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सोच को बदलो …

Change your mind

‘सोच को बदलो’ अर्थात् अपने मनोदशा को, अपने सोचने की दिशा को बदल डालो। Change your mind, अगर आपके जीवन में कुछ सही नहीं हो रहा है। change your way of thinking, क्योंकि बदलाव से ही परिस्थितियों को बदला जा सकता है। यह एक प्रेरक कथन है। ‘बदलो’ का आशय किसी वस्तु अथवा विषय के रूप अथवा स्थिति में बदलाव की क्रिया से है । और ‘सोच’ एक दशा है, यह मन की स्थिति है। सोचना अथवा विचार करना ‘सोच’ का क्रियात्मक रूप है। इस प्रकार ‘सोच को बदलो’ सोच की दिशा में बदलाव की क्रिया है। यह जो कथन है, विचारात्मक है, इसमें प्रयत्नशीलता एवम् प्रगतिशीलता की प्रेरणा निहित है।

यह जो सोचने की क्रिया है, way of thinking है, इसका क्रियान्वयन सही दिशा में होना जरूरी है। वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए सही सोच का होना जरूरी है। क्योंकि सोच की दशा ही किसी के लिए उन्नति अथवा अवनति का कारण होता है। जब जीवन में कुछ ठीक नहीं चल रहा हो, तो इस स्थिति में बदलाव की आवश्यकता होती है। परिस्थितियों में सुधार के लिए मनोदशा में सुधार जरूरी है। और जब तक बदलाव की क्रिया पूर्ण न हो, प्रयास करते रहना जरूरी है।

सोच का संबंध विचार से है, विचार मन का विषय है, और सोच की दशा मन की स्थिति पर निर्भर करता है। यह व्यक्ति विशेष की मानसिकता पर निर्भर करता है। कौन कैसी मानसिकता के साथ क्रियाशील रहता है, यह उस पर निर्भर करता है। सोच की दशा से ही सोचने की दिशा का निर्धारण होता है। फलस्वरूप जो व्यक्ति जैसा सोचता है, वह वैसा ही करता है, और वैसा ही बन जाता है। अतः उन्नत होने के लिए सोच को बदल कर सही दिशा में ले जाना जरूरी है। सोच की दिशा अगर गलत है, तो इसे मोड़ने की जरूरत होती है। यह जो कथन है, इस कथन में यही सीख निहित है।

अब प्रश्न है कि क्या सोच को बदलना सरल है? कितने लोग ऐसा कर पाते हैं? और अगर नहीं कर पाते तो क्यों नहीं कर पाते हैं? ऐसा इसलिए कि अक्सर लोग मन के वशीभूत होकर सोचते हैं। यह जो मन की दशा है, व्यक्ति के संस्कार के कारण निर्मित होता है। हरेक की मानसिकता उसके मन में निर्मित संस्कारों का ही प्रतिबिम्ब होता है। और ये जो संस्कार होते हैं, हरेक व्यक्ति में भिन्न भिन्न दृष्टिगत होते हैं।

कुछ संस्कार ऐसे होते हैं, जो व्यक्ति जन्म से लेकर आता है, जिसे जन्मजात लक्षण समझा जाता है। इनमें से कुछ नैसर्गिक होते हैं, और कुछ आनुवंशिक होते हैं। ये जो जन्मजात लक्षण होते हैं, इनमें गुण एवम् अवगुण दोनों ही निहित होते हैं। इनको परिवर्तित करना कठिन होता है। कुछ संस्कार ऐसे होते हैं जो जन्म के पश्चात निर्मित होते हैं। इन संस्कारों का निर्माण अपने स्वयं के प्रयासों से भी किया जा सकता है। समाज से, शिक्षा से, अनुभव से सीख लेकर इनमें सुधार भी किया जा सकता है। ‘सोच को बदलो’, इस कथन में यह सीख भी निहित है।

अब प्रश्न है कि सोच की दिशा कैसी होना चाहिए? इसका सरल उत्तर यही है कि वैसी जो चिंता, तनाव, दुख का कारक न हो, जो लाभकारी हो, सुखदायक हो। सोच की दशा और दिशा ऐसी होनी चाहिए, जो खुशहाली की ओर, उन्नति की ओर अग्रसर करे। हर किसी को केवल लाभ के लिए, सुख की प्राप्ति के लिए ही सोचना चाहिए। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अधिकांशतः लोग तो लाभ के लिए ही सोचते हैं, लेकिन हानि हो जाता है। सुख पाने में लगे रहते हैं, लेकिन दुख भोगना पड़ता है। तो क्या लोगों के सोचने की प्रवृत्ति ही गलत है?

सामान्यतः लोग मनोवांछित परिणाम की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। लेकिन मन की इच्छाओं की प्रकृति क्या है? किसे क्या पाना है? इसपर भी विचार जरूरी है। इच्छाओं का स्वरूप के अनुसार ही सोच की दिशाओं का निर्माण होता है। उसी के अनुरूप ही कर्म होते हैं, और परिणाम भी कर्म की प्रकृति के अनुरूप ही प्राप्त होता है। अतः सोच की दशा में गुणवत्ता का निहित होना महत्वपूर्ण है।

सावधानी जरूरी है …

सावधानी यानि सतर्कता जो खुद के देखभाल के लिए महत्वपूर्ण है। जीवन है तो गति है, जब तक मृत्यु नहीं होती जीवन चलायमान है। इस बीच खाना-पीना, सोना -जगना, चलना-फिरना, देखना-सुनना, सोचना और बोलना आदि क्रियाएं होती रहती है। जब तक जीवन है, सांसे चलती रहती हैं। और जब तक सांस है, मनुष्य शारीरिक एवम् मानसिक रूप से किसी न किसी विषय पर क्रियाशील रहता है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है, जन्म के साथ ही पारिवारिक बंधनों में बंध जाता है। जब बड़ा होता है तो पारिवारिक के साथ साथ सामाजिक दायित्वों के बोझ उसे उठाना पड़ता है। इसके लिए बुद्धि और कौशल का उपयोग कर कार्य करना पड़ता है। उसे छोटा हो या बड़ा, सरल हो या कठिन हर कार्य में सावधानी बरतने की जरूरत होती है।

यह जो सावधानी है, सोच पर ही निर्भर है। विभिन्न परिस्थितियों, दायित्वों के प्रति व्यक्ति की सोच की दशा महत्वपूर्ण है। उसी के अनुसार वह क्रियाशील होता है। सोच में जागरूकता का समावेश जरूरी है। जीवन में परिस्थितियां भी बदलती रहती हैं। इसलिए ‘सोच को बदलो’ एक प्रक्रिया है। प्रक्रिया इसलिए कि इसे बार बार क्रियान्वित करने की जरूरत हो सकती है। परिस्थितियों के अनुसार सोच में बदलाव की आवश्यकता होती है।

ज्ञानियों का भी कहना है कि सोच की जो दिशा हो, कुछ ऐसा हो, जो लाभदायक हो। सोचने की प्रवृत्ति ऐसी हो, जिससे किसी प्रकार का कोई हानि न हो। सोच की दिशा ऐसी होनी चाहिए, जो व्यक्ति को दुख की अवस्था से सुख की अवस्था की ओर अग्रसर कर दे। ऐसी सोच को धारण करने से व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है। जीवन में खुशहाली आ सकती है, जीवन सुखी हो सकता है। लेकिन इसके लिए मन की दशा को साधना जरूरी है।

परन्तु सामान्य मनुष्य के सोच में भिन्नता है। ज्ञानियों की बातें उसके समझ में आती नहीं। साधारण मनुष्य भी केवल लाभ के लिए ही सोचता है, सुख पाने के लिए ही क्रियाशील रहता है। लेकिन विडम्बना यह है कि लाभ अथवा सुख भोग का जो वास्तविक अर्थ है, उसके सोच में नहीं होता। सामान्य व्यक्ति की मन की इच्छा लालसा से परिपूर्ण होता है।

इस विषय पर योगी और भोगी की सोच की दिशा भिन्न है। जबकि ज्ञानियों की सोच मनुष्य मात्र के लाभ के लिए ही होता है। इसलिए ज्ञानियों की बातों पर ध्यान केंद्रित कर सोचना यथेष्ठ है। अगर बात समझ में आ गई, तो ‘सोच को बदलो’ के वास्तविक अर्थ को जीवन में चरितार्थ किया जा सकता है।

अनुभव महत्वपूर्ण है!

ज्ञानी कहते हैं, जो भी करो पुरे मन से करो। परन्तु पुरे मन से कोई काम होगा कैसे? जब तक किसी कार्य की प्रकृति की जानकारी न हो। जब तक किसी कार्य के संभावित प्रतिफल के विषय में कोई अनुभव न हो। ज्ञान महत्वपूर्ण है, और ज्ञान अनुभव से ही आता है। किसी वस्तु, विषय अथवा कार्य के विषय में अनुभव जरुरी है। ज्ञान महत्वपूर्ण है, ज्ञान का उपयोग कर जो कार्य होता है, पुरे मन से होता है।

उदाहरण के लिए दुध में पौष्टिकता है, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। लेकिन यह अनिष्टकारी भी हो सकता है ‌। दुध का सेवन किस मात्रा में किया जाए, लगातार सेवन किया जाए अथवा नहीं किया जाए। विना अनुभव के नहीं जाना जा सकता है। और अनुभव के लिए लिए दुध का सेवन करके देखना जरूरी है। अगर लाभ हो तो सेवन करते रहना है, और हानि हो तो परहेज। यह बात प्रत्येक वस्तु, विषय एवम् कार्य के संबंध में कहा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति एवम् रुचि भिन्न होती है। ठीक उसी प्रकार विभिन्न वस्तुओं के, कार्य- विचारों का असर भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न हो सकता है।

अतः अनुभव महत्वपूर्ण है। कही सुनी बातों से, पुस्तकों को पढ़ने से ज्ञान नहीं मिलता। अगर ऐसा हो पाता, जो इस सांसारिक जीवन में कोई तनाव नहीं होता, दुख नहीं होता । इसलिए ‘सोच को बदलो’ अर्थात् बदलाव जरूरी है, लेकिन अनुभव के पश्चात। अनुभव से सीखना जरूरी है, गलत का परित्याग और सही का चयन जरूरी है। जो अनुभवजनित ज्ञान से ही संभव हो सकता है। हां अनुभवी लोगों, जिनपर भरोसा हो, उनका साथ और परामर्श से भी सीखा जा सकता है। ज्ञानीजनों की बातों पर मंथन करने से भी मानसिकता में सुधार किया जा सकता है। क्योंकि ज्ञानियों की बातें अनुभवजनित होती हैं।

जो भी करो मन से करो। हमेशा यह ख्याल रहे कि कोई हानि न हो, न तन से, न धन से और न मन से।
Swami Tapeshwaranand (Lal Baba)

स्वामी जी के उपरोक्त वचन पर गहनता से विचार करें, तो इसमें आध्यात्मिक सुख की ओर इशारा किया गया है। यहां लाभ से आशय क्षणिक सुख से नहीं है, स्थायी सुख भोग से है।

सामान्य मनुष्य भोग में लिप्त रहता है। लेकिन भोग के साथ साथ योग भी जरूरी है। अगर नित्य कर्म में, दिनचर्या में प्रार्थना हो, ध्यान का समावेश हो, तो मन की चंचलता में कमी आती है। पूर्ण निष्ठा के साथ निरंतर और नियमित प्रार्थना करने से विचारों में नैतिकता का प्रादुर्भाव होने लगता है। सोच की दिशा में बदलाव होने लगता है। शारिरीक जरूरतों को, सामाजिक दायित्वों के लिए कार्य जरुरी है, तो आत्म सुधार के लिए भी प्रयत्नशील होना जरूरी है। आत्म सुधार के लिए सोचने से एवम् क्रियाशील होने से किसी की कोई हानि नहीं होती है। केवल लाभ ही होता है, तन से, मन से अथवा धन से, किसी प्रकार की हानि नहीं होती है।

सांसारिक भोग में अगर सुख मिल रहा है, तब तो ठीक है। इस संसार में जो भी उपलब्ध है, सब भोग के लिए है। अन्न, जल, वायु, धुप, छांव सब भोग के लिए है। लेकिन यहां मधुरस का प्याला भी है, और अमृत कलश भी है। अर्थात् भोग भी है, और योग भी है। भोग में रुकावट नहीं है, लेकिन भोग भी लाभ के लिए होना चाहिए, और पुरे मन से होना चाहिए। भोग कर देख लो, लाभ नहीं हो रहा है, सुख नहीं मिल रहा है, तो जहां सुख की स्थिति है, उस मनोभाव को खोजना जरूरी है। यह जो प्रवृत्ति है, सोच की ऐसी दशा है, जिसमें खोज की संभावना प्रबल होती है। यह दशा जागृत होती है, तो सोच की दिशा बदल जाती है। सही दिशा की ओर , जीवन भोग से योग ओर अग्रसर हो जाता है। यही इस कथन ‘सोच को बदलो’ का गहन अर्थ है। जिसने इसे समझ लिया उसका हर विचार, हर कार्य लाभ के लिए होगा।

इस बात से असहमत नहीं हुवा जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर उसके सोच का प्रभाव पड़ता है। लेकिन ‘सोच को बदलो’ को चरितार्थ करने के लिए भी सोच की जरूरत होती है। यह सोचने की जरूरत होती है कि व्यक्ति जो सोचता है, उसका उसपर क्या प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए यह जो तथ्य है, प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण है। अगर कोई यह सोचने में सक्षम हो कि उसके दुख का कारण उसका सोच ही है। और वह उस सोच पर सोचना शुरू कर दे। और फिर उस सोच को सही दिशा देने का प्रयास करे, तो वह सुख की ओर अग्रसर हो सकता है।

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