह मस्ताना हाथी के समान है, इसे हमेशा ज्ञान का अंकुश दे देकर अपने वश में रखो और विषय-विष के लता का त्याग कर ज्ञानामृत रुपी शान्ति फल का स्वाद चखते रहो।
मन कूंजर महमंत था फिरत गहिर गंभीर।
दुहरि तिहरि चौहरि परि गई प्रेम जंजीर।।
‘कबीर के दोहे’ हमें आगाह करते हैं, कि हमारा चंचल चित्त झुमता हुवा मस्त हाथी के समान है, ईधर उधर भागता फिरता है। पर जब उसे दो तीन चार फेरे देकर जकड़ दिया जाता है, तो वह शांत हो जाता है। यह चित्त भी मस्ताना हाथी के समान है, परन्तु ठीक उसी तरह प्रेम के बंधन से यह शांत हो जाता है।
मैंमन्ता मन मारि दे घर ही माहि घेरि।
जबहि चालै पीठि दे अंकुश दै दै फेरि।।
‘मन को नियंत्रित करने के लिए मन पर ही प्रयोग करना होता है।’ यह मतवाला हाथी के समान है ! ‘कबीर के दोहे’ हमें समझाते हैं कि इसे भीतर ही घेर कर नियंत्रित करो। जब भी भटकना चाहे, भटकने मत दो। इस पर ज्ञान का अंंकूश दे देकर इसे रोको। इस चंचल चित्त का भटकाव ही सारे समस्याओं का कारण है।
मन हीं मनोरथ छाड़ि दे तेरा किया ना होय।
पाणी में घी निकसै तो रुखा खाये ना कोई।।
अगर पाणी अर्थात् हाथ से ही घी निकले तो रुखा सुखा कोई नहीं खायगा। पर हाथ से कभी घी नहीं निकलता, अनाश्वयक है यह चिन्ता ! इससे सिर्फ और सिर्फ नुकसान होता है।
मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइये मन के ही परतीत।।
‘कबीर के दोहे’ जीवन की सफलता के पाठ पढा़ते हैं। इनमें जीवन-यापन करने का सार छुपा है। हमारे मन की अवस्था से हम बनते हैं या विगड़ते हैं। यह हारता है हम हारते हैं, यह जीतता है तो हम जीतते हैं। अगर जीवन में सफल होना है, तो मनोबल को बनाए रखना होता है।
योग क्या है! जानिए : Know what is yoga !
कबीर मन को मारि ले सब आपा फिर जाय।
पगला है पियू पियू करै पीछे काल ना खाये।।
कबीर कहते हैं कि मन को अगर नियंत्रित कर लिया तो वह अहंकार से मुक्त हो जाता है। और प्रभुनाम स्मरण में लग जाता है, फिर काल भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
जग में वैरी कोई नहीं जो मन शीतल होय।
यह आपा जो डारि दे दया करै सब कोय ।।
‘कबीर के दोहे’ हमें यह सीख देते हैं, कि अगर आपका चित शीतल है तो इस संसार में आपका कोई दूश्मन नहीं है।
मन चलता तन भी चलै ताता मन को घेर।
तन मन दोऊ वसि करै होय राई सूमेंर।।
कबीर के ‘मन पर दोहे’ हमें बताते हैं कि अगर तन-मन दोनों को वश में कर लिया जाय तो, सब संभव हो जाता है। राई अर्थात् सरसों के दाने जैसी सुक्ष्म वस्तु को भी पर्वत बनाया जा सकता है। अंतहीन महसूस होनेवाले दुखों के सागर से सुख के समन्दर में डुबकी लगाया जा सकता है।
यह संसार दुख का सागर है। इस संसार में जो भी आया है, उसे दुख झेलना पड़ता है। सुख की तलाश भी सबको होती है। समय समय पर क्षणिक सुख प्राप्त भी हो जाता है। परन्तु स्थायी सुख जिसे आनंद कहते हैं, इसे पाने वाले विरले ही होते हैं। ऐसा नहीं कि उन्हें यह आसानी से मिल जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने से पहले वे भी साधारण मनुष्यों की भांति सब झेल रहे होते हैं। पर उनका प्रयास साधारण से अलग होता है। कबीरदास अपने एक दोहे’ में ज्ञानी होने से पूर्व के असमंजस और ज्ञानी होने के बाद’ के अनुभव दोनों ही स्थितियों को व्यक्त किया है।
कबीर मन गाफिल भया सुमिरन लागे नाहिं।
घानि सहेगा सासना जम ही दरगाह माहीं।।
साधारण मनुष्य की भांति ही पूर्व की स्थिति में कबीर चिंतित हैं। खुद के प्रति, अपने जीवन के प्रति, परन्तु वे इस स्थिति से बाहर आना चाहते हैं। कबीर कहते हैं कि मेंरा मन स्थिर नहीं है, प्रभु के स्मरण में नहीं लग रहा है। ऐसे में मेंरा कल्याण नहीं हो पायगा, परलोक में भी यातना भुगतनी होगी।
विचार भी आपका और निर्णय भी आपका !
