सामान्य अर्थों में कर्तव्य अथवा दायित्व वैसे कार्य होते हैं, जिनका निर्वहन अनिवार्य समझा जाता है। मनुष्य जन्म लेने के साथ ही अनेक दायित्वों के बंधन में बंध जाता है। अपने जीवन काल में उसे अनेक दायित्वों का निर्वाह करना पड़ता है। शारिरीक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, वैधानिक आदि दायित्व के अनेक रुप होते हैं।
सामान्यतः दायित्वों का संबंध व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन से होता है। जैसे जिस परिवार में, जिस समाज में, उसका जन्म होता है। उस कुल-परिवार के, समाज के नियमों का पालन उसे करना पड़ता है। ऐसा नहीं करने पर वह निंदा का पात्र बन जाता है। जिस राज्य अथवा राष्ट्र का वह नागरिक होता है, उसके वैधानिक निर्देशों का पालन उसे करना पड़ता है। नियमों का उलंघन करने पर वह दंड का भागी होता है।
विभिन्न जातियों, धर्मों में कर्तव्य के संबंध भिन्न भिन्न धारणाएं हैं। सभी राज्यों में नागरिकों के लिए जो वैधानिक नियम हैं, वे एक समान नहीं हैं। जीवन में बाह्य परिस्थितियों के आधार पर दायित्व के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। देश, काल, अवस्था, जाति एवम् धर्म के आधार पर कर्त्वय के मायने अलग अलग होते हैं। अतः बाहरी कारणों के आधार पर कर्तव्य को परिभाषित करना अत्यंत कठिन है।
परन्तु आंतरिक दृष्टि से कर्तव्य की व्याख्या की जा सकती है। वास्तव में कर्तव्य का संबंध नैतिक मूल्यों से है। जिन दायित्वों का निर्वहन निस्वार्थ भाव से किया जाता है, वही कर्तव्य है। कर्तव्य के संबंध में सर्वमान्य तथ्य यह है कि विवेकवान व्यक्ति अपने विवेक के अनुसार ही कर्म करते हैं।
मनुष्य के दायित्वों के संबंध में अब तक जो चर्चा हुवी, इससे यह जान पड़ता है कि जीवन में दो तरह के कर्तव्य उपस्थित होते हैं। एक जिसका निर्वाह करना पड़ता है और दुसरा जिसका संबंध नैतिकता से होता है। नैतिक दायित्वों का निर्वहन व्यक्ति के बौद्धिक स्थिति पर निर्भर करता है। नैतिक दायित्वों के पालन में किसी प्रकार का कोई बाहरी दबाब नहीं होता। वहीं जिन दायित्वों का निर्वाह करने की बाध्यता होती है वे उसके लिए बोझ प्रतीत होते हैं। मन से हो अथवा मजबुरी से हो उसे इन दायित्वों के निर्वहन करना पड़ता है। और इसके लिए अथक परिश्रम करने के बाद भी उसे सुख प्राप्त नहीं होता। इसका कारण है यह है कि वह खुद को संयमित नहीं कर पाता।
जब मनुष्य का मन बोझिल होता है तो उसे दुख का अनुभव होता है। सभी के साथ प्राय: यही स्थिति होती है। ज्ञानियों की माने तो बोझ ढोकर चलना साधारण मनुष्य अपना स्वभाव बना लेता है। वह जहां जाता है बोझ लेकर चलता है। अहंकार का बोझ, महात्वाकांक्षा का बोझ, कर्तव्य का बोझ, ऐसा बोझ जिसका कोई मतलब नहीं होता। यह जो बोझ वह कंधे पर ढोकर चलता है, खुद उसके द्वारा लाद लिया जाता है। उसके बोझिल मन को और कुछ दिखाई नहीं देता, खुद में ही खोया रहना उसकी आदत हो जाती है। वह जो कर रहा है, उससे अलग भी कुछ हो सकता है, यह बात उसके समझ में नहीं आती। जबकि इस जीवन में बहुत कुछ है, जिसे अनुभव करने के लिए बाहर नहीं भीतर देखना पड़ता है। जब भीतर के शान्ति का अनुभव होता है, तब मन का बोझ हल्का हो जाता है।
ओशो के शब्दों में; दायित्वों में भीतर कहीं पीड़ा बनी रहती है। हमें कर्तव्य जैसा मालुम पड़ता है, उसमें ही बंधन दिखाई पड़ता है। और जहां बंधन है, वहां प्रतिरोध है। जहां बंधन है वहां से मुक्त होने की आकांक्षा है। कर्तव्य के दायित्व हमें लगते हैं ऊपर से थोपे गए हैं। समाज ने, संस्कृति ने, परिवार ने, या स्वयं की सुरक्षा की भावना ने हमें दायित्वों से बंध जाने को मजबुर किया है। और जहां भी मजबुरी है, वहां प्रफुल्लता, प्रसन्नता नहीं है।
कर्तव्य पर विवेकानन्द के विचार!
