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संदेह और श्रद्धा — Doubt and Faith

संदेह मन की दुविधा जनक स्थिति है! किसी वस्तु अथवा विषय के संबंध में वास्तविक ज्ञान का न होना इस मनोभाव के उपस्थित होने का कारण है। अल्पज्ञान की धुंध में हमें चीजें उनके सही स्वरुप में दिखाई नहीं पड़ती। फलस्वरूप हमारा मन उन चीजों के प्रति कोई स्पष्ट विचार नहीं बना पाता है। 

जब तक मन में संदेह है, मन अविश्वास और विश्वास के बीच का द्वंद है। संदेह का आशय अविश्वास करना नहीं है, यह विश्वास की ओर आगे बढंने की जिज्ञासा है। संदेह से ऊपर है विश्वास! विश्वास यानि भरोसा निसंदेह होने की अवस्था है।

श्रद्धा में अविश्वास का कोई स्थान नहीं होता। श्रद्धा में अंधविश्वास भी नहीं है, यह प्रबल विश्वास की अवस्था है। कर्म, ज्ञान, उपासना, भक्ति सभी क्षेत्रों में श्रद्धा की प्रधानता होती है। संदेह श्रद्धा का विपरीत नहीं है, श्रद्धा का ही एक घटक है। श्रद्धा संदेह से ऊपर है। ये एक ही मनोभाव के दो भिन्न स्वरुप हैं। संदेह निम्न अवस्था है, विश्वास उससे ऊपर है और श्रद्धा उच्चतर अवस्था है।

सामान्यतः शंका, संशय, एवम् शक आदि शब्दों को संदेह का समानार्थी समझा जाता है। परन्तु गहराई से विचार करें तो संदेह एवम् शक में भिन्नता दिखाई देती है। संदेह ऐसा मनोभाव है जिसमें खोजने की प्रवृति होती है। शक संदेह से भिन्न है। शक की मनःस्थिति में खोज की संभावना नहीं होती। यह किसी विषय-वस्तु के संबंध में नकारात्मक सोच कायम कर लेता है। संदेह का अर्थ है आप जानते नहीं, पर जान सकते हैं। संदेह में संभावना है, जिज्ञासा है। अतः यह एक अच्छी अवस्था है।

शक एक मनोविकार है! यह हमारी बुद्धि के निम्नतर स्तर में होने का परिचायक है। शक ऐसी मनोवृति है जिसके कारण हम किसी से विश्वास नहीं कर पाते। जिसके साथ वर्षों तक रह चूके हों उनके साथ भी नहीं। अगर वे कुछ ऐसा करते हैं, जो हमें समझ में नहीं आता तो हमारे मन में उनके प्रति संशय उपस्थित हो जाता है।

जिसके मन में शक का भाव होता है, वह कभी किसी पर विश्वास नहीं कर सकता। शक अविश्वास का दुसरा रुप है। शक जैसे अवगुण से ग्रस्त व्यक्ति खुद पर भी विश्वास नहीं कर पाता है। संदेह इस तथ्य तक पहुंचने का एक मार्ग है, जिसपर चलकर किसी पर विश्वास किया जा सकता है। संदेह प्रत्येक के विषय में किया जा सकता है, परन्तु शक सब पर नहीं किया जा सकता। जीवन में विश्वास का होना महत्त्वपूर्ण है।  क्योंकि इसे अर्जित करने में बर्षों लग जाते हैं, पर खोने में पलभर भी नहीं लगता। इसलिए संदेह करना तो उचित है, क्योंकि इसमें विश्वास को पाने की संभावना है। लेकिन शक करना सर्वथा अनुचित है।

संदेह के विषय में आचार्य चाणक्य ने कहा है कि यह एक स्वस्थ रिश्ते के मूल त्तत्वों में शामिल है। अगर आपके कार्यों पर कोई संदेह करता है, तो उसे करने देना चाहिए। क्योंकि संदेह सोने की शुद्धता पर किया जाता है, कोयले की कालिख पर नहीं। 

