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विनम्रता पर विचार

विनम्रता का अर्थ !

विनम्रता नम होने का भाव है। यह मन में धारण करने योग्य एक बहुमूल्य संपदा है। विनम्रता वह गुण है, जो  हमारे मष्तिष्क को जीवन में होने वाले सभी तरह के बदलाव के लिए तैयार करता है। वास्तव में यह सुख का आधार है। योग्य व्यक्ति भी अगर विनम्र न हो तो उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। विनम्र व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में द्वंद का सामना नहीं के बराबर करना पड़ता है। विनम्रता व्यक्ति के मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि करता है। योग्य व्यक्ति भी अगर अहंकारी हो तो वह उन्नतिशील नहीं हो सकता। 

किसी भी महान व्यक्ति की महानता में उसकी विनम्रता निहित है। एक दृष्टांत के अनुसार एक पके हुवे फल की तीन पहचान होती है। वह कोमल होता है , मीठा होता है और उसके रंग में भी पूर्व की स्थिति से बदलाव हो जाता है। उसी प्रकार एक बुद्धिमान, परिपक्व व्यक्ति की भी तीन पहचान होती है। वह नम्र, मृदुभाषी एवम् आत्मविश्वास से भरा होता है। ज्ञानियों ने विनम्रता को लेकर महत्त्वपूर्ण बातें कही है। इन बातों को समझा व्यवहार में लाया जाय तो जीवन सुधर जायेगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं किया जा सकता। 

विनम्रता पर ज्ञानियों के विचार !

रविन्द्र नाथ टैगोर का कथन है कि हम महानता के निकट तब होते हैं, जब हम विनयशीलता में महान होते हैं।

वहीं बेंजामिन फ्रैंकलिन के कथनानुसार अपने से श्रेष्ठ के प्रति विनम्रता , बराबर वाले के प्रति शिष्टता और अपने से तुच्छ के प्रति उदारता कर्तव्य है।

रहिमन अरि सम बल नहिं मानत प्रभु की धाक।

दांत दिखावट दी ह्यै चलत घिसावट नाक ।।

कवि रहