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व्यथा – कारण और निवारण।

व्यथा एक ऐसा शब्द जो दुख के भाव को प्रगट करता है। यह मन के दुखी होने, पीड़ित होने का भाव है। किसी कारण से जब मन आहत होता है तो व्यथित हो जाता है। इस भाव के उपस्थित होने के अनेक कारण हो सकते हैं। इनमें से जो प्रमुख कारण है, वह है वांक्षित की प्राप्ति न होना। व्यक्ति जो चाहता है, उसे वह मिल नहीं पाता, तो उसका मन व्यथित हो जाता है।

अब प्रश्न है कि मनुष्य क्या चाहता है? इसका सटीक उत्तर तो दिया नहीं जा सकता। क्योंकि सबकी चाहतें भिन्न होती हैं अथवा हो सकती हैं। परन्तु सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि मनुष्य सुख चाहता है। तन से भी वह स्वस्थ यानि सुखी रहना चाहता है। और तन के पोषण के लिए हर जरूरी साधनों को भी प्राप्त करना चाहता है। इसके लिए वह प्रयत्न भी करता है। लेकिन प्रयत्न के द्वारा केवल सफल होना चाहता है। ना तो वह शारीरिक पीड़ा को और ना ही असफलता को सहजता से सहन कर पाता है।

अगर किसी कारण से शारीरिक पीड़ा अथवा अस्वस्थता से गुजरना पड़े तब भी मन व्यथित होता है। और शारीरिक सुख के लिए जो साधन की वह इच्छा करता है, नहीं मिलने पर वह दुखी हो जाता है। और अगर शारीरिक सुख के लिए वांछित चीजें उसे प्राप्त हो भी जाए, तब भी वह संतुष्ट नहीं हो पाता है। क्योंकि तन की जरुरतें तो पूरी हो सकती हैं, लेकिन मन की जरुरतें कभी पूरी नहीं होती। 

मन की चाहत और मन की व्यथा, दोनों ही मन के ही भाव हैं। या यूं कहें कि एक ही भाव के दो भिन्न रूप हैं। चाहत जब पूरी नहीं होती तो व्यथा में परिवर्तित हो जाती है। एक का होना ही दुसरे के होने का कारण है। अगर एक का अभाव हो, तो दुसरा भी उपस्थित नहीं होता। अर्थात् एक अगर मिट गया तो दुसरा भी मिट जाता है।

लेकिन क्या ऐसा हो पाता है? क्या मन की चाहतों को मिटाया जा सकता है? सामान्यतः यही कहा जा सकता है कि ऐसा हो नहीं पाता। ऐसा नहीं कि इसके लिए प्रयास नहीं किया जाता। मनुष्य इस स्थिति से निकलने का प्रयास करता रहता है। प्रत्येक मनुष्य सुखी होना चाहता है, प्रत्येक मनुष्य खुश रहना चाहता है। व्यथा, पीड़ा, दुख किसी को नहीं सुहाता। परन्तु यह जो सुख है, खुशी है, जिसकी चाहत हर किसी को है। यह कहां है? इसे विरले ही जान पाते हैं।  

होता यह है कि जिन चीजों में मनुष्य की रुचि होती है, वह इसे वहीं खोजता रहता है। लेकिन यह जो सुख है, उन चीजों में उसे मिलता नहीं है। वह जितना प्रयास करता है, उतना ही उलझता चला जाता है। वह सुख को बाहर के संसार में खोजता रहता है। और यह जो सुख है, उसके भीतर है। भीतर वह खोजता नहीं, यही कारण है कि सुख उसे मिलता नहीं। और सुख की चाह भी उसकी मिटती नहीं है। मन का भटकता रहता है, सुख की चाह में। क्योंकि इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुख को ही वह सुख समझता है। लेकिन इंद्रियों से प्राप्त सुख क्षणिक होता है, मन की व्यथा का कारण है।

आखिर यह जो सुख है, जिसकी खोज हर किसी को है। और जिन चीजों में इसकी खोज की जाती है। वहां वह मिलता क्यों नहीं है? यह बात समझने की है। बात ऐसी है कि जो चीज जहां है, उसे वहीं खोजना होता है। वहीं खोजने से वह मिलेगा भी। कहीं और खोजते रहें तो वह मिलेगा कैसे? वह तो वहां है ही नहीं। मृग खोजता है कस्तुरी को, उसे कस्तूरी की महक मिलती है। वह समझ बैठता है कि महक बाहर से आ रही है। बाहर झाड़ियों से, पौधों से, पौधे में लगे फूलों से।  उसे इस बात का आभास ही नहीं है कि कस्तुरी तो उसके भीतर है। उसी के अंग में, उसी के नाभी के भीतर छिपी हुई है। मनुष्य के साथ भी ऐसा ही है।

देह धरे का दंड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय।।
_संत कबीर 

दुख तो अवश्यंभावी है! तन है जो जरा भी है, और किसी न किसी कारण से शरीर चोटिल भी हो सकता है। और शरीर की हर जरुरतें पूरी हों यह भी जरूरी नहीं है। जहां तक बात इच्छा की है, तो इसका कोई अंत नहीं है। मन की इच्छाएं कभी मिटती नहीं, क्योंकि इच्छाएं कभी पूरी होती नहीं। किसी की भी सभी इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती। यही कारण है कि मनुष्य का मन अतृप्त हुवा रहता है। अगर कोई इच्छा पूरी होती है, तो तृप्ति अवश्य मिलती है, लेकिन कुछ समय के लिए। वास्तव में वह कभी तृप्त नहीं हो पाता। यही मनुष्य के मन की व्यथा का कारण है। 

जो जिज्ञासु होते हैं, जो दुख से निजात पाने के लिए सही मायने में प्रयत्नशील होते हैं। अंतत: उन्हें यह ज्ञात हो जाता है कि मन के मते चलकर मन को व्यथा से मुक्त नहीं किया जा सकता है। जरा और चोट से उनका भी शरीर मुक्त नहीं हो जाता। लेकिन उनका मन व्यथित नहीं होता। किसी भी प्रकार के पीड़ा को, असहज स्थिति को वे सहजता से सहन कर लेते हैं। व्यथा तो उन्हें होती है जो मनोगामी होते हैं। ऐसे लोग मन के स्वभाव के प्रति अज्ञानी होते हैं। और इस जीवन को ही कोसते रहते हैं।

अब प्रश्न है कि वह ज्ञान कहां है? वह ज्ञान जिसके प्राप्त होने से मन को व्यथा से मुक्त किया जा सकता है। क्या उस ज्ञान को खोजा जा सकता है? ज्ञानियों की मानें तो यह संभव प्रतीत होता है। ज्ञानीजनों ने इस अतृप्त मन को तृप्त करने की बात कही है। लेकिन साधारण मनुष्य ज्ञानियों की बातों को समझ ही नहीं पाता। साधारण मनुष्य बाहर के संसार में सुख को ढुंढता है, और ज्ञानी भीतर ढुंढने की बात करते हैं। 

वास्तव में सभी धर्मों का सार यही है। मनुष्य का जीवन व्यथा से कैसे हो! इस बात का उल्लेख भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से सभी धर्मों के ग्रन्थों में किया गया है। लेकिन साधारण मनुष्य के द्वारा तो धार्मिक क्रियाकलाप भी इन्द्रिय सुख को पाने के लिए ही किया जाता है। मन्नतें मांगी जाती हैं, चादरें चढ़ाई जाती हैं, उपासना, आराधना जो भी किया जाता है, उद्देश्य इन्द्रिय सुख तक सीमित हो जाता है। यही कारण है कि धार्मिक क्रियाकलाप भी आडंबर प्रतीत होता है। वास्तव धर्म को धारण करने का प्रयास नहीं किया जाता। जो समझ में ही नहीं आता हो उसे धारण भी कैसे किया जा सकता है? 

तन को योगी सब करै, मन को विरला कोय।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होय।।
_संत कबीर 

मन को व्यथा से मुक्त करने के लिए मन को समझने और समझाने की जरूरत है।और इसके लिए मन पर ही प्रयोग करना पड़ता है। सामान्यतः जो धार्मिक क्रियाकलाप देखने को मिलता है, वास्तव में भौतिक गतिविधियां हैं। ये सभी मन की चाहतों से ही प्रेरित होती हैं। मन से नहीं, यहां मन से कहने का तात्पर्य अंतर्मन से है। अगर यात्रा भीतर की हो, तो उपासना, आराधना सब सफल हो जाता है। कबीर ने कहा है कि  मन का योगी सब कुछ सहज में सिद्ध कर लेता है, लेकिन ऐसा विरले ही कर पाते हैं। 

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