तात्पर्य यह है कि कोई आपके क्रिया-कलापों पर संदेह इसलिए करता है कि उसके समझ में ही नहीं आता। यदि आपको खुद पर संदेह नहीं है, अपने कार्य के सही होने का विश्वास है, तो आलोचनाओं पर गौर करने की जरूरत ही नहीं है। जिस प्रकार सोने की शुद्धता की परीक्षा ली जाती है, उसी प्रकार उत्तम विचारों वाले व्यक्तियों को भी परीक्षाएं देनी पड़ती हैं। 

कोयले के साथ ऐसा बिल्कुल ही नहीं होता। अगर किसी व्यक्ति का कार्य-व्यवहार भ्रष्ट हैं तो यह सबको दिखाई देता है। उसे परखने कोई मतलब नहीं होता। सोना आग से गुजरता है तो डरता नहीं है, तपने के बाद ही वह आपने शुद्ध स्वरुप को प्राप्त करता है। कोयला आग से गुजरता है तो डरता है। क्योंकि आग में से गुजरने पर वह जल कर राख हो जाता है। आग से गुजरकर तो निखर जाता है, वह सोना है। 

हमें इस बात पर चिंतन अवश्य करना चाहिए कि हमारी श्रद्धा का आधार क्या है?  जिन्हें हम श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उनके छवि को पूजते हैं, ऐसा क्यों है? उनके पत्थर की मूर्ति के समक्ष सर झुकाते हैं, ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए तो नहीं कि हमने कभी उनके चमत्कारों को कभी देखा है, अथवा सुना है! क्या उनके प्रति हमारी जो भावना है, वह वास्तव में उनके प्रति श्रद्धा है ? किसी के कहने से तो नहीं कर रहे। क्या वास्तव हमें उनके प्रति कोई प्रतीति है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि संदेह भी उपस्थित है, और बाहर से श्रद्धा कर रहे हैं। किसी भय के कारण, किसी स्वार्थ के कारण या किसी और कारण से हम आडंबर तो नहीं कर रहे ?

भीतर अगर संदेह है और बाहर से श्रद्धा कर रहे हैं तो यह दुविधा की स्थिति है। हाथ जोड़कर मंदिर में खड़े हैं, और मन में संदेह उभर रहा है। मन में द्वंद चल रहा है कि मंदिर में जो मुर्ति है, वास्तव में उसमें ईश्वरीय शक्ति है भी अथवा नहीं। तो फिर यह कैसी पूजा है, किस प्रकार की भक्ति है, कैसी श्रद्धा है। संशयात्मक बुद्धि के साथ प्रार्थना का, उपासना का अर्थ क्या है ?

सदगुरु के अनुसार : शंका का आशय किसी चीज के विषय में पक्की जानकारी न होने की वजह से उसपर विश्वास नहीं करना है। परन्तु इस अविश्वास का हर चीज के विषय में हमेशा बने रहने से यह शक में बदल जाता है। अविश्वास का मतलब है आप पहले से किसी नतीजे पर पहुंच चूके हैं। लेकिन संदेह के होने का मतलब है कि आप खोज-बीन में लगे हुवे हैं।

सदगुरु कहते हैं कि शंका से आपका आध्यात्मिक विकास धीमा नहीं होता। इससे इसमें तेजी आती है। सच कहें तो केवल शंकालू लोग ही आध्यात्मिक बन पाते हैं। बाकी लोग तो हर चीज के लिए पहले ही नतीजे पर पहूंच गए होते हैं। यदि आप शंकालू नहीं हैं तो कभी खोज-बीन नहीं करेंगे, सीधे नतीजे पर पहुंच जायेंगे।

श्री श्री रविशंकर के दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमारे मन में हमेशा सकारात्मकता के विषय में संदेह उत्पन्न होता है। हम कभी अपने जीवन में नकारात्मकता पर संदेह नहीं करते हैं। जैसे कि कोई अगर  हमसे नफरत करता हो, तो हम उसपर संदेह नहीं करते हैं। लेकिन कोई हमसे प्रेम करता हो, तो उसपर हमें संदेह होता है। यदि हम नकारात्मकता पर शंका कर सकें, तो हम सच तक पहूंच सकते हैं।

