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श्रद्धा का अर्थ और महत्व — Meaning and Importance of Faith

श्रद्धा क्या है..? यह एक विचारणीय प्रश्न है! यह एक प्रकार का मनोभाव है। और मनोवृत्तियों की व्याखया करना सहज तो नहीं है। फिर भी शब्द है तो अर्थ भी होगा ही। अध्ययन के आधार पर इस शब्द की मीमांसा तो किया ही जा सकता है। ‘श्रत्’ एवम् ‘धा’ का योग है श्रद्धा। श्रत् अर्थात् सत्य एवम् धा से आशय है धारण करना। इस प्रकार श्रद्धा का अर्थ मन में सत्भाव को धारण करने से है।

किसी के प्रति मन में आस्था, विश्वास, आदर, स्नेह आदि भावों का उत्कृष्ट रुप में होना श्रद्धा समझा जाता है। श्रेष्ठता, उत्कृष्टता के प्रति अटुट आस्था को श्रद्धा कहा जाता है। आस्था, निष्ठा, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति सभी मन की ही वृतियां हैं। सभी एक दुसरे के परिवर्तित रुप हैं। 

श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार: श्रद्धा अंतस के अंधकार को दूर करनेवाली दिव्य ज्योति है।

पाश्चात्य मनीषी खलील जिब्रान के अनुसार: श्रद्धा हमारे हृदय में समाहित वह ज्ञान है कि जो प्रमाणों की पहुंच से परे है।

मार्टिन लूथर ने कहा है कि श्रद्धा ईश्वर की कृपा में एक सप्राण, साहसिक विश्वास है, जो इतना सटीक है कि एक व्यक्ति इसपर हजार बार अपना जीवन न्योछावर कर सकता है।

हेनरी डेविड थोरो ने कहा है कि श्रद्धा का क्षुद्रतम बीज सुख के सर्वाधिक विशाल फल से भी अधिक उत्तम है।

फोर्ब्स के अनुसार जिसमें श्रद्धा है, उसमें साहस, आशा, विश्वास, शांति और विश्वास को दिलानेवाली आस्था का आंतरिक भंडार है।

ओशो के अनुसार श्रद्धा अगर अटुट हो तो यह समर्पण का रुप ले लेता है। समर्पण का मतलब ही है, अटुट श्रद्धा। 

श्रद्धा के रूप अनेक हैं! जैसै कर्म के प्रति श्रद्धा, इष्ट के प्रति श्रद्धा, गुरु के प्रति श्रद्धा। जहां तक बात गुरु के प्रति श्रद्धा की है, और अगर यह अटुट है तो यह गुरु के प्रति समर्पण है। समर्पण का जो भाव है, खुद को मिटा देने का भाव है। यहां खुद को मिटाने से तात्पर्य है अहंकार को मिटा देना। और जिसने भी इस अवस्था को पा लिया, वह समर्पित हो गया। यह जो अवस्था है, पूर्ण समर्पण की अवस्था है, यानि यही प्रेम की अवस्था है। गुरु के प्रति, इष्ट के प्रति प्रेम की अवस्था को संत कबीर ने इस तरह व्यक्त किया है –

जब मैं था तो हरि नहीं अब हरि है मैं नाही।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो ना समाही।।

कबीर के कहने का तात्पर्य हैं कि जब तक मन में अहंकार का भाव होता है,  तब तक प्रभु की अनुभूति न हो सकती। परम की अनुभूति के लिए अहम् का विसर्जन अनिवार्य है। प्रेम में द्वेत भाव का अभाव होता है। यह जो प्रेम की गली है, बहुत ही पतली है, इसमें केवल एक ही समा सकता है। 

अगर गुरु के प्रति आपके मन में आस्था का भाव है। और इस भाव को आप व्यवहार में लाने में समर्थ हो गये हैं। तो समझ लो आपके मन में उनके प्रति श्रद्धा है। और यह श्रद्धाभाव अगर लम्बे समय से आपके मन में विराजमान हैं तो समझो आप समर्पण की स्थिति की ओर अग्रसर हैं। विना माथा-पच्ची किए थोड़ा सा और प्रयास आपको उतम अवस्था में पहूंचा सकता है। 

श्रद्धा व्यक्ति के जीवन के हर पहलू पर गहरा असर डालती है। श्रद्धा से अर्जित शक्ति का जीवन में विलक्षण प्रभाव पड़ता है। यह जो मनोभाव है, इसमें प्रबल विश्वास का समावेश होता है। अंधविश्वास को हम श्रद्धा का नाम नहीं दे सकते। जब अंधविश्वास का बादल छंटता है, तब श्रद्धा का अभ्युदय होता है। संशयात्मक बुद्धि से कोई उत्तमता को प्राप्त नहीं कर सकता।

गुरु की सत्ता का, उनके शक्ति का, उनके मौजूदगी का अनुभूति करना है, तो अहम् का परित्याग करना ही होगा। जब तक मन में अहम् भाव की मौजूदगी है, आराध्य की अनुभूति असंभव है।

ओशो कहते हैं कि सत्य को सभी बुद्ध पुरुषों ने अपने अंदर ही पाया है। फिर कहीं बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों दिया गया है। समर्पण तो बाहर होता ही नहीं, समर्पण भीतर ही घटता है। समझो कि तुम किसी के प्रेम में पड़ गये तो प्रेमी तो बाहर ही होता है। 

अब प्रश्न है कि अगर समर्पण भीतर घटित होता है तो किसी और के प्रति, यानि बाहर समर्पण क्यों करें? इस प्रश्न का समाधान भी उन्होंने किया है। ओशो कहते हैं कि प्रेम तो भीतर की घटना है! यह तो हृदय में जलता है। प्रेमी अगर मर भी जाए तो प्रेम जारी रहता है। प्रेमी की राख भी न बचे तो प्रेम गूंजता रहेगा। धड़कन धड़कन में, श्वास श्वास में बहता रहेगा। यह घटना बाहर की नहीं है।

