‘कागज की कश्ती‘ अर्थात् कागज से बना नाव अथवा नाव जैसी आकृति। एक खिलौना, जिससे बच्चे खेलते हैं। एक व्यस्क मन के लिए बेकार की चीज, परन्तु एक बालक के लिए यह मनोरंजन की वस्तु है। एक बालक के मन को गौर से देखें, तो उसकी निर्मलता, निश्छलता अवश्य दिखायी देखी। एक बालक को तितलियों के पीछे दौड़ने में, बालु के घरौंदे बनाने में मजा आता है। उसे बारिश के दिनों में कागज की कश्ती बनाने में और उसे पानी में छोड़ने में आनंद आता है। न कोई चिंता ना भय, बेपरवाह बचपन की अवस्था में बस मस्ती ही मस्ती होती है।
बचपन के उम्र को तो उन सभी ने जीया है, जो आज व्यस्क हैं। परन्तु क्या आपने इस बात पर कभी विचार किया है कि एक बालक का मन मस्ती से क्यों भरा होता है? क्या कभी आप बालपन की मस्ती को स्मरण में लाते हैं ? अगर नहीं तो बच्चों का इस प्रकार मजे लेना व्यस्कों को क्यों नहीं सुहाता ? बचपन की कौतुक की वस्तुएं व्यस्क होते ही बेमतलब क्यों हो जाती हैं?
कारण स्पष्ट है; व्यस्कों का मस्तिष्क तो विचारों से भर जाता है, अहंकार से भरा होता है। सांसारिकता में उलझे उनके मन में बचपन के ख्याल ओझल हो जाते हैं । और वे अपने बच्चों को भी अपने अनुसार बनाने में लग जाते हैं।
मनुष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुवा है। जहां तक नजर जाती है, विचार से भरे लोग दिखाई पड़ते हैं। ह्दय से भरे लोग विरले ही दिखाई पड़ते हैं। विचार से भरे लोग खुद को ही नहीं समझ पाते। उनके भीतर चेतना का विकास नहीं हो पाता। फिर वे किसी और को समझने का सोच भी कैसे सकते हैं?
बच्चे मन के सच्चे : children true to mind !
बच्चों के भीतर आकांक्षाओं का कोई जाल नहीं होता! उसके मन में विचारों का कोई उपद्रव नहीं होता। जैसे-तैसे कोई बालक बड़ा होता है, उसका बचपन उससे दुर होता जाता है। धीरे-धीरे उसके भीतर विचारों की भीड़ इकट्ठी होती चली जाती है। और गौरतलब यह है कि ये जो विचार हैं जो उसके अंदर चल रहे होते हैं, उसके भीतर डाल दिए जाते हैं। उसके अंदर जो संस्कार उभरकर आते हैं, परिवार और समाज के माध्यम से, शिक्षा के माध्यम से निर्मित होते हैं।
विचारों के द्वद में उलझा हुआ व्यक्ति भौतिक सुखों को प्राप्त करने के बाद भी सुखी नहीं हो पाता। अन्ततः वह इस स्थिति से बाहर होना चाहता है। इसी क्रम में कभी उसके मन बचपन की धुमिल यादें उभर आती हैं। और उसे याद कर कुछ पल के लिए खुद को बहलाने का प्रयत्न करता है। कुछ पल के लिए ही सही, पर ऐसा अधिकांश के साथ होता है।
सीधे सहज शब्दों में गहरी बात कहने का हुनर कुछ लोगों में होता है। सुदर्शन फाकिर एक ऐसे ही शायर हुवे। फाकिर ने अपनी शायरी में जिंदगी के अनेक पहलुओं को छुवा है। उन्होंने एक व्यस्क के मन की तड़प और बचपन के खुबसुरत पलों का क्या खुब वर्णन किया है:
ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
अगर छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी
कड़ी धुप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना
वो गुड़िया की शादी में लड़ना झगड़ना
वो झुलों से गिरना वो गिरके संभलना
वो पीतल के छल्लों के प्यारे से तोहफे
वो टुटे हुवे चूड़ियों की निशानी
कभी रेत के ऊंचे टीले पे जाना
घरौंदे बनाना बनाकर मिटाना
वो मासुम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख्वाबों खिलौनो कि जागिर अपनी
न दुनिया का गम था ना रिश्तों का बंधन
बड़ी खुबसुरत थी ये जिंदगानी
वो कागज की कश्ती वो बारिश की पानी ..!