मन आपका है, इससे उत्पन्न विचार भी आपके है। इन विचारों के कारण होने वाले कार्य भी आप के हैं और इनके परिणाम भी आपको ही मिलता है। आपको क्या करना है, कैसे जीना है, सब कुछ आप पर ही निर्भर करता है।
मन नाहिं छारै विषय रस विषय न मन को छारि।
इनका येहि स्वभाव है पुरि लागि आदि।।
कबीर हमें सावधान करते हैं। उन्होंने कहा है कि इसका स्वभाव ही विषयों में लगा रहना है । और ये जो चिन्ता, दुख, इच्छा आदि विषय हैं, ये भी इसे घेरे रहते हैं।
मन ही परमोघिये मन ही को उपदेश।
जो ये मन को वशि करै शीश होय सब देश।।
कबीर के दोहे’ के जनमानस को हर हाल में इसे समझने और समझाने की सीख देते हैं। उन्होंने कहा है कि इसे समझाने के लिए सभी तरीकों का इस्तेमाल इसपर ही करना होगा। अगर ऐसा हो गया तो पुरी दुनिया तुम्हारे मुट्ठी में होगी।
मन अपना समझाय ले आपा गाफिल होय।
विन समझे उठ जायगा फोगट फेरा होय।।
उन्होंने सावधान करते हुए यह भी समझाया है कि सांसारिक उलझनों में ही पड़े रहोगे तो यहां भी दुख भोगोगे और जन्म-मरण के भंवर में फंसे ही रहोगे। क्योकि बंधन और मुक्ति दोनों का कारण यही है।
मन निर्मल हरि नाम सौ कई साधन कई भाय।
कोयला दुनो कालिमा सौ मन साबुन लाय।।
सभी ज्ञानियों की भांति उन्होंने भी ईश्वर के प्रति आस्था, प्रेम और समर्पण को इसे साधने का सरल और श्रेष्ठ साधन कहा है। यह कोयले के समान कालिमा से आवृत्त है। जिस प्रकार सैकड़ो साबुन से धोने पर भी कोयले की कालिख नहीं मिटती, उसी प्रकार विना ईश्वर के प्रति आस्था और समर्पण के इसकी कालिमा नहीं मिटती है।
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव।
भावै गुरु की भक्ति करौ, भावै विषय कमाव।।
इसके रुप अनेक होते हैं, रंग अनेक होते हैं, पर यह होता तो एक है। आपको क्या करना है, अच्छा या बुरा! आपको ही निर्णय करना है। कबीरदासजी कहते हैं कि चित्त तो एक ही है, जहाँ अच्छा लगे वहाँ लगाओ। चाहे गुरु की भक्ति करो, चाहे विषय विकार में लगे रहो।
जहां बाज बासा करै पंछी रहे न और।
जा घट प्रेम प्रगट भया नाहि करम की थौर।।
कबीर कहते हैं कि जिस जगह पर, जिस वृक्ष पर बाज का बसेरा होता है, वहां कोई और पंक्षी नहीं ठहर सकता। जिस शरीर में प्रेम प्रगट हो गया, वह शरीर आत्मज्ञानी हो जाता है। उस शरीर में कामना-वासना, क्रोध, मोह जैसे अवगुण ठहर नहीं पाते। यह जो अवस्था है, इस अवस्था को पा लेन पर शरीर ‘मन के मते’ नहीं चल सकता।
सात समन्दर की एक लहर मन की लहर अनेक।
कोय एक हरिजन उबरा डुबी नाव अनेक।।
समन्दर सात हैं, परन्तु उनकी लहरें एक समान है। और यह मानव-मन ! यह तो एक ही है पर इसकी लहरें अनेक प्रकार से उमड़ती रहती हैं। इन लहरों के बीच से डुबकी लगाकर बच निकलना आसान नहीं पर असंभव भी नहीं है। संसार में ऐसे महारत्नों का आना हुवा है, जिन्होंने अपना बेड़ा पार लगाया है।
आवारा मन असाधारण होता है ! A stray mind is extraordinary
चित्त की एकाग्रता के महत्व को समझना और इसे साधने का हर साधन हम सबके लिए उपलब्ध है। परन्तु कौन कितना प्रयास करता है, यह स्वयं पर निर्भर करता है। किसका बेड़ा पार लगेगा और किसका डुब जायगा, यह प्रत्येक के प्रयास पर निर्भर करता है। सबकुछ समझ के स्तर पर निर्भर है।
चिंता चित बिसारिये फिरि बुझिये नहीं आन।
इंद्रि पसारा मेटिये सहज मिलिये भगवान।।
कबीर वाणी अनुभव जनित है। सुनो और गुणों तो जीवन सुधर सकता है। कबीर कहते हैं कि चित्त में जो चिंता है, उसे भूल जाओ। न अपनी और न दुसरों के प्रति चिंता करो। अपने इंद्रियों को विषयोन्मुख होने से रोकने का प्रयास करो। इस चित्त को ही भुलने का, इसे मिटाने का प्रयास करो। ऐसा करके सहज ही आत्म तत्व को प्राप्त करने में सफल हो जावोगे।
कामना का अर्थ क्या है: meaning of desire.
मन के मते न चलिये , मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है सो साधु कोई एक।।
इसके अनेक मत हैं तो इसे समझने के तरीके भी अनेक हैं। ‘कबीर के दोहे’ इसकी प्रकृति, इसे समझने साधने के तरीके, शान्त और स्थिर चित्त के गुण एवम् प्रभाव सबकुछ पर प्रकाश डालते हैं। जो इन तरीकों को अपनाकर नियमित अभ्यास से खुद को सुधार लेते हैं, वे असाधारण होते हैं।
जब तक मन-रूपी सॉफ्टवेयर डिलीट न हो, मिटे नहीं। तब तक यह शरीर ‘मन के मते’ चलता रहेगा। बार-बार जन्म लेता रहेगा, कामना-वासना, मोह-माया के जाल में उलझता रहेगा।
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