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मन की व्यथा : रहीम के दोहे

मन की व्यथा! अर्थात् मन में दुख का भाव। जब किसी बात को लेकर मन में पीड़ा का अनुभव होता हो। दुख, पीड़ा, व्यथा से मन का व्यथित होना भी स्वाभाविक है। यह जो पीड़ा है मन की, इसे सहन भी करना पड़ता है। पर सभी ऐसा नहीं कर पाते। अधिकांशतः लोग दुख से घबरा जाते हैं। और उनका दर्द छलक कर बाहर निकल आता है। 

रहिमन अंसुआ नैन ढ़रि, जिय दुख परगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कह देइ।।

कवि रहीम के कहने का तात्पर्य है कि मन में जो पीड़ा होती है, वह आंसु बनकर छलक पडती है। ये आंसु मन के सारे भेद को प्रगट कर देते हैं। किन्तु इसके जगजहिर हो जाने से हानि ही होती है। ऐसी अवस्था में कोई दुख बांटने नहीं आता, बल्कि मन की हीनता सामने आ जाती है। और कोई भी इसका अनुचित लाभ उठा सकता है।

ऐसा कहा जाता है कि दर्द को बांटने से दर्द कम होता है। अर्थात् मन की व्यथा का बाहर निकल आने से मन हल्का होता है। अगर ऐसा न हो, तो मन व्यथित ही रहेगा। दर्द में खोए रहने से दर्द मन को अशांत कर सकता है। तो फिर हमें क्या करना चाहिए? मन की व्यथा को मन में ही रखना चाहिए या इसे प्रगट कर देना चाहिए?

परन्तु व्यथित मन की खामोशी से दर्द और भी बढ़ सकता है। दर्द के बने रहने से किसी के भी मान्सिकता पर इसका गहरा प्रभाव पड़ सकता है। अगर दुसरों के समक्ष अपने दर्द को व्यक्त करो, तो यह कम हो सकता है। दर्द बांटने से दर्द कम होता है, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता। हो सकता है कि आपके आसपास कुछ ऐसे लोग हों, जिन्हें आपका कद्र करना आता हो। जो आपके मन की भावनाओं को समझते हों। अगर ऐसा है तो फिर उनके समक्ष अपने दर्द को प्रगट किया जा सकता है। परन्तु ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता। होता यह है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है। मन की व्यथा बाहर निकली नहीं कि लोग आपकी भावनाओं से खेलने लगते हैं।

रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलइहैं लोग सब बांटी न लइहैं कोय।।

कवि रहीम के इस उक्ति का भावार्थ है कि अपने मन की व्यथा को मन में ही रखना उचित है। यह व्यक्त करने का भाव नहीं है, क्योंकि व्यक्त करने से यह कम नहीं होता। आपके मन की भावनाओं को कोई दुसरा नहीं समझ सकता। सुनि अठिलइहैं लोग सब! सुननेवाले इसे अपने ढंग से लेते हैं और तरह तरह की बातें करने लग जाते हैं। बांटि न लइहैं कोय! आहत मन की भावनाओं को प्रगट करने से कोई दुख को बांट नहीं लेता। इसलिए अपने मन की व्यथा को अपने मन में ही रखना चाहिए।

मन की व्यथा का कारण ही यही है कि वह बाहर भटकता रहता है। यह जो व्यथा, दर्द, दुख अथवा वेदना, जो भी कहें, सब आयातित होते हैं। सब बाहर के संसार से ही आते हैं, और इसका समाधान भी हम बाहर ही खोज रहे होते हैं। हम केवल सुख चाहते हैं, पदार्थों में, संबंधों में, हर जगह केवल सुख चाहते हैं। संसार में ऐसा कोई वस्तु नहीं, जो स्थायी रुप से सुखी कर सके। अगर मिल जाए तो कुछ देर के लिए हमें अच्छा लगता जरुर है। इसलिए हम उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। नहीं मिले तो दुख होता है, और मिलकर खो जाने पर और भी दुख होता है। 

और बात जहां तक संबंधों की है, तो इनमें कोई न कोई मतलब छिपा होता है। मन सबके पास होता है और सभी को सुख की तलाश होती है। संसार में सभी अपनी अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगे रहते हैं। सबको अपनी पड़ी है, वैसे लोग विरले ही होते हैं, जो दुसरों के दर्द को बांटना जानते हैं। हां कुछ बातें ऐसी होती हैं, कुछ स्थितियां ऐसी आती हैं जीवन में। जिसे अपनों के बीच व्यक्त करने से, समाधान मिल जाता है। लेकिन  मन के व्यथित होने के अनेक करण हर रोज, हर पल उपस्थित होते रहते हैं। इन सबका का समाधान हमें किसी से भी नहीं मिल सकता। 

जाते जान्यो मन भयो जरि बरि भसम बनाय।
रहिमन जाहि लगाइये सोइ रुखो हो जाय।।

रहीम के इस दोहे का अर्थ है कि मन के भेद को अगर कोई जान गया, तो मन को ही नष्ट करने में लग जाता है। इस संसार में अधिकांश लोग इर्ष्या, द्वेश के भाव से भरे पड़े हैं। जिससे भी मन लगाव, जिससे भी मन की व्यथा को कहो, वही दगा दे जाता है। किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा मित्र वह स्वयं होता है, दुसरा कोई नहीं। 

यह जो व्यथा है मन की, भीतर ही रहने दो। बाहर समाधान नहीं है, बाहर बांटने से यह कम नहीं होगा। भीतर ही रहने दो और इसका समाधान भी भीतर ही खोजना है। इसका समाधान भी भीतर ही मिलेगा, पर खोजना बड़ा कठिन है। भीतर संजोकर रखना और समाधान खोजना, दोनों ही कठिन है। इसके लिए मन में उस भाव को जगाने की जरूरत है, जो दर्द से मुक्त होने का भाव है।

जो रहीम मन हाथ है तो तन कहूं किन जाहिं।
ज्यों जल में छाया पड़ै काया भीजत नाहिंन।।

रहीम ने कहा है कि जिसका मन उसके हाथ में है, उसका तन कहीं क्यों भटकेगा! जैसे पानी में परछाई के पड़ने से शरीर नहीं भीगता है। वैसे ही जिसने मन पर नियंत्रण पा लिया है, उसका शरीर भी नियंत्रित हो जाता है। कामना, वासना, तृष्णा, लोभ, लालसा जैसे भावों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह जो अवस्था है, दर्द से मुक्त होने की अवस्था है। इस अवस्था को अगर पा लिया तो मन की व्यथा मिट जाती है। 

श्री श्री रविशंकर के अनुसार “जीवन को देखने के दो तरीके हैं, पहला यह कि किसी एक उद्देश्य की प्राप्ति के बाद मैं सुखी हो जाऊंगा। दुसरा वह कि जो भी है, जैसा भी है, मैं सुखी हूं।”

हम व्यथित क्यों हैं? इसलिए कि हम सुखी नहीं हैं। हम सुख को, शांति को पकड़ कर रखना चाहते हैं। हमारा यह प्रयास ही गलत है। हम जितना प्रयास करते हैं, उतनी ही समस्याएं आती हैं। किसी भी चीज को पकड़कर रखने का प्रयास ही ग़लत है। ऐसा करना हमारे बस में है ही नहीं। सुख ही हो जीवन में, ऐसा नहीं होता और न हो सकता है। 

चाह गयी चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कछु नहिं चाहिए वो शाहन के शाह।।

कवि रहीम के दोहे हमें चिंतामुक्त रहने की, मन की पीड़ा से बेपरवाह होने की सीख देते हैं। उन्होंने कहा है कि सुखी होना है, तो चिंता और चाहत का त्याग करना जरूरी है। जिसका चित्त उदासीन भाव में स्थित होता है, वह राजाओं का राजा है।

जीवन में समस्याएं आती हैं, आती ही रहती हैं। लेकिन हम सुख को पकड़कर रखना चाहते हैं, मन की व्यथा का कारण यही है। और मन जब व्यथित होता है तो रोते हैं, चिल्लाते हैं। ऐसा कर अपने मन की हीनता को दुसरों के समक्ष प्रगट करते हैं और हंसी का पात्र बन जाते हैं। न्युनतम आवश्यकताओं के साथ जीना। जो कुछ भी उपलब्ध हो, उसमें संतुष्ट रहना। ऐसी भावना को मन में धारण करने का प्रयत्न करना तपस्या है। ऐसा कर पाना कठिन है, लेकिन असाध्य नहीं है।

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