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विद्यार्थी जीवन कैसा होना चाहिए? — How Should Student Life Be?

विद्यार्थी का अर्थ और लक्षण !

विद्यार्थी शब्द विद्या और अर्थी दो शब्दों के योग से बना है। विद्या वह गुण है जिसे हम सीखते हैं, शिक्षा के द्वारा प्राप्त करते हैं। प्रसिद्ध कवि सुर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के अनुसार ‘संसार में जितने प्रकार की प्राप्तियां हैं शिक्षा सबसे बढकर है’। अर्थी से आशय है जो किसी वस्तु, विषय को प्राप्त करना चाहता है। इस प्रकार जो विद्या प्राप्त करना चाहता है वह विद्यार्थी कहलाता है। विद्यार्थी होने के लिए आयु, धर्म या जाति का कोई बंधन नहीं होता। जो कोई इसे पाना चाहता हो, प्राप्त कर सकता है। 

एक पुरानी कहावत है कि ‘लग्गी में हंसुआ बांधकर घांस नहीं काटा जाता है’। मतलब साफ है अगर घांस काटनी हो तो हंसुऐ को हाथ से पकड़कर खुद से घांस काटना पड़ता है। किसी भी काम को पुरे मनोयोग से करने पर ही उस काम को सफलता पूर्वक संपादित किया जा सकता है। जानकारों की मानें तो कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। आचार्य चाणक्य ने कहा है ;

सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां त्वजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेसुखम्। सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम्।। 

अर्थात्  यदि सुख की इच्छा है विद्या प्राप्त करने की चेष्टा मत करो। और यदि विद्या की इच्छा है तो सुखों को त्याग दो। सुख चाहने वाले को विद्या कहां और विद्या चाहने वाले को सुख कहां।

कामधेनुगुणा विद्या ह्यकाले फलदायिनी। प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतं।।

आचार्य चाणक्य के अनुसार विद्या कामधेनु के समान गुणोवाली है, बुरे समय में भी फल देनेवाली है,  प्रवास काल में मातृ समान है और गुप्तधन है।

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवा: । विद्याहीना न शोभते निर्गन्धा इव किंशुका:।।

आचार्य चाणक्य ने कहा है कि रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैैं।

संस्कृत साहित्य में विद्यार्थी के लक्षणों के विषय में इस प्रकार लिखा गया है ;

काकचेष्टा वकोध्यानम् श्वाननिद्रा तथैव च। अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम्।।

अर्थात् एक कुशल विद्यार्थी में इन पांच गुणों का होना आवश्यक है। उसकी चेष्टा कौआ की भांति, निद्रा कुत्ते के समान, बगुला के तरह ध्यान, गृह त्यागने वाला और अल्प आहार लेने वाला ये पांचों गुण का होना आवश्यक है।

आचार्या पादमादत्ते पादं शिष्य: स्वमेधया। पादं सब्रह्मचारिभ्य:पादं काल क्रमेय च।।

विद्या वह गुण है जो देखने-सुनने, पड़ने और अनुभव से प्राप्त होती है। विद्यार्थी विद्या का एक चौथाई भाग आचार्य से, एक चौथाई स्वयं के प्रतिभा से, एक चौथाई सहपाठियों से और बाकि अनुभव से प्राप्त करता है

विद्या वह अमुल्य धन है जो जिसके पास है, उससे कोई छीन नहीं सकता। यह बांटने से घटता नहीं है। यह मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाता है। शास्त्रों में कहा गया है, कि विद्या विनम्रता प्रदान करती है और विनम्रता से योग्यता का विकास होता है। योग्यता से धनोत्पार्जन होता है और धन से धर्म के कार्य होते हैं। इस प्रकार एक कुशल विद्यार्थी समाज के लिए सदैव उपयोगी होता है। वह स्वयं सर्वश्रेष्ठ कार्य करने का प्रयत्न करता है और दुसरों का कल्याण में लगा रहता है।

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जिस प्रकार एक नई चाकु जिसे खरीदकर लाई जाय और उसका उपयोग न हो तो उसमें जंग लग जाता है। उसकी धार कुंद पड़ जाता है, फिर वह किसी काम का नहीं रहता। उसे उपयोगी बनाये रखने के लिए उसे बराबर उपयोग में लाना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार प्राप्त विद्या को निरंतर व्यवहार में लाया जाता है। वह विद्यार्थी किसी काम का नहीं होता जो अपने विद्या का उपयोग नहीं करता है। आचार्य चाणक्य के अनुसार;

पुस्तकेषु च विद्या परहस्तेषु च यध्दनम्। उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तध्दनम्।।

अर्थात् जो विद्या पुस्तक में ही है, और जो धन दुसरों के हाथ में चला गया है। ये दोनों चीजें समय पर काम नहीं आती।

एक कुशल विद्यार्थी में हंस के तरह विशिष्ठ गुण होना चाहिए। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि शास्त्र अनेक हैं, विद्यायें अनेक हैं, किन्तु मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, उसमें भी विघ्न अनेक होते हैं। इसिलिए जैसे हंस मिले दुध और पानी में से दुध पी लेता है और पानी छोड़ देता है। ठीक उसी प्रकार विद्यार्थी को काम की बातों को ग्रहण कर लेना और बाकि को त्याग देना चाहिए। 

शुन: पुच्छमिव व्यर्थ जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणो।।

जिस प्रकार कुत्ते की पूंछ न तो उसके गुप्त अंग को ढंक पाते हैं। और न ही वह मच्छरों के काटने से रोक सकते हैं। इसी प्रकार विद्या से रहित जीवन भी व्यर्थ है। क्योंकि विद्याविहीन मनुष्य मुर्ख होने के कारण न अपनी रक्षा कर सकते हैं और न भरण पोषण कर सकते हैं।

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विद्यार्थी को सर्वप्रथम शिक्षा प्राप्त कर अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के योग्य बना लेना चाहिए। परन्तु सिर्फ भोतिक वस्तुओं को प्राप्त करना भर शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। दार्शनिक दृष्टि से शिक्षा वह है जो मानव को संपूर्ण अस्तित्व और उससे परे जो भी है उसके साथ एक करती है। जीवन में महत्ती गुणों को धारण करने की चाहत रखने वालों को तपस्या से गुजरना पड़ता है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि विद्या प्राप्त करने के लिए दृढ इच्छाशक्ति, कठिन परिश्रम और लगन की आवश्यकता होती है। एक कुशल विद्यार्थी जब शिक्षा प्राप्त कर रहा होता है तो वास्तव में यह उसके जीवन की तैयारी का शिक्षण काल होता है।

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