सामान्य अर्थों में प्रार्थना का अर्थ है निवेदन करना, विनम्र भाव से याचना करना अथवा मांगना। व्यवहारिक दृष्टि से अपने से विशेष व्यक्ति से नम्रतापूर्वक कुछ मांगने की क्रिया को प्रार्थना समझा जाता है। परन्तु निवेदन करने, सहायता मांगने और प्रार्थना करने के मायने अलग होते हैं। जरा सोचिए अगर पारस्परिक व्यवहार के क्रम में याचना करना अथवा मांगना प्रार्थना है तो कवि रहीम ने ऐसा क्यों कहा है;
रहिमन वे नर मर चूके जे कहिं मांगन जाहिं। तिनसे पहिले वे मुये जिन मुख निकसत नाहिं।।
एक पुरानी कहावत है कि ‘मांगो उसी से जो दे-दे खुशी से।’ परन्तु क्या व्यवहारिक जीवन में ऐसा होता है? अधिकतर मामलों में जो परस्पर लेन-देन होता है, उसमें कोई ना कोई मतलब होता है। प्रार्थना में कामना नहीं है, अतः याचना करना प्रार्थना नहीं है। जीवन के सामान्य क्रिया-कलापों के बीच इस महान शब्द का प्रयोग करना कहां तक उचित है? इस पर विचार अवश्य होना चाहिए।
धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो साधारण मनुष्य भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए ईश्वर से जो याचना करता है, उसे ही वह प्रार्थना समझता है। परन्तु गहन अर्थों में प्रार्थना का अर्थ बदल जाता है। सांसारिक सुखों की कामना के लिए याचना प्रार्थना नहीं है।
विवेकानंद के शब्दों में ; एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आरोग्य या धन के लिए प्रार्थना भक्ति नहीं है। किसी भौतिक लाभ के लिए प्रार्थना करना निरा कर्म है। जो ईश्वर से प्रेम करते हैं अथवा भक्त होना चाहता है उसे ऐसी प्रार्थनाऐं छोड़ देनी चाहिए।
हितोपदेश के अनुसार स्वयं के दुर्गुणों का चिंतन एवम् परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही प्रार्थना है।
याचना नहीं अर्जन का माध्यम है प्रार्थना !
दार्शनिक दृष्टि से प्रार्थना रहित मनुष्य का जीवन पशु-पक्षियों की भांति बोधहीन होता है। प्रार्थना मानव के समस्त विघटित प्रवृतियों को एक केन्द्र पर स्थिर कर चेतना को जगाने की प्रक्रिया है। वास्तविक रुप में ब्रम्हांड के किसी महान ऊर्जा से स्वयं को जोड़ने का प्रयास प्रार्थना है।
प्रार्थना एक पवित्र शब्द है, एक पवित्र प्रक्रिया है। प्रार्थना करने के लिए पवित्र होना पड़ता है। पवित्रता का अर्थ केवल तन की शुद्धता नहीं है। पवित्रता मन की होती है, हृदय की होती है, आत्मत्तत्व की होती है।
‘प्रकर्षेण अर्धयते यस्यां सा प्रार्थना’ अर्थात् उत्तमता के साथ की जाने वाली अर्चना प्रार्थना है।
महर्षि अरविन्द के शब्दों में “यह एक ऐसी महान प्रक्रिया है जो मनुष्य का सम्बंध शक्ति के स्रोत पराचेतना से जोड़ती है और इस आधार पर चलित जीवन की समस्वरता, सफलता एवम् उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है।”
आत्म कल्याण की भावना से याचना करना प्रार्थना है। उपनिषद में उल्लेखित किया गया है;
असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योंमाऽमृतंगमय।।
अर्थात् हे परमेश्वर हमें असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो! मृत्यु से अमरता की ले चलो!
अगर कोई ईश्वर से भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए याचना करता है तो उसे सिर्फ वही प्राप्त होता है। परन्तु अगर ईश्वर से उनका सानिध्य प्राप्त करने हेतु प्रार्थना किया जाता है, तो व्यक्ति का जीवन सुख और सौभाग्य से परिपूर्ण हो जाता है।
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय !
प्रार्थना का एक अर्थ होता है! परम की कामना। हृदय की उदात् भावनायें जो परमात्मा को समर्पित हैं, उन्हीं का नाम प्रार्थना है। विना हृदय की पवित्रता एवम् परहित की भावना से रहित याचना प्रार्थना नहीं है।
शास्त्रानुसार सबके सुख और शांति के लिए प्रार्थना का विधान है।
सर्वोभवन्तु सुखिन: सर्वो सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुख भागभवेत्।। ॐ शांति: ॐशान्ति: ॐ शान्ति …
अर्थात् सब सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें। सबका जीवन मंगलमय घटनाओं का साक्षी बने एवम किसी को दुख का भागी न बनना पड़े! विधाता से नित्य ऐसा विनय पुर्वक आग्रह करना प्रार्थना है।
भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा है;
चरथ भिक्खवे चारिक, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय। लोकानुकल्याण अध्यायं हिताय सुखाय देवमनुष्यान। देसे थ भिक्खवे, चारिकं बहुजन हि धम्म आदि कल्याणं मज्झे कल्याणं परिसोमाय कल्याणं।
अर्थात् हे भिक्षुओं बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, जगत के कल्याण के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजनार्थ हित और सुख के लिए विचरण करो। यह धम्म आरंभ में हितकारी, मध्य में हितकारी एवम् अंत में भी हितकारी है।
ओशो के शब्दों में “प्रार्थना विस्मरण नहीं है। वह जिसमें भुलना, डुबना और खोना है; मादकता का ही एक रुप है। वह प्रार्थना नहीं पलायन है। शब्द में संगीत में खोया जा सकता है। यह विस्मरण और बेहोशी सुखद भी मालुम हो सकती है, पर यह प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना क्रिया नहीं, वरन चेतना की एक स्थिति है। प्रार्थना की नहीं जाती है, प्रार्थना में हुवा जाता है।”
कामना का अर्थ क्या है: meaning of desire.
मनोवैज्ञानिक डॉ केंडी के अनुसार अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को त्यागकर परमेंश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है।
जीवन में श्रद्धा और विश्वास का होना अनिवार्य है !
प्रार्थना में शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है अथवा यह मौन रहकर भी की जा सकती है। पवित्र शब्दों, मन्त्रों का उच्चारण या मनन का उद्देश्य होता है स्वयं को तंत्र में बांधना। वास्तव में हम अपने ईष्ट को ध्यान में रखकर जो कहते हैं, वह स्वयं से ही कह रहे होते हैं।
सुप्रसिद्ध विचारक प्लेटो के अनुसार; आत्मा का खुद से बातचीत करना ही मनन कहलाता है। जब हम आत्मा अर्थात् स्वयं के भीतर अवस्थित आत्म त्तत्व से बातचीत करते हैं, तो वह प्रार्थना है।
आत्मनिर्भरता का अर्थ : Meaning of self Reliance
गीता में कहा गया है; ‘उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्।।’ अर्थात् मनुष्य में इतनी शक्ति है कि वह अपना उद्धार स्वयं कर सकता है।
परन्तु इसके लिए अपने ईष्ट के प्रति श्रद्धा और विश्वास का होना अनिवार्य है। चाहे आप उन्हें जिस रुप में मानकर चल रहे हों, उनके समक्ष आप जिस भाव से, जैसी श्रद्धा से प्रस्तुत होते हैं, आपको बदले में वही प्राप्त होता है। गीता में इस बात का उल्लेख मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है:
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धाभवतिभारत। श्रद्धामयोऽयं पुरूषो यो यच्छ्रध्द: स एव स।।
अर्थात् हे भारत! समस्त जीवों की श्रद्धा उनके अन्त:करण में निहित मिश्र-भिन्न संस्कारों के अनुरूप होता है। यह संसारी जीव श्र्द्धामय है! जिस जीव की जैसी श्रद्धा है, वह उस श्रद्धा के अनुरूप ही होता है।