श्रीश्री के शब्दों में “इस खोज के साथ जब भीतर के ऊर्जा के स्तर में वृद्धि होगी, तब आप देखेंगे कि आपके मन के सब संदेह मिट जाएंगे। आपका मन और अधिक स्पष्ट हो जाएगा, सारे भ्रम मिट जाएंगे।”

ओशो के दृष्टिकोण से देखा जाए तो उन्होंने कहा है कि संदेह पर संदेह करें! तभी संदेह पूरा होता है। आश्चर्य की बात यह है कि लोग हर चीज पर संदेह करते हैं, लेकिन संदेह पर संदेह नहीं करते। दिया तले अंधेरा रह जाता है। संदेह को दबाने से श्रद्धा नहीं आती, संदेह को पूरा कर लेने से आती है। संदेह के उलट नहीं है श्रद्धा, इससे आगे है। संदेह की यात्रा को अधुरा छोड़ा, कुछ बचा रहा तो वह लौटकर श्रद्धा को भंग करेगा। जो भी अनुभव अधुरा रह जाएगा, वह अनेक रुपों में वापस लौटता है। अनुभव को पूरा किये बिना कोई उपाय नहीं है।

ओशो कहते हैं कि “जीवन में जो भी मूल्यवान है, शंका उसे मिटा देता है। तुम प्रेम नहीं कर सकते शंका के साथ। तुम मित्रता नहीं कर सकते शंका के साथ। शंका की दीवार सदा बीच में खड़ी रहेगी। 

झुठी है तूम्हारी श्रद्धा अगर शंका के ऊपर तुमने उसको रंग रोगन की तरह लगा लिया है। किससे छिपा रहे हो? किससे बचा रहे हो? अगर संदेह है तो मैं कहता हूं, उसे मवाद की तरह समझो! उसे निकल जाने दो। उसके निकल जाने से तुम स्वस्थ हो जाओगे।

नास्तिकता यानि शंका और आस्तिकता यानि ऋद्धा। नास्तिक आस्तिक के विपरीत नहीं है, जैसे शंका श्रद्धा के विपरीत नहीं है। आस्तिक नास्तिक के आगे है, जैसे श्रद्धा शंका के आगे है। जहां शंका समाप्त होता है, वहां श्रद्धा शुरू होती है। जहां नास्तिकता समाप्त होती है, वहां आस्तिकता शुरू होती है। लेकिन नास्तिकता से गुजरना जरुरी है।

मैं तुम्हें आस्तिक बनने नहीं कहता। क्योंकि आस्तिक तुम बन कैसे सकोगे? यह तो ऊपर की सीढ़ी है। कम से कम नास्तिक तो बन जाओ। पहली सीढ़ी तो पार कर लो। ऊपर की सीढ़ी तो अपने आप आ जाती है। जिस दिन नीचे की सीढ़ी पूरी होती है, अचानक द्वार खुल जाता है, ऊपर की सीढ़ी आ गयी।

संदेह करो! परिपूर्ण आत्मा से संदेह करो। संदेह मार्ग है, लेकिन अधुरे में मत जाना, संदेह पूरा कर लेना। जिस दिन तुम संदेह पूरा करोगे, एक नई विधा खुलती है। वह है संदेह पर संदेह! और यह संदेह पर संदेह ही संदेह को मार डालता है। जैसे कांटे को कांटा निकाल देता है। संदेह ही संदेह को मिटा देता है। और जिस दिन दोनों कांटे बाहर आ जाते हैं, अचानक तुम पाते हो कि श्रद्धा की बाढ़ आ गई।

और जब श्रद्धा की बाढ़ आती है, तो उसका यह अर्थ नहीं होता कि तुम परमात्मा में भरोसा करते हो। उसका इतना ही अर्थ है कि तुम भरोसा करते हो। श्रद्धा कोई आयन थोड़े ही है तुम्हारा कि उसके आसपास चारदीवारी है। श्रद्धा खुला आकाश है, नीला आकाश है, जिसका कोई सीमा नहीं। शंका से गुजरकर जो बच जाए, वह श्रद्धा है।”

क्या आपने कभी चिंतन किया है कि संदेह के उपस्थित होने का कारण क्या है? एक बच्चा जब छोटा होता है, उसका मन निर्मल होता है। कोरा कागज की भांति होता है। उसपर कुछ भी लिखा नहीं होता, कोई गंदगी नहीं होती। शुरूवात में उसके मन में जो भी भरते हैं, जो भी लिखते हैं, वो हम ही होते हैं। हम जो कहते हैं, वह करता है। हम उसे अपने मनानुसार चलना सीखाते हैं। वह वही सीखता है, जो हम उसे सीखा रहे होते हैं। वही करता है जो हमें करते हुवे देखता है। उसे यह मालूम ही होता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? और गौरतलब है कि कुछ बातें ऐसी हैं, जो हम उसे करने को कहते हैं, या करने को बाध्य करते हैं। उसके विषय में ठीक से हमें भी नहीं पता होता है।

जैसे हम उसे मंदिर ले जाते हैं, ईश्वर की मुर्तियों के समक्ष सर झुकाने को कहते हैं। हम उससे कहते हैं कि ऐसा करना जरूरी है। उसे इन सब बातों की कोई समझ नहीं होती। उसके मन में तरह-तरह के प्रश्न उभरते हैं। वह हमसे प्रश्न भी पूछता है, लेकिन उसके प्रश्नों का हमारे पास भी नहीं होते। यहीं से शंका का उदय होता है। हम केवल अपने आदतों को, अपने विचारों को थोपने में लगे रहते हैं। हम यह कभी नहीं कहते की जब तुम्हारा मन करे सर झुका लेना। 

श्रद्धा के साथ जबरदस्ती करना ही गलत है। और जिस बात का हमें खुद भी अनुभव नहीं होता, उसे थोपने में लगे रहते हैं। शंका इसी का परिणाम है। वही बच्चा जब बड़ा होता है, तो शंका करना उसका स्वभाव हो जाता है। शंका झुठी श्रद्धा के प्रतिकार से उत्पन्न होता है। श्रद्धा थोपने की नहीं अनुभव का विषय है। या फिर कोई ऐसा मिल जाए, जो सारे प्रश्नों का उत्तर दे सके। ऐसे व्यक्ति का संसर्ग से सभी प्रकार की शंकाओं का निराकरण किया जा सकता है। परन्तु विरले ही इस स्थिति से निकल पाते हैं।

श्री अरविन्द से किसी ने पूछा कि क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? उन्होंने कहा कि नहीं! मैं ईश्वर पर विश्वास नहीं करता हूं’ मैं ईश्वर को जानता हूं।

प्रारंभ में जब विवेकानंद  श्री रामकृष्ण से मिलने गए तो उन्होंने उनसे पूछा – दिव्य अनुभूति क्या होता है? क्या आपको कभी हुवा है? मुझे कैसे हो सकता है? क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है? श्री रामकृष्ण ने उत्तर दिया- हॉं! मैने देखा है! ठीक उसी तरह जैसे तुम्हें देख रहा हूं। मैं तुम्हारे भीतर देख रहा हूं, तुम्हें देखकर मुझे दिव्य अनुभूति हो रही है!

ऐसा कोई सत्य नहीं जिसपर शंका नहीं किया गया हो। नरेंद्र नाथ के मन में भी शंक के भाव थे। लेकिन उनमें शंकाओं से बाहर निकलने की जिज्ञासा थी। उन्हें एक विलक्षण गुणों से सम्पन्न गुरु का सानिध्य प्राप्त हुवा। परम पूज्य रामकृष्ण परमहंस के मार्गदर्शन से उनके सभी शंकाओं का निवारण हो गया। उनके भीतर का संदेह श्रद्धा में परिवर्तित हो गया। आज समस्त संसार उन्हें स्वामी विवेकानंद के नाम से जानती है। शंका से गुजरकर जो बच जाता है, वह प्रबल विश्वास है, वही श्रद्धा है। संदेह झुठी ऋद्धा के पीछे आता है, और श्रद्धा संदेह के आगे है। जब तक मन अज्ञान के अन्धकार में है, समझो संदेह मौजूद है। और ज्ञान आता है सत्संग से, ध्यान में डुबने से। संदेह ज्ञान से मिटता है, जैसे अंधकार प्रकाश से मिटता है।

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