विवेकानंद के विचारों से हमें व्यवहारिक जीवन को सामान्य बनाने एवम् जीवन में नैतिक मूल्यों को बनाए रखने की ऊर्जा प्राप्त होती है। परन्तु यह तभी संभव हो पाता है, जब हम इन बातों को व्यवहार में लाने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत विवरण पठनीय पुस्तक ‘कर्मयोग’ में उल्लेखित स्वामी के विचारों पर आधारित है।
स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan
स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में ; यदि किसी कर्म द्वारा ईश्वर की ओर बढ़ते हैं, तो वह सत्कर्म है और वह हमारा कर्तव्य है। परन्तु जिस कर्म द्वारा हम नीचे गिरते हैं, वह बुरा है, वह हमारा कर्तव्य नहीं है। आंतरिक द्ष्टि से देखने पर हमें यह प्रतीत होता है कि कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो हमें उन्नत बनाते हैं! और दुसरे ऐसे जो हमें पतन की ओर ले जाते हैं। अपनी सामाजिक अवस्था के अनुरूप एवम् ह्दय तथा मन को उन्नत बनानेवाले कार्य करना ही हमारा कर्तव्य है।
मानव स्वभाव की एक विशेष कमजोरी यह है कि वह स्वयं अपनी ओर कभी नजर नहीं फेरता। हमें दुसरों के दायित्वों को उसी की दृष्टि से देखना चाहिए। दुसरों के रीति-रिवाज को अपने रीति-रिवाजों से न जांचें। यह हमें विशेष रूप से जान लेना चाहिए कि हमारी धारणा के अनुसार सारा संसार नहीं चल सकता। केवल बाह्य रुप से ही मनुष्य की उच्चता या नीचता का निर्णय करना अनुचित है। देखना तो यह चाहिए कि कौन अपने दायित्व का निर्वाह किस भाव से कर रहा है।
देश, काल, पात्र के अनुसार हमारे कर्तव्य बदल जाते हैं। अतः विशिष्ट समय पर हमारा जो कर्तव्य हो, उसे भली भांति निभाने का प्रयास करें। पहले तो हमें जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए। फिर सामाजिक जीवन में हमारे ‘पद’ के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसे सम्पन्न करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी अवस्था में अवस्थित है; उसके लिए पहले उसी अवस्थानुसार कर्म करना आवश्यक है। जब संसार में हम लगन से काम करते हैं, तो प्रकृति हमें चारों ओर से धक्के देने लगती है। और शीघ्र ही हमें इस योग बना देती है कि हम अपना वास्तविक पद निर्धारित कर सकें।
श्रेष्ठ कार्य तो तभी होता है जब उसके पीछे किसी प्रकार के स्वार्थ की प्रेरणा ना हो। कर्तव्य पालन में निस्वार्थ होने आवश्तकता होती है। परन्तु कर्तव्य का पालन शायद ही कभी मधुर होता है। कर्तव्यचक्र तभी हल्का या आसानी से चलता है, जब उसके पहियों में प्रेमरुपी चिकनाई लगी होती है, नहीं तो यह निरंतर घिसता रहता है। दायित्वों के पालन का मीठास केवल प्रेम में ही है। और प्रेम का विकास केवल स्वतंत्रता केवल स्वतंत्रता में होता है। परन्तु जरा सोचिए, इन्द्रयों का, क्रोध का, ईर्ष्या का तथा मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन होनेवाली अन्य सैंकड़ों छोटी-छोटी बातों के अधीन होकर रहना क्या स्वतंत्रता है? अपने जीवन के इन सभी क्षुद्र संघर्षों में सहिष्णुता धारण करना ही स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति है।
हमारे उन्नति का एक मात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तव्य करें जो हमारे हाथ में है। और इस प्रकार धीरे-धीरे शक्तिसंचय करते हुए क्रमश: हम सर्वोच्च अवस्था प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी कर्तव्य को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हमें चाहिए कि हम काम करते रहें, जो कुछ भी हमारा कर्तव्य हो, उसे करते रहें; अपना कंधा सदैव काम से भिड़ाये रखें।
स्वामी विवेकानंद
स्वामी ने कर्तव्य को समझाने के लिए एक कथा का उल्लेख किया है। यह कथा इस प्रकार है; एक संन्यासी किसी वन में गया। वहां उसने दीर्घकाल तक योगाभ्यास किया। अनेक वर्षों की कठिन तपस्या के पश्चात एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था, तभी उसके ऊपर वृक्ष से कुछ सुखी पत्तियां आ गिरी। उसने निगाह डाली तो देखा कि एक कौआ और एक बगुला पेड़ पर लड़ रहे हैं। यह देख वह क्रोधित हो गया। उसने कहा; तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम सुखी पत्तियां मेंरे सिर पर फेंको! इन शब्दों के साथ उसके क्रुद्ध आंखों से एक चिनगारी निकली, और वे दोनों चिड़िया उस चिंगारी से जलकर राख हो गईं। अपनी इस शक्ति का आभास होते ही वह अहंकार से भर गया।
कुछ समय बाद वह भिक्षा के लिए एक गांव को गया। गांव में जाकर वह एक दरवाजे पर खड़ा हुवा और पुकारा: ‘मां कुछ भिक्षा मिले।’ भीतर से आवाज आई ‘थोड़ी देर रुक जा बेटा।’ संयासी मन ही मन भुनभुनाया ‘ तेरी इतनी हिम्मत कि तू मुझसे प्रतिक्षा कराये! अभी तू मेंरी शक्ति नहीं जानती?’ संयासी ऐसा सोच ही रहा था कि भीतर से आवाज आयी, ‘ बेटा, अपने को इतना बड़ा न समझ। यहां न तो कोई कौआ है न बगुला।’ यह सुनकर संयासी को बड़ा आश्चर्य हुवा। बहुत देर तक खड़े रहने के बाद अंत में घर में से एक स्त्री निकली। उसे देखकर संयासी उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘मां, तुम्हें ये सब कैसे मालुम हुवा?’
स्त्री ने कहा; ‘बेटा, न तो मैं तुम्हारा योग जानती हूं और न तुम्हारी तपस्या। मैं तो एक साधारण स्त्री हूं। मैंने इसलिए तुम्हें थोड़ी देर रोका था कि मेंरे पति बीमार हैं और मैं उनकी सेवा में संलग्न थी। यही मेंरा कर्तव्य है! सारे जीवन भर मैं इसी बात का यत्न करती रही हूं कि मैं अपना कर्तव्य पूर्ण रुप से निबाहूं। जब मैं अविवाहित थी, तब मैंने माता पिता के प्रति कन्या का दायित्व को निबाहा। और अब जब मैं विवाहित हूं तो पत्नी होने के दायित्व का निर्वहन कर रही हूं। बस यही मेंरा योगाभ्यास है। अपने कर्तव्य करने से ही मेंरे दिव्य चक्षु खुल गये हैं। जिससे मैंने तुम्हारे विचारों को जान लिया और मुझे यह पता चल गया कि तुमने वन में क्या किया है। यदि तुम्हें इससे भी अधिक कुछ जानना है तो अमुक नगर के बाजार में जावो, वहां तुम्हें एक व्याध मिलेगा। वह तुम्हें कुछ ऐसी बातें बताएगा, जिन्हें जानकर तुम्हें प्रसन्नता होगी।’
