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तटस्थ भाव का अर्थ

तटस्थ भाव का अर्थ क्या है ? इसकी व्याख्या करना सरल नहीं है। तटस्थता की सही व्याख्या तथस्थ होकर ही किया जा सकता है। क्योंकि इसका संबंध वास्तविकता से है, सत्य से है ,और सत्य अनुभव का चीज है।

सामान्य रुप में निष्पक्ष होने की अवस्था को तटस्थ भाव समझा जाता है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि किसी भी विषय-वस्तु पर चर्चा के दौरान लोग दो पक्षों में बंट जाते हैं।

सामान्य व्यक्ति जब वैचारिक द्वंद का सामना करता है तो वह निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होता। वह चीजों को सही ठंग से देख-समझ नहीं पाता। अगर देख भी ले तो कोई निर्णय नहीं ले पाता। क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि वह चीजों को बदल नहीं सकता और वह  उसकी उपेक्षा भी नहीं कर पाता। फलस्वरूप वह चीजों के प्रति उदासिन हो जाता है, विरक्त हो जाता है। और ऐसी किसी चर्चा से अलग हो जाने को ही वह तटस्थता समझ लेता है। 

सामान्य संदर्भ में तटस्थ ,निष्पक्ष , निरपेक्ष अथवा उदासिन आदि शब्द एक दुसरे के समानार्थी समझे जाते हैं। परन्तु गहन अर्थों में तटस्थ होना उदासिन होना अथवा निष्क्रियता नहीं है। 

एक प्रकार से किसी नदी, सागर, झील, तालाब आदि के किनारे अवस्थित भूभाग को तट समझा जाता है। जिस प्रकार नदी की धारा दो किनारों से टकराती है, मनुष्य के जीवन में भी ऐसी परिस्थियां उत्पन्न होती हैं कि वह विचारों के द्वंद से गुजरता है। अधिकांश को वास्तविकता का बोध ही नहीं होता ! वे या तो उन विचारों के जाल में उलझकर रह जाते हैं, या फिर उनमें से किसी एक तरह के विचारों से अपने आप को जोड़ लेते हैं।

एक सरिता अपने दोनों ओर तटों से घिरी होती है, परन्तु उसकी अविरल धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। और अंत में अपने लक्ष्य अथाह सागर में मिल जाती है। वह तटों से टकराती अवश्य है, लेकिन वहीं उलझकर नहीं रह जाती। वहीं एक तालाब, एक झील को देखिए, वह चारों ओर तटों से घिरा रहता है, उसमें कोई गति नहीं होती, जो भी उमड़-घुमड़ है एक परिधि के भीतर होती है। सामान्य व्यक्ति का मन तालाब की भांति है और तटस्थ भाव धारण करने वाला मन सरिता के समान होता है।

गहन अर्थों में तटस्थता का अर्थ निरपेक्ष होने से है। उदासिनता का संबंध हृदय से है, उदासिन ( natural) व्यक्ति को ना हीं प्रसंशा प्रिय लगती है और ना निंदा उसे सताती है। तटस्थता का आशय किसी विचार के पक्ष अथवा विपक्ष से भिन्न होना नहीं है। और ना ही इसका आशय दो पक्षों के मध्य में स्थित होना है। तटस्थ होने का अर्थ है स्वयं को वैचारिक द्वंद से परे वास्तविकता के करीब ले जाना। 

तटस्थ होने की क्रिया का आशय आत्मावलोकन करने से है। यह एक ऐसी साधना है जो व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है। जो सत्य है वही वास्तविक होता है, यह मन के ऊपरी तल में नहीं भीतर झांकने से दिखाई पड़ता है। अपने प्रयासों से जब व्यक्ति भीतर झांकना सीख जाता है। और उसे वास्तविकता का बोध होने लगता है, तो वह तटस्थ भाव को प्राप्त कर लेता है।

ओशो के शब्दों में ; “मनुष्य का मन चौबिस घंटे ही किसी न किसी भांति के विचारों के तंतुओं से घिरा रहता है। एक भीड़ भीतर चलती रहती है। कभी कभी उसका बोध हमें होता भी है। अधिकांशतः बोध भी नहीं होता! बहुत कम लोगों को ख्याल है कि उनके भीतर क्या हो रहा है। एक-दूसरे विचार से द्वंद करने वाले विचार भीतर एकत्रित हैं। इसी द्वंद में, इसी विचारों के अंतर संघर्ष में व्यक्ति के मन की सारी शक्ति क्षीण हो जाती है। और जिस मनुष्य के मन की शक्ति क्षीण हो जाती है, वह भीतर इतना निर्बल हो जाता है कि सत्य के खोज में उसकी गति संभव नहीं है। इससे पूर्व की कोई सत्य की खोज में अग्रसर हो, उसे मन के तल पर यह जो शक्ति का ह्रास हो रहा है, उस ह्रास से छुटकारा, उस शक्ति का संचय, मन में द्वंद से मुक्ति आवश्यक है।”

विक्षिप्तता और विमुक्ति !

तटस्थता चीजों के मूल स्वरूप को दिखाने वाली एक विधा है, इसकी साधना से विचार और व्यवहार में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। ओशो के अनुसार मनुष्य का मन की दो अवस्थाएं होती हैं, एक विक्षिप्तता और दुसरा विमुक्ति। 

ओशो ने समझाया है कि “अगर विचारों का तनाव और विचारों का भार बढ़ता चला जाय तो हम विक्षिप्त होने की ओर बढ़ते चले जाते हैं। अगर विचारों का तनाव और भार क्षीण होता जाय, चित शांत और मौन हो जाय और एक ऐसी स्थिति में पहूंच जाय, जहां कोई विचार का कंपन्न नहीं हो तो हम विमुक्त होने के करीब पहूंच जाते हैं। दो विंदु हैं मनुष्य के चित के विमुक्ति और विक्षिप्तता! सामान्यतः हम जो भी जीवन में करते हैं उससे हम विक्षिप्त होने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। धर्म, साधना दुसरी दिशा में ले जाने का आग्रह करती है और आमंत्रण देती है।”

जब एक चिंतनशील व्यक्ति विचार और व्यवहार के स्तर पर एकरूपता नहीं देखता, दोनों के बीच के अंतराल को पाटने का प्रयत्न करता है। विचार और व्यवहार के स्तर पर जो दुरी है जिसके कारण व्यक्ति किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता, यह द्वंदात्मक स्थिति ही तटस्थ भाव की उत्पति होती है।

चिंता नहीं चिंतन करो ..!

चिंतनशील व्यक्ति जब स्वंय के भीतर झांकता है तो उसे चीजें स्पष्ट दिखने लगती हैं। इस स्थिति में वह वैचारिक और व्यवहारिक स्तर पर संतुलन बनाए रखने में समर्थ हो जाता है। जो व्यक्ति परिस्थिति जनित भावनाओं को नियंत्रित करने में समर्थ हो जाता है, वह तटस्थ रह सकता है। इस अवस्था में व्यक्ति की सांसारिक छवि जो स्वयं उसी के द्वारा निर्मित होती है, टुटने लगती है। 

किसी क्षण केवल जीकर देखो! केवल जीओ – जीवन से लड़ो मत, छीना-झपटी मत करो। चुप होकर देखो , क्या होता है! जो होता है , उसे होने दो! ‘जो है’ उसे होने दो , अपनी तरफ से तनाव छोड़ दो और जीवन को बहने दो। जीवन को घटित होने दो और जो घटित होगा! मैं विश्वास दिलाता हूं – वह मुक्त कर देता है ..!

ओशो

तटस्थ भाव धारण करने वाला व्यक्ति कल्पनाशील होता हैं, वह दुर की सोचता है। वह नये मूल्य, नये आदर्श की स्थापना करता है। तटस्थ भाव कुछ ऐसे विचारों को प्रगट करता है जो समस्त संसार के हित में होता है। सामान्य अर्थों में तटस्थता निष्क्रिय होने का भाव है और गहन अर्थों में यह मुक्त होने का भाव है। सामान्य अर्थों में यह नकारात्मक समझा जाता है, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में उदासिनता एक सकारात्मक भाव है। हम चीजों को किस तरह देखते हैं , यह हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

2 thoughts on “तटस्थ भाव का अर्थ”

  1. HARI GOPAL DASONDHI

    Your Articles are very useful to us sir.
    Today I came to know about the real meaning of NEUTRAL.( TATASTH)

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