बच्चों के नैसर्गिक प्रतिभा को विकसित होने दें !
अगर बच्चों के स्वभाव का निरीक्षण कर और उनकी प्रतिभा को पहचान कर, उनको पोषित किया जाय। उनके शुद्ध स्वभाव के अनुरूप उनके चेतना को जगाने का प्रयास हो, तो समग्र मनुष्य जगत को विकसित किया जा सकता है।
ओशो के शब्दों में; “प्रत्येक बच्चा सुन्दर मालुम होता है। उसकी आंखों में एक दमक मालूम होती है। उसके चेहरे पर एक चमक मालूम होती है। धीरे-धीरे दमक खो जाती है, चमक खो जाती है, सौन्दर्य भी खो जाता है।
छोटे बच्चों को अगर तुम गौर से निरीक्षण करो तो तुम उनमें एक स्पष्ट प्रतिभा पावोगे, एक सुझ-बुझ पावोगे। लेकिन हम इस मौलिकता को मार डालते हैं। हम इस मौलिकता को सहारा नहीं देते, हम उसकी हत्या कर देते हैं। अगर इस मौलिकता को सहारा मिले तो इस दुनिया में इतना सौंदर्य हो सकता है, इतने अद्भुत व्यक्ति हो सकते हैं… और प्रत्येक व्तक्ति के फूल अलग-अलग होंगे। परन्तु हम सबको तोड़-मरोड़ कर, यन्त्रवत, एक जैसा बना देते हैं। हमारी पुरी फिक्र इस बात की है कि किस तरह हम सबको एक सांचे में ढाल दे़।
छोटे बच्चों को अगर मौका मिले..! उन्हें हम मौका ही नहीं देते। हम उन्हें डांट-डपट कर रखते हैं अवसर ही नहीं देते, नहीं तो तुम पावोगे कि उनके पास से ताजगी और उनके पास से मौलिक सुध-बुझ, दृष्टि ..! और हम उनको सहारा दें, तो हम उनकी दृष्टि को निखार सकते हैं, उसे बलवान बना सकते हैं।”
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं !
अमेरिका में एक चर्चित विचारक हुवे थे, दुनियां जिन्हें खलील जिब्रान के नाम से जानती है। उन्होंने अपना सारा जीवन साहित्य और कला में लगा दिया। प्रत्येक बच्चे को उसके स्वाभाव के अनुसार, उसके प्रतिभा के अनुसार बढ़ने देना चाहिए। प्रस्तुत रचना में उन्होंने इसी बात पर इशारा किया है।
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं
वह तो जीवन की अपनी आकांक्षाओं के बेटे बेटियां हैं
वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं
वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं
तुम उन्हें प्यार दे सकते हो, लेकिन सोच नहीं
क्योंकि उनकी सोच अपनी होती है
तुम उनके शरीर को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएं आने वाले कल के घरों में रहती हैं
जहां तुम नहीं जा सकते सपनों में भी नहीं
तुम उनके जैसा बनने का कोशिश कर सकते हो
पर उन्हें अपने जैसा नहीं बना सकते
क्योकि जिन्दगी पीछे नहीं जाती न हीं बीते कल से मिलती है
तुम वह कमान हो जिससे तुम्हारे बच्चे
जीवित हीरों के तरह निकलते हैं
तीर चलाने वाला निशाना साधता है एक असिमित राह पर
और अपनी शक्ति से तुम्हें जहां चाहे उधर मोड़ देता है
ताकि उसका तीर तेजी से दुर जाए
स्वयं को उस तीरंदाज की मर्जी पर मुड़ने दो
क्योंकि वह उड़नेवाले तीर से प्यार करता है
और स्थिर कमान को भी चाहता है
यह बिडम्बना नहीं तो और क्या है? कभी जिस कागज की कश्ती से हम खुद खेलते थे, बच्चों को ऐसा करने से हम रोक देते हैं। उनकी स्वाभाविक प्रकृति के साथ विचारों से भरा हमारा मस्तिष्क खेल जाता है। इसके विपरीत अगर हम उन्हें समझने का प्रयत्न करें। उन्हें उनके प्रकृति के अनुसार, उनके प्रतिभा के अनुसार विकसित होने में मदद करें, तो उनका व्यस्क जीवन सुखमय हो सकता है।