संन्यासी ने तो पहले सोचा; ‘भला मैं उस व्याध के पास क्यों जाऊं?’ परन्तु उसने अभी जो घटना देखी, उसे सोचकर उसकी आंखें खुल गईं। वह शहर की ओर चल पड़ा। जब वह शहर में पहुंचा, तो उसने एक मोटे व्याध को बाजार में बैठे हुवे और बड़े बड़े छुरों से मांस काटते हुवे देखा। वह लोगों से अपना सौदा कर रहा था। संन्यासी ने मन ही मन सोचामें; ‘क्या यही वह व्यक्ति जिससे मुझे शिक्षा मिलेगी? दिखता तो वह शैतान का अवतार है।’ इतने में व्याध ने संन्यासी की ओर देखा और कहा; ‘महाराज क्या उस स्त्री ने आपको मेंरे पास भेजा है? कृप्या बैठ जाईए। मैं जरा अपना काम समाम्त कर लूं।’ संन्यासी ने सोचा यहां मुझे क्या मिलेगा?’ बहरहाल वह बैठ गया। ईधर व्याध अपना काम लगातार करता रहा और जब वह अपना काम पुरा कर चूका, तो उसने अपने रुपये पैसे समेंटे और संन्यासी से कहा; ‘चलिए महाराज, घर चलिए।’
घर पहुंचकर व्याध ने उन्हें आसन दिया और कहा; ‘आप थोड़ी देर यहां ठहरिए।’ फिर वह अपने माता-पिता को स्नान कराया, भोजन कराया और उन्हें खुश करने के लिए जो कुछ कर सकता था, किया। उसके पश्चात वह संन्यासी के पास आया और कहा; महाराज , अब बताइए , मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’ संन्यासी ने उससे आत्मा और परमात्मा संबंधी कुछ प्रश्न किये और उसके उत्तर में व्याध ने उसे जो उपदेश दिया , वही महाभारत में ‘व्याध-गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है।
जब व्याध अपना उपदेश समाप्त कर चुका , तो संन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने कहा; “फिर आप ऐसे क्यों रहते हैं? इतने ज्ञानी होते हुए भी आप व्याध क्यों हैं? इतना निन्दित और कुत्सित कार्य क्यों करते हैं?”
व्याध ने उत्तर दिया; “वत्स, कोई भी कर्तव्य निन्दित नहीं है। कोई भी कर्तव्य अपवित्र नहीं है। मैं जन्म से ही इस परिस्थिति में हूं, यही मेंरा प्रारब्ध कर्म है। बचपन से ही मैंने यह व्यापार सीखा है, परन्तु इसमें इसमें मेंरी आसक्ति नहीं है। मैं गृहस्थ के नाते कर्तव्य करता हूं और अपने माता-पिता को प्रसन्न रखने के लिए जो कुछ मुझसे बन पड़ता है, करता हूं। न तो मैं तुम्हारा योग जानता हूं और न मैं कभी सन्यासी हुवा। संसार छोड़कर मैं कभी कभी वन में नहीं गया। परन्तु फिर भी जो कुछ तुमने मुझसे सुना तथा देखा, वह सब मुझे अनासक्त भाव से अपनी अवस्था के अनुरूप कर्तव्य का पालन करने से ही प्राप्त हुवा है।”
कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga
इस कथा का आशय क्या है? इस पर विवेकानंद कहते हैं स्त्री और व्याध दोनों ने अपना-अपना कर्तव्य बड़ी प्रसन्नता से तथा तन्मय होकर किया। और उसका फल यह हुवा कि उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हुवा। इससे हमें यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जीवन की किसी भी अवस्था में, कर्मफल के विना आसक्ति रखे यदि कर्तव्य उचित रुप से किया जाय, तो इससे परम पद की प्राप्ति होती है।
कर्तव्य वहीं तक अच्छा है, जहां तक कि यह पशुत्व भाव को रोकने में सहायता प्रदान करता है। अनासक्त होकर एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह कार्य करना तथा समस्त कर्म भगवान को समर्पण कर देना ही असल में हमारा एक मात्र कर्तव्य है।
स्वामी विवेकानन्द