समर्पण का पात्र तो बाहर होता है। गुरु बाहर होता है, परन्तु समर्पण तो भीतर होता है। और गुरू भी तब तक बाहर दिखाई पड़ता है, जब तक हमने समर्पण नहीं किया। जिस दिन तुमने समर्पण किया, गुरु भी भीतर है। जब तक शिष्य समर्पित नहीं है, तब तक गुरु बाहर है।

नानक ने शिष्य को सिख कहा है, सिख शिष्य का अपभ्रंश है। जब तुम्हारे अंदर शिष्यत्व का भाव उभरता है, तब कोई तुम्हारे लिए गुरु होता है। समर्पण का अर्थ है विना शर्त आस्था! तुम केवल समर्पण की चिंता करो! अगर समर्पण कर सकते हो तो मैं कहता हूं कि तुम पत्थर के प्रति भी समर्पण कर दो तो भी क्रान्ति घटेगी।

सामान्यतः श्रेष्ठता के प्रति अखंड आस्था को श्रद्धा कहा जाता है। आस्था वह त्तत्व है, जिसके होने से मन में विश्वास जगता है। आस्था जब सिद्धांत से व्यवहार में परिवर्तित हो जाती है तो निष्ठा कहलाती है। जब निष्ठा जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए भक्ति के सीमा में आती है तो श्रद्धा में परिवर्तित हो जाती है। ज्ञानियों का कहना है कि श्रद्धा वह गुण है जो व्यक्ति के उत्तम विचारों और उत्कृष्ट विशेषताओं के आधार पर उसे श्रेष्ठ बनाता है। कर्म हो, ज्ञान हो, उपासना हो अथवा भक्ति, सबके मूल में जो त्तत्व है वो श्रद्धा ही है।

श्रद्धा से संगठन और संगठन से विकास !

ज्ञानीजन कहते हैं कि आस्था जब व्यवहार में बदल जाती है तो वह निष्ठा है। तो क्या हमारी निष्ठा में केवल खुद का स्वार्थ निहित है? आस्था अगर अखंड हो और भक्ति के सीमा में प्रवेश कर गया हो तभी वह वास्तव में श्रद्धा है। जिस आस्था में केवल अपना हित साधने की मंशा हो, शुद्ध स्वरूप में हम उसे श्रद्धा नहीं कह सकते। श्रद्धा के स्वरुप को विकसित करने के लिए इष्ट के संस्मरण को, छवि को मन में धारण करना होता है। उनके विचारों के अनुसार चलने का प्रयास करना होता है। अपने अहंकार को, अपनी लालसाओं को मिटाना पड़ता है। तब जाकर उनकी वास्तविक अनुभूति हम कर सकते हैं। 

श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि सबकी श्रद्धा अपने स्वभाव का अनुसरण करती है। मनुष्य में कुछ न कुछ तो श्रद्धा होती ही है! जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही होता है।

श्रद्धा सबके भीतर मौजूद है, हमारी जीवनशैली कुछ ऐसी हो गयी है कि इस गुण को विकसित करने का प्रयास नहीं हो पाता है। परन्तु हम सबमें मौजूद श्रद्धा जो भिन्न भिन्न रुपों में हमारे भीतर अवस्थित है। इसे गुच्छे में सहेजने का प्रयास हो तो गुरु के प्रति सामूहिक श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है।

भक्ति रसामृत सिंधु‘ में लिखा गया है कि श्रद्धा से सत्संग, पारस्परिक स्नेह, सदभाव, आदर और सहयोग के संवर्धन के साथ साथ सामाजिक संबंधों में विखराव पर नियंत्रण एवम् एकत्व की भावना में वृद्धि होती है। 

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो पारस्परिक स्नेह, सदभाव, सहयोग और एकत्व की भावना अगर हो तो एक आदर्श समूह अथवा संगठन का निर्माण किया जा सकता है। एक ही गुरुसत्ता पर श्रद्धा रखने वाले लोगों द्वारा श्रद्धा के भिन्न-भिन्न सुमन को इकट्ठा कर सामूहिक श्रद्धारूपी गुलदस्ता तैयार किया जा सकता है।

इसके भी कई रुप हो सकते हैं। मंदिर, मठ, विद्यालय, चिकित्सालय, अनाथालय आदि के निर्माण से लेकर गुरु के ज्ञान के प्रकाश को जन जन तक पहुंचाना भी इसका उद्देश्य हो सकता है। श्रद्धा से जिस संगठन का निर्माण होता है, वह संगठन व्यक्ति एवम् समाज दोनों के हित में विकासशील कदम उठाने में सक्षम हो जाता है। 

संसार में इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। रामकृष्ण मिशन इनमें से एक है। रामकृष्ण मिशन की स्थापना परमपूज्य रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद ने उनके अन्य शिष्यों के सहयोग से किया था। आज के समय में इस महान संगठन के क्रियाकलापों के विषय में हम सभी भिज्ञ हैं। यह संगठन परमपूज्य के प्रति उनके आदर्श शिष्यों में अवस्थित श्रद्धा का ही परिणाम है। स्वामी विवेकानंद ने कहा भी है कि यदि सही होने और सही करने का पुरे तन-मन से प्रयास हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। 

स्वामी तपेश्वरानंद – Swami Tapeshwaranand : biography

ॐ नमः श्री स्वामी तपेश्वरानंदाय नमः ।।

2 thoughts on “श्रद्धा का अर्थ और महत्व — Meaning and Importance of Faith”

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