शास्त्र हमें बताते हैं कि प्रार्थना का आशय अपने ईष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्यां द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम् देव देव।।
अर्थात् हे विधाता तुम्ही माता हो, तुम्ही पिता हो, तुम्ही बन्धू और तुम्ही सखा हो। विद्या और धन सबकुछ तुम्हीं हो। मुझे जो भी मिला है वह तुम्हारा ही है। हे प्रभु सब तेरी कृपा है।
याचना भौतिक सुखों के लिए सही परन्तु जीवन में प्रार्थना का होनाअनिवार्य है। अगर जीवन में प्रार्थना न हो तो इसके वास्तविक उद्देश्य से भिज्ञ हो पाना भी संभव नहीं है। जिस भाव से हो, जिस प्रकार से हो, जिस भाषा में हो जीवन में प्रार्थना होनी चाहिए। ईश्वर से जो मांगा जाता है वही मिलता है। परन्तु यह ध्यान अवश्य रहे कि किसी के अहित का कामना ना हो। क्योंकि दुसरे के अहित की कामना करने से स्वयं का अहित हो जाता है।
यदि भौतिक समृद्धि के लिए भी ईश्वर से निवेदन हो। और वह संतुष्टि के भाव के साथ किया जाय, तो अनुचित नहीं कहा जा सकता है। श्रद्धा, विश्वास, संतोष और परहित के भावना से भौतिक समृद्धि का कामना को भी उचित कहा जा सकता है। क्योंकि इससे भविष्य में प्रार्थना का वास्तविक अर्थ को समझ पाने की संभावना बनी रहती है। कबीरदास ने कहा है;
साई इतना दीजिए जामें कुटुम्ब समाय। मैं भी भुखा ना रहुं साधु ना भुखा जाय।।
अर्थात् हे ईश्वर मुझे इतना तो अवश्य देना। जिसके की स्वयं के साथ-साथ सभी कुटुम्बजनों का भरण पोषण हो सके। और साधु, सज्जन, अतिथियों का आगमन हो तो वे भी दर से भुखा न जायें।
शास्त्रों के अनुसार ऊर्जा से जुड़ाव ही मनुष्य को एक असीमित शक्ति का अनुभव कराता है। विचार करने योग्य तथ्य यह है कि भिन्न-भिन्न संस्कृतियों एवम् संम्प्रदायों में ईश्वर की अवधारणा भिन्न-भिन्न हैं। परन्तु एक तथ्य है जो सभी में समान है। वह तथ्य है ईश्वर की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए याचना करना। परमसत्ता की उपासना, आराधना से जीवन को सुधारने की आशा और विश्वास सभी धर्मों में है। और प्रत्येक के जीवन में इस विश्वास का होना अनिवार्य है।
प्रार्थना एक ऐसा शब्द है जिस पर जितनी चर्चा हो कम है। यह अनुभव करने की क्रिया है। एक पुरानी कहावत है ‘मानो तो देव नहीं तो पत्थर’! ईश्वर की अनुभूति होती है! पुरी श्रद्धा और विश्वास के साथ समर्पण से। इसके लिए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर उनसे स्वयं को जोड़ने का प्रयास करना पड़ता है। और मान लेने से ही अनुभव की यात्रा की शुरुआत होती है। आत्मविश्वास क्या है ! What is confidence. मन में अगर संशय हो तो सबकुछ बेकार मालुम पड़ता है। अंत में प्रस्तुत है पुष्पा बागधरे द्वारा गायी गई सुन्दर सी गीत की पंक्तियां। पावन शब्दों का, गीत का, संगीत का प्रभाव जीवन को प्रभावित करता है। चिंता नहीं चिंतन करो ..! और इन पर चिंतन मनन करने से जीवन में सुधार की संभावना प्रबल हो जाती है। और यही प्रार्थना का वास्तविक उद्देश्य है।
इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमजोर होना। हम चलें नेक रस्ते में हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना।
हम न सोचें हमें क्या मिला है हम ये सोचें किया क्या है अर्पण। फूल खुशियों की बांटें सभी को सबका जीवन ही बन जाये मधुवन।
अपनी करूणा को जब तुम बहा दे..! करदे पावन हरेक मन का कोना। इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमजोर होना।
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