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स्वामी तपेश्वरानंद — Tribute to Swami Tapeshwaranand (Lal Baba)

अद्भुत किन्तु सरल थे स्वामी तपेश्वरानंद

स्वामी तपेश्वरानंद ने अपना सारा जीवन प्रार्थना और परोपकार में लगाया। मैने कभी उन्हें उदास नहीं देखा, कभी किसी पर आश्रित होते नहीं देखा। औरत-मर्द, जाति-धर्म में भेद करते नहीं देखा। कोई उनका सम्मान करे यह भाव उनके अन्दर उभरते नहीं देखा। हमेशा हर किसी के साथ हंसकर मिलते, बातें करते हुवे देखा। बाबा सबके साथ एक जैसा व्यवहार करते। जो भी उनके पास जाता, सबकी कोई ना कोई समस्यायें होती। वे सभी का सुनते और हर किसी के लिए प्रार्थना किया करते। बाबा वाकसिद्ध थे, अगर किसी को कुछ कह देते, सत्य हो जाता। परन्तु मैंने कभी उन्हें तपोबल से अर्जित ऊर्जा का प्रदर्शन करते नहीं देखा। वो चलते फिरते, बातों बातों में किसी का भला कर देते थे।

देव भूमि है आर्यावर्त! जिसे दुनिया भारतवर्ष के नाम से जानती है। ऐसा कोई काल नहीं जब यहाँ किसी न किसी रुप में महान आत्माओं का अवतरण न हुवा हो। स्वामी तपेश्वरानन्द भी उन्हीं में से एक हुए। अधिकांश लोग इन्हें लालबाबा के नाम से जानते हैं।

बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जनमानस को प्रकाशित करनेवाले इस उज्जवल ज्योति का उद्भव बनारस के एक संम्भ्रान्त परिवार के बीच हुवा। उनके पिता ने उनका नाम तापस रखा था। वे अपने माता-पिता के दुसरी संतान थे। तापस सान्याल का बचपन से जवानी तक का सफर भोलेनाथ की इस पावन नगरी की गलियों में तय हुवा। उनके पिता उस जमाने में दुरसंचार विभाग के दफ्तर में बाबू थे।

कसमार में है लाल बाबा आश्रम !

तत्कालीन बिहार (आज का झारखंड) के हजारीबाग प्रमंडल में बोकारो जिलांतर्गत कसमार ग्राम में एक छोटा सा मुहल्ला है, मोचरो। प्रकृति की लीला अद्भुत होती है, आज से करीब चालिस वर्ष पुर्व स्वामी तपेश्वरानन्द का आगमन इस गांव मे हुवा था। इन्होंने अपने कर्म स्थल के रूप में इस गांव को अपनाया और यहीं के होकर रह गये। धीरे धीरे क्षेत्र की जनता इन्हेंं लालबाबा के नाम से जानने लगी।

अगर प्राचीन मान्यताओं पर विश्वास किया जाय तो द्वापर युग में इस क्षेत्र में मह्रर्षि गर्ग का आगमन हुवा था। महाराज कंस के अत्याचारों से मुक्ति पाने हेतू ऊर्जा प्राप्त करने के उद्देश्य से उनके द्वारा एक महायज्ञ का आयोजन किया गया था और दुर्गतिनाशिनी माँ दुर्गा की आराधना की गई थी। इसी महान आयोजन के फलस्वरुप इस क्षेत्र का नाम कंसमार पड़ा। जो कालांतर में कसमार हो गया।

इस क्षेत्र को त्रेता युग से भी जोडकर देखा जाता है।। क्षेत्र में अवस्थित रामलखन पहाड़ी पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पदचिन्ह आज भी अंकित हैं।

इस क्षेत्र में तीन नदियों का उदगम् स्थल है। एक है पवित्र खांजो नदी जो उत्तरवाहिनी है। दुसरी है भगतबोहा और तीसरी नदी है गर्गगंगा जिसे गर्गा नदी भी कहा जाता है। वर्तमान में इस नदी के तट पर औद्योगिक नगरी बोकारो इस्पात नगर अवस्थित है। मान्यता है कि यह नदी महर्षि गर्ग के तपोबल से उत्पन्न हुवी है।

स्वामी-तपेश्वरानन्द

दिव्यात्मा स्वामी तपेश्वरानन्द का इस क्षेत्र में आगमन इस क्षेत्र की गरीमा को बढ़ा देता है। क्षेत्र में स्थित मोचरो ग्राम में इनके द्वारा माँ दक्षिणा काली की भव्य प्रतिमा की स्थापना की गयी है। दुर दराज से लोग दर्शन-पुजन के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ आने जाने वालों की मनोकामनाएं पुर्ण होती हैं। धन्य है वह क्षेत्र, जिसे महा ऋषि स्वामी तपेश्वरानन्द ने अपनी कर्मस्थली के रुप मे स्वीकार किया। श्रद्धेय लालबाबा के चरण कमलों में हम सभी श्रद्धालुओं की ओर से शत शत नमन ।

पिता-पुत्र के बीच के द्वन्द का एक रोचक दास्तान !

युवा तापस सांयाल जब स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, एक दिन उनकी इच्छा सिनेमा देखने को हुवी। उन्होने अपने पिता से चार आने मांगे.. फिर क्या था सैद्धान्तिक पिता का भाषण शुरु हो गया.. तुम्हे जो चाहिए बता दिया करो, फिल्म के लिये पैसे नहीं हैं, फिल्म देखने का इतना ही शौक है, तो चल मैं टिकट चेकर की नौकरी दिलवा देता हूँ… वगैरह वगैरह। आखिर ठहरा पिता का दिल… सुबह डांट पड़ी और शाम को उन्होने पुरे परिवार के लिये फिल्म की टिकट भेज दी, साथ में आने जाने के लिये चारपहिया वाहन। लेकिन तब तक बाबा के दिल में बात चुभ चूकी थी। उन्होने फिल्म नहीं देखी और ठान लिया, कि एक दिन मैं पैसे कमाऊँगा और इस चार आने का जबाब चालिस हजार से दुँगा। इसके बाद से वे उन्होंने अपने पिता से कभी कुछ नहीं मांगा।

स्नातक की पढ़ाई पुरी करने के बाद वे व्यवसाय में लग गये। रुपये इकट्ठे किए और एक दिन पिता के सामने टेबल पर रूपयों की पोटली रख दी। पिता ने उनकी ओर गौर से देखा और कहा; तुम इतने बड़े कब से हो गए! फिर माताजी को आवाज देकर माचिस की डिबिया मंगवायी, और रूपये की पोटली को जला डाला। यह बात खुद बाबा ने मुझे बताई थी।

यह पिता-पुत्र के स्वाभिमान का जंग था, जिसमें अन्ततः पुत्र की ही हार होनी थी। पिता-पुत्र के बीच आज भी द्वन्द चलता है, चलता रहेगा, लेकिन पहले के पिता के अनुशासन से निकले बच्चे इंसानियत की ओर अग्रसर होते थे। इस सन्दर्भ मे पुनः एक बार चर्चा चली, तो उन्होंने मुझसे कहा कि जीवन में सिर्फ एक बार उनके पिता उनको अपने बगल में बैठाकर उनके पीठ को थपथपाया था, जब वे संन्यास का दीक्षा लेने हेतू भीक्षा मांगने के लिए माता-पिता के पास गये थे।

एक आवारा मन कैद में कैसे रह सकता है

स्नातक की पढाई पुरी करने के बाद लालबाबा एक मेकानिकल कम्पनी में सुपरवाइजर के रुप में नौकरी करने लगे। कुछ ही दिनों में उन्होंने इस कार्य में निपुणता हासिल कर ली। सांसारिक जीवन में उनका दिल नहीं लग रहा था। दिन के भाग दौड़ के कारण वो खुद के लिए समय नही निकाल पाते। खुद से परिचय करने की उत्कंठा ने उन्हें व्याकुल कर दिया। आखिरकार एक दिन वो बिना किसी से कुछ कहे नौकरी छोड़कर चल दिए। दिन भर इधर-उधर भटकते और सारी रात गंगातट पर बिताने लगे। उनका कहना था- दिन है समाज का और रात अपने बाप का।

इसी बीच एक अलौकिक घटना घटी और उनके जीवन को दिशा दे गया। एक रात उन्होंने एक साये को पावन गंगा के धारा के ऊपर चलते हुवे देखा। जब साया चलकर किनारे पर आ गया और धरती पर चलने लगा तो वह उसके पीछे हो लिए। कुछ दुर चलने पर अचानक वो साया पीछे मुड़ता है, उन्हे अपने पीछे आने से मना करता है, लालबाबा जिद पर आ जाते है, फिर वो साया मान जाता है। ये अविश्वसनीय है, लेकिन ऐसा घटित हुवा यह भी सत्य है। वह साया और कोई नहीं एक सिद्ध योगी थे जो अपने योग बल से पानी के ऊपर चलते थे। यही महात्मा कालान्तर में लालबाबा के गुरू हुवे। उन्हीं के सानिध्य और कठिन प्रशिक्षण से लालबाबा को सिद्धि प्राप्त हुवी।

संत पुरुष को समझ पाना कठिन है !

संसार में दो तरह के लोग होते है, साधु और असाधु। साधु और असाधु को समझ पाना आसान है, क्योकि यह गणित भी हमारा है। हम अहंकार को जान जाते हैं और विनम्रता को भी पहचान जाते हैं। एक व्यक्ति जो स्त्री के पीछे भाग रहा होता है उसकी भावना भी समझ में आती है , वहीँ एक व्यक्ति स्त्री को देखकर उससे बचना चाहता है और मुँह घुमाकर दूसरी ओर निकल जाता है, उसका पलायन भी समझ में आता है । दोनों ही स्थिति में ब्रम्हचर्य का लोप है। लेकिन श्रीकृष्ण के ब्रम्हचर्य को समझ पाना कठिन है। संत पुरुष संसार से परे होते हैं, लालबाबा का जीवन भी साधारण की समझ स परे है।

स्वामी तपेश्वरानंद के इस विलक्षण जीवन में उनके साथ क्या क्या अलौकिक घटनायें घटी, इस सम्बंध में मेंरा कोई अनुभव नहीं है। उनके साथ बिताये कुछ अनुपम पलों की यादें, उन क्षणों में हुवे कुछ अविस्मरणीय वार्तालाप, उनकी साधारण सी जीवन शैली से प्रस्फुटित असाधारण घटनाओं का कुछ संस्मरण जो मेंरे दिलो-दिमाग में बसे हैं, मेरे लिए अमूल्य धरोहर हैं।

संयास एक निराला किस्म की आवारगी है

संयास ग्रहण करना और एक संयासी के रुप में पुर्णता को प्राप्त कर लेना बहुत ही मुश्किल है। यह कायरों का काम नहींं है, यह एक निराला किस्म की आवारगी है, साहस करो और निकल चलो अज्ञात में। यह एक ऐसा मार्ग है जहाँ से लौटने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। व्यक्ति की वो पहचान छिन जाती है, जिस पहचान के सहारे वह जी रहा होता है । इस मार्ग को चुननेवाला माँ-पिता, भाई-बन्धु, जाति-बिरादरी, मान-पहचान सब कुछ को पीछे छोड़कर चल पड़ता है।

अज्ञात की ओर साहस से भरे इस सफर को तय करने के लिए एक मसीहा की जरूरत पड़ती है। जिनका दामन थामकर अज्ञात का मार्गी मंजिल तक पहुँचने में सफल हो पाता है। जिनके कठिन प्रशिक्षण और कुशल मार्गदर्शन द्वारा यह सफर तय हो पाता है, भारतीय संस्कृति में इन्हें गुरु की संज्ञा दी गयी है। संन्यास के इस कठिनतम मार्ग पर कदम रखते ही सत्यार्थी को पूर्ण रूप से अपने गुरू को समर्पित कर देना पड़ता है, अगर वह ऐसा कर पाने में असमर्थ रहा तो मार्ग से भटक जाता है।

नये स्वरुप को पाने के लिए खुद को मिटाना पड़ता है!

एक सूफी बोध-कथा है। एक छोटी सी नदी सागर से मिलने को चली, नदी भाग रही है सागर से मिलने को लेकिन एक रेगिस्तान में भटक गयी। नदी बहुत घबरा गयी। नदी ने रोकर-चीखकर रेगिस्तान की रेत से पुछा कि क्या मैं सागर तक नहीं पहुंच पाऊंगी ? रेगिस्तान तो अनंत मालुम पड़ता है, चार कदम चलती हूं और रेत में मेंरा पानी खो जाता है, मेंरा जीवन सुख जाता है। मैं सागर तक पहुंच पाऊंगी या नहीं ?

छोटी नदी उत्साहित होकर निकल तो पड़ी सागर से मिलने, लेकिन उससे भुल हो गयी, वह खुद को मिटा नहीं पायी, उसने किसी ऐसी नदी का सहारा न लिया जो सागर से मिल चुकी हो। अलहड़, चंचल नदी अकेली चल पड़ी और भटक गयी।

नदी की बात को सुनकर रेत ने कहा, आजतक सागर से मिलने जो भी चला वो मिटे बिना नहीं मिल पाया है। और जिसने अपने को बचाने की कोशिश की है वह मरुस्थल में खो गया है। रेत ने कहा कि सागर तक पहुंचने का अब एक ही उपाय है, ऊपर देख उन हवाओं के बवंडर को जो जोर से उड़े चले जा रहे हैं। अगर तु भी हवाओं की तरह हो सके, तो सागर तक पहुंच जायगी। तु हवा की यात्रा पर निकल!

नदी ने रेत से कहा, तु पागल तो नही ? मै नदी हूँ, मैं आकाश में उड़ नहीं सकती! रेत ने कहा कि अगर तुम मिटने को राजी हो, तो आकाश में भी उड़ने के उपाय हैं। अगर तुम तप जाव तो तुम वाष्प बनकर हवाओं पर सवार हो सकती हो l हवाएं तेरी वाहन बनकर तुझे सागर तक पहुंचा देंगी। अगर नदी की तरह ही तुने सागर तक पहुंचने की कोशिश की तो रेगिस्तान बहुत बड़ा है, यह तुझे पी जायगा।

तपेश्वरानंद बनने के लिए तापस सान्याल को मिटना पड़ा!

स्वामी तपेश्वरानंद ऐसे ही तपे हुवे सन्यासियों में से एक हुवे। कठिन तपस्या के दौरान उन्हें दिन में सिर्फ एकबार भोजन ग्रहण करने की इजाजत थी। एकबार में मुट्ठी में जितना चावल आ जाय, मिट्टी के बर्तन में डालकर स्वयं पकाते और बिना नमक मिलाये खाना पड़ता था। घंटो तक एक ही आसन में बैठे रहना पड़ता।

गुरू के बताये प्रत्येक निर्देश का पालन पुरी तत्परता से करनी पड़ती थी। रात्री में तीन घंटे से अधिक सोने की इजाजत न थी। थोड़ी सी भी गलती हो जाने पर गुरूजी बेरहम हो जाते और डंडे से पिटाई करते। जौहरी पहले अशुद्ध सोने को आग में तपाकर शुद्ध स्वरुप में लाता है, तत्पश्चात मनमाफिक आकार देकर आभुषण तैयार करता है। इस बीच वह किसी की भी दखलांदाजी पसंद नहीं करता। गुरू भी जौहरी के समान होते हैं।

सनातन संस्कृति में गुरुदीक्षा का विधान है!

अपने सही स्वरूप में गुरुदीक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा गुरू शिष्य को गोद लेते हैं। तत्पश्चात शिष्य की जीवन नैया उनके हाथों आ जाती है। माता-पिता से भिक्षा ग्रहण करने का तात्पर्य है कि इस प्रक्रिया में माता-पिता पुत्र पर से अपना अधिकार खो देते हैं। यह माता-पिता द्वारा सत्कार्य हेतु पुत्र को दान कर देने की शास्त्र सम्मत क्रिया है। गुरु मन और शरीर को शुद्ध करने के पश्चात वास्तविक शिक्षा देना प्रारम्भ करते हैं। शिष्य को तत्वज्ञानी होने में एक लम्बा समय लग जाता है। अंतिम गुप्त ज्ञान देने से पूर्व गुरू द्वारा भिन्न भिन्न तरीके से शिष्य के धैर्य , संतोष , कामना , वासना की परीक्षा ली जाती है। यम-नियम को नहीं साध पाने वाले शिष्य की शिक्षा अधुरी रह जाती है।

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जो आनन्द से भर गया हो, वह अकेला नहीं रह सकता। लालबाबा गुरूदीक्षा के सही स्वरूप का अनुशरण कर गुरु के सानिध्य में रहकर तपस्या के वास्तविक और जटिल प्रक्रिया से गुजरते हुवे गुरूकृपा से अमृतज्ञान को पाने मे़ सफल हुवे और परमानंद को प्राप्त कर गये। उनके इस नवीन आनन्दमय छवि का नाम उनके गुरू ने तपेश्वरानन्द रखा। बुद्ध पुरुष आनंद की खोज मे जंगलो पहाड़ो की ओर चले जाते हैं। परम आनंद से साक्षात्कार होने के फलस्वरूप वे पुनः भीड़ की और लौट आते हैं। पुर्ण रुप से सिद्धी प्राप्त कर बाबा गुरू आज्ञा से उसी संसार में पुन: जनकल्याण के निमित लौट आये।

दुनिया अर्द्धज्ञानियों के ज्ञान से जला है!

लालबाबा जनमानस को अनुभव से सीखने की सलाह दिया करते ! एक दिन मैने जिज्ञासावश उनसे पुछा- बाबा आप किसी से कुछ कहते क्यों नहीं? किसी को कुछ समझाते क्यों नहीं? बाबा ने कहा- वो इसलिए कि आज तक मुझे सुनने वाला कोई मिला नहीं, सभी अपने मतलब से मिलते हैं, मकसद पुरा होते ही अपनी दुनिया मे खो जाते हैं। मेरे कहने का कोई तात्पर्य नहीं। मै अगर कुछ कह दुँ तो लोग उसका मतलब अपने अपने तरीके से निकालेंगे और फिर अनर्थ हो जायगा।जो भी सुनने वाले होते हैं, सभी के पास कान होते हैं, सभी के पास आँखें होती हैं। हममें से प्रत्येक के पास आँखें हैं, कान हैं, अगर हममें देखने, सुनने की समझ नही है तो फिर सब बेकार है। मेंरे द्वारा जो बन पड़ता है, लोगों के लिए करता हूँ, सभी को अपने अनुभव से सीखने दो।

बातों बातों में एक दिन मैने कहा- बाबा आपके करीब आने वालों की मनोकामनाएं पूर्ण होती है, आपके मानने वालो में कई धनाढ्य और प्रभावशाली लोग हैं। सांसद, विधायक, व्यवसायी सभी है, फिर सबों की सहायता से आप एक संस्था क्यों नहीं बना देते? बाबा कहते – जहाँ संस्था का निर्माण हुवा, कि कुटनीति आ जायेगी, लोग संस्था को अपने ढंग से चलाना शुरू कर देंगे। आज तक यही होता आया है।

स्वामी तपेश्वरानंद कहा करते थे कि शास्त्र कभी झुठ नहीं बोलते। मनीषियों ने अपने अनुभव से जगत के कल्याण हेतू इनकी रचना की है, परन्तु इनकी भी व्याख्याएं शुरू हो गयीं, तुम जिसे विकास कहते हो वास्तव में सभी विनाश की ओर जा रहे है। बालु से तेल निकाला जा सकता है। पत्थर को पिघलाया जा सकता है। परन्तु जो अर्धज्ञानी अहंकार से भरा होता है और उसे लगता है कि उसे सबकुछ पता है। एक बार भी जिसे यह आभास हो गया कि उसे सब कुछ पता है, उसे भटकने से कोई नहीं रोक सकता।

शायद यही कारण रहा होगा कि बूद्ध के पास कोई आता तो वे कहते-इसके पहले मैं कुछ कहूँ तू सूनने की कला सीख ले! जीससके पास कोई आता तो वो कहते तुम्हारे पास कान है तो सुन लो!

मन ही माया का निर्माण करता है

हम सभी ये जानते हैं कि सिनेमा घर में प्रोजेक्टर पीछे की ओर लगा होता है। सिनेमा देखते वक्त हम सभी की निगाहें पर्दे की तरफ होती हैं प्रोजेक्टर के तरफ नहीं और हकीकत में पर्दे पर कुछ नहीं होता है, धुप छाँव का खेल होता है। प्रोजेक्टर पीछे से किरणों का प्रक्षेपण करता है और पर्दा चित्र से भर जाता है, फिर हम वही देखते हैं जो खाली पर्दे पर उभरता है। संसारी मनुष्य का वासना एक प्रक्षेपक है, जो उसके मन पर प्रक्षेपण करती है। मन की क्षमता अद्भुत है, मन माया को निर्मित कर लेता है, फिर मनुष्य का हर कृत्य उसके मन के अनुसार होने लगता है। मन की महानतम क्षमता है माया का फैलाव और इसका कारण है वासना।

गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र का होता है!

मन जब उलझता मुझे स्वामी तपेश्वरानंद याद आते, फिर मैं पहुंच जाता उनके पास। बहुत दिनों से मेंरे मन में एक बात चल रही थी, बाबा से कहुँगा कि बाबा मुझे अपना शिष्य बना लो। एक दिन हिम्मत जुटाकर मैने ये बात कह दिया। सुनते ही बाबा की आँखे बन्द हो गयीं, उनकी दाढ़ी फैल गयी, चेहरे पर लालिमा छा गयी और करीब एक मिनट तक ध्यान के मुद्रा में आ गये। जब उनकी आंखे खुली उन्होंने मेरी तरफ देखा, उन्होंने मुझसे कहा- जनाब ये जग़ह आपके लिए नहीं है, आप जो चाहते हो वो मेरे पास नहीं है।

कान फूंक देने भर से कोई गुरु नहीं बन जाता। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र की तरह होता है, जिस दिन तुम्हें ये समझ में आ जाएगी, तुम्हे कहने की जरुरत भी नही पड़ेगी। उस वक्त मुझे उनकी यह बात समझ में नहीं आई थी और मन व्यथित हो गया था। ‌

स्वामी तपेश्वरानंद जीवन को सरल और सहज ढंग से लेने की बात करते। एक दिन मै अपनी ब्याकुलता को छुपाते हुवे कहा- बाबा कम से कम इतना तो बता दो, मुझे क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए। उस दिन उन्होने बहुत ही सरलता के साथ मुझे बताया-

जो भी करो मन से करो। तुम्हें क्या करना है, क्या नहीं ये मैं तुम्हे नही बता सकता। इस संसार में प्रत्येक पदार्थ भोग्य है, अच्छा-बुरा कुछ नही होता।

एक ही सूर्य का प्रकाश से सारी पृथ्वी पर उजाला होता है, हवा सभी जगह एक ही बहती है। वो तुम्ही हो जो अपनी विचारों का आवरण अपने चारो और फैलाये हुवे हो और चिल्लाते हो कि वातावरण ख़राब है।

तुम शराब पियो मैं नहीं रोकुँगा, वैश्यालय जाव मैं नहीं टोकुँगा, बस इतना ख्याल रखना कि तुम्हे हानि नहीं होनी चाहिए, न तन से, न मन से, न धन से। सौदागर बनो व्यवसायी नही! सौदागर कभी घाटे का सौदा नहीं करता!

दिन भर अपने परिवार के लिए, समाज के लिए सोचो। धनोत्पार्जन में, अन्य कर्त्तव्यों के पालन में समय को लगाव। रात में खुद के सम्बन्ध में चिंतन करो। प्रार्थना में लगो। स्वयं को जानने, समझने का प्रयत्न करते रहो। दिन समाज का होता है और रात अपने बाप का होता है।

स्वामी तपेश्वरानंद ने कहा है – यह संसार तुम्हारी वासना से पैदा हो रहा है, तुम वही कर रहे हो जो तुम चाहते हो। तुम्हारी इन्द्रियाँ तुम्हारी वासना के वश में है।

उसके घर देर है अंधेर नहीं !

स्वामी तपेश्वरानंद ने कहा है कि; हर हाल में, हर परिस्थिति में, मानव जीवन में प्रार्थना होनी चाहिए। एक दिन मैने उनसे पुछा; बाबा पुजा कैसे करनी चाहिए? माता से क्या कामना करूँ? बाबा कहते है- अपने इष्ट के तस्वीर के पास बैठ जाओ, तस्वीर ना हो दीपक जला लो, दीपक भी न मिले कोई बात नहीं, अपने इष्ट को याद कर उनसे बातें करो। जो भी भाषा आती हो उसी भाषा मेंं बात करो। अपने मन की परतों को, अपनी व्यथा को उनके समक्ष खोल कर रख दो। बोलना नहीं आता हो, रो तो सकते हो, रोवो, गिड़गिड़ाव। तुम जो मांगोगे तुम्हें वही मिलेगा, कम मिले ज्यादा मिले, मिलेगा अवश्य। जैसी तुम्हारी चाह होगी वैसी तुम्हारी राह होगी। परन्तु सद्विचार धारण कर पाने की ऊर्जा मांगो तो सब कुछ मिलेगा… मिलने में देर भले हो सकती है, तुम्हारे परीक्षा की घड़ी लम्बी हो सकती है, धैर्य रखना। मैं तो यही कहुंगा, मानवमात्र से यही कहूँगा- मांगो, पुरे ह्रदय से!

नरेंद्र अपने घरेलू समस्याओं से त्रस्त थे, परन्तु पूज्य रामकृष्ण परमहंस जी से कुछ कहते नहीं थे। रामकृष्ण जी उनके भाव को समझते तो थे ही लेकिन कुछ कहते नहीं थे। एक दिन नरेन ने ठान लिया कि आज मैं अपनी व्यथा अवश्य सुनाऊंगा। नरेन जैसे ही मुखातिब हुवे, रामकृष्ण तो अन्तर्यामी थे ही, भाव को ताड़ गये और कहा, जा नरेन तुम्हे जो मांगना है माँ से मांग ले। नरेन जब माँ की प्रतिमा के समझ जाते है, तो सब भुल जाते हैं और सदबुद्धि मांग बैठते है। उस वक्त नरेन धन दौलत जो भी मांगते मिल जाता परन्तु उन्होंने विवेक मांगा और स्वामी विवेकानंद हो गये।

एक महान पथिक, प्रेरणादायक व्यक्तित्व स्वामी तपेश्वरानन्द के सम्बंध में जितना भी लिखुं अप्रयाप्त होगा। मनुष्यता के सभी रूप, समस्त विन्यास की पावन धारा जिनके जीवन सरिता में प्रवाहित हो रहा हो, उनके संबंध मेंं कुछ भी लिखना सुरज को दिया दिखाने के समान है। बाबा के सदृश महापुरुषों का अवतरण जगत के कल्याण के निमित ही होता है।

दिव्यात्माओं का सुक्ष्म शरीर जगत में विद्यमान रहता है!

जानकारों का कहना है, कि बुद्ध पुरुषों का सुक्ष्म शरीर जगत में विद्यमान रहता है। इसे महसुस करने के लिए उनके ध्यान में उतरकर उनके सुक्ष्म शरीर को स्वयम् के भीतर धारण करना पड़ता है। परन्तु साधारण मन को इनकी अनुभूति नहीं हो पाती। हमारी मनोदशा ऐसी है कि जो भी हमारे समक्ष घटित होता है, हम उसी के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं। परिणाम स्वरुप हमें उन पावन स्वरुप का झलक मिलना तो दुर, हमें उन विलक्षण शक्तियों का आभास तक नहीं हो पाता। परमपुज्य स्वामी तपेश्वरानन्द का स्थुल स्वरुप आज हमारे समक्ष विद्यमान नहीं है। और दिव्य स्वरुप तक मेंरी पहुँच हो, इतनी क्षमता मुझमें नहीं। परन्तु श्रद्धेय स्वामी तपेश्वरानंद का सानिध्य प्राप्त होना मेंरे जीवन का सुखद पहलु है। ऐसा निश्नुचय ही मेंरे प्रारब्ध के कारण है। परम पूज्य स्वामी तपेश्वरानंद के पावन चरण कमलों में नतमस्तक होते हुवे सिर्फ और सिर्फ इतना कहुँगा…

मुझपर मेंरे वंशजो के सर पर आपका हाथ हो।
हे प्रभु अगले जनम भी आपका ही साथ हो ।

ॐ नमः श्री स्वामी तपेश्वरानंदाय नमः।।

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