ध्यान का अर्थ !
ध्यान एक क्रिया है, जिसमें कोई व्यक्ति अपने मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करता है। मन का स्वभाव अस्थिर प्रकृति वाला है। साधारण मनुष्य के मन में एक साथ अनेक विचार चलते रहते हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पनाओं, विचारों को मन से हटाकर, इसे स्थिर करने की क्रिया है। इसका उद्देश्य मन को नियंत्रित करना होता है। परन्तु विस्तारपूर्वक चिंतन किया जाय, तो ध्यान का अर्थ केवल एकाग्रता नहीं है। बल्कि इसके द्वारा मन को चेतना की उच्च अवस्था में ले जाने का प्रयत्न करना होता है। ध्यान का उद्देश्य साधारण लक्ष्य को साधना भी हो सकता है या फिर ध्यान करना स्वयं में एक लक्ष्य हो सकता है। इसमें मन को शान्त करने का सरल विधि से लेकर आंतरिक ऊर्जा को विकसित करना समाहित होता है।
ध्यान का मूल अर्थ जागरूकता है!
श्रीश्री रविशंकर के अनुसार हम अपना अधिकांश जीवन चेतना की तीन अवस्थाओं में जीते हैं; जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति। इन तीन स्थितियों के बीच कहीं न कहीं चेतना की उच्च अवस्था है। चेतना की उच्च अवस्था को ध्यान के माध्यम से कोई भी प्राप्त कर सकता है। ध्यान दो उपायों से मदद करता है। यह तनाव को संस्थान में प्रवेश करने से रोकता है। और साथ ही संचित तनाव को भी मुक्त करता है। तनाव को दैनिक जीवन में आत्मसात करने से हमारे भीतर चैतन्य की एक उच्च अवस्था का उदय होता है। जिसे ब्रम्हांडीय चेतना कहते हैं। ब्रम्हांडीय चेतना संपूर्ण ब्रह्मांड को स्वयं के अंश के रूप में मानती है। जब हम जगत को अपने अंश के रूप में देखते हैं, तो जगत और हमारे बीच प्रेम बढ़ जाता है। यह प्रेम हमें विरोधी बलों का सामना करने और जीवन में हलचल को दुर करने की शक्ति देता है।
चर्चित दार्शनिक ओशो के शब्दों में; मैं जिसे ध्यान की प्रक्रिया कह रहा हूं, वह जगाने जैसी है, ध्यान बेहोशी नहीं है। ध्यान पुरी जागरुकता से अप्रतिक्रिया में नोन रियक्सन में उतर जाना है। तब अगर जैसा है वैसा ही चलेगा। पक्षी गीत गायेंगे लोग चिल्लायेंगे, सड़क पर कोई गुजरेगा, आप सुनने जानने वाले साक्षी द्रष्टा रह जाते हैं।
जहां तक ध्यान का संबंध है, ध्यान करने से कामवासना निकल जाती है ऐसा नहीं है। ध्यान के प्रयोग से आपकी ऊर्जा और डायमेंशन में, और दिशा में गतिमान हो जाती है। ध्यान आपकी कामवासना को निकाल नहीं डालता। आप के पास तो शक्ति एक ही है- चाहे उसे काम में लगाइए अथवा ध्यान में। आपके पास ऊर्जा एक ही है, आप उसका कोई भी उपयोग करिए। क्रोध में करिए या क्षमा में! प्रेम में करिए या घृणा में! ऊर्जा एक ही है, और शक्ति के ही सब उपयोग हैं। ध्यान आपकी शक्ति को उर्घ्वगामी बना देता है। वह ऊपर के मार्ग पर यात्रा करने लगती है, उसके रास्ते बदल जाते हैं। जहां काम था, प्रेम उसका रास्ता हो जाता है। जहां क्रोध था वहां करुणा का प्रादुर्भाव होता है। अगर शक्ति नीचे की ओर जाती है, अधोगामी होती है, तो काम का रास्ता होता है! उर्घ्वगामी होती है तो प्रेम का रास्ता होता है!
ध्यान आपके कामवासना को समाप्त नहीं करता, सिर्फ रुपान्तरित करता है। आपका काम दिव्य हो जाता है! मीरा में भी काम है वह दिव्य हो गया। भगवान महावीर में वासना है लेकिन वह ब्रम्हचर्य हो गया। जीसस को भी काम है लेकिन वह प्रेम हो गया। काम को नष्ट नहीं करना है, जो नष्ट करेगा वह स्वयं नष्ट हो जायगा। क्योकि काम तो ऊर्जा है शक्ति है, हम उसका क्या उपयोग करें, यह सवाल है ? जैसे जैसे ध्यान में आपकी गति होगी, वैसे-वैसे काम में परिवर्तन होता चला जायगा।
मनिषियों द्वारा ध्यान करने की अनेक पद्धतियां बतायी गई हैं। कोई भी विधि को अपनाकर ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है। नियमित समय, निश्चित स्थान पर सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करने से धीरे-धीरे मन एकाग्र होने लगता है। एक लम्बी अवधि तक अभ्यास करने पर मन पर नियंत्रण कर पाना संभव हो जाता है।
ध्यान के प्रक्रिया के विषय में स्वामी विवेकानंद ने कहा है: सीधे बैठकर अपनी नाक की उपरी भाग पर दृष्टि रखो। तुम देखोगे कि उससे मन की स्थिरता में विशेष रुप से सहायता मिलती है। आंख के दो स्नायुओं को वश में लाने से प्रतिक्रिया के केन्द्र स्थल को काफी वश में लाया जा सकता है। अतः उससे इच्छाशक्ति भी बहुत अधीन हो जाती है।
विवेकानंद कहते हैं कि ध्यान के कुछ प्रकार कहे गये हैं। सोचो कि सिर के ऊपर एक कमल है- धर्म उसका मध्य भाग है, ज्ञान उसकी कान है, योगी की अष्टसिद्धियां उस कमल के आठ पंखुड़ियों के समान हैं, और वैराग्य उसके अन्दर की कर्णिका यानि बीजकोश है। जो योगी अष्टसिद्धियां आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसलिए अष्टसिद्धियों का बाहर के आठ दलों के रुप में, तथा अन्दर की वर्णिका का परवैराग्य अर्थात् अष्टसिद्धियां आने पर भी उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया गया है। इस कमल के अन्दर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान, अस्पर्श, अव्यक्य, किरणों से परिव्याप्त परमज्योति का चिन्तन करो! उस पर ध्यान करो!
एक दुसरा प्रकार यह है; सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भभासित हो रही है! उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रुप में चिंतन करो, फिर उस ज्योति के अन्दर एक और ज्योतिर्गमय आकाश की भावना करो। वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है – परमात्मा स्वरुप ईश्वर है! हृदय में उसका ध्यान करो, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
ज्ञानियों की मानें तो जब तक मन सचेतन अवस्था को प्राप्त ना हो जाय, अभ्यास बीच में छोड़ना नहीं है। क्योकि आंख बन्द करके बैठ जाना या मन को एकाग्र करना ही ध्यान नहीं है। ध्यान का वास्तविक उद्देश्य क्रियाओं से मुक्ति है, विचारों से मुक्ति है।
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पातंजल योगसूत्र के अनुसार ‘तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।’ अर्थात् जहां मन को लगाया जाय उसी में वृति का एकाकार चलना ध्यान है। ध्यान में इन्द्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने शुद्ध स्वरुप आत्मा में लीन होने लगता है। ध्यान के साधना से साधक की चेतना अपने उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लेता है। साधक अपने शुद्ध स्वरुप आत्मा के साथ ही जुड़ा रहता है। योगियों का ध्यान सुर्य के प्रकाश के समान होता है, जिसकी परिधि में ब्रम्हांड की हर वस्तु आ जाती है।
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स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यह चित्त अवस्था भेद से बहुत से रूप धारण करता है, जैसे- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है। इस अवस्था में मन मन की प्रवृति केवल सुख और दुख इन दो भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणात्मक है और इसमें मन की वृति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। विक्षिप्त अवस्था तभी होती है, जब मन अपने केन्द्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है। एकाग्र अवस्था तभी होती है, जब मन निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि की ओर ले जाता है।
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पवित्र गीता के माध्यम से स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है: मुझमें ही मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तुम मुझमें ही निवास करेगा, इस बात में कुछ भी संशय नहीं है।
मय्येव मन: आधस्त्व मति बुद्धि निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत उर्ध्वन संशय:।।
ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, यह योग का एक महत्वपूर्ण अंग है। ओशो कहते हैं कि ‘योग में व्यक्ति को स्वयं के ऊपर कार्य करना होता है। योग के पास ऐसे सद्गुगुरु हैं, जिन्होंने स्वयं के प्रयास से बुद्धत्व को पाया है-और उनके प्रकाश में कोई व्यक्ति स्वयं को कैसे उपलब्ध होना सीख सकता है।’ जब तक मनुष्य के जीवन में ध्यान न हो, वह जागरुक कैसे हो सकता है। विचारकों, दार्शनिकों के विचार कोई कथा कहानी नहीं होते। इन विचारों पर चिंतन करने पर ही इनकी सार्थकता समझ में आती है।
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जो मनुष्य जागरूक नहीं है, वह किसी के विचार को नहीं समझ सकता। और ना ही कोई विचार उसके हो सकते हैं, वैसे लोग कुछ भी सार्थक करने में समर्थ नहीं हो सकते। मनुष्य अगर चाह ले, तो अपने जीवन काल में सीमित साधनों से सुख प्राप्त कर सकता है। परन्तु इसके लिए मन में संतोष का भाव उत्पन्न करना होता है। ( संतोष क्या है ..! ) ध्यान का दीपक जलाना सीखना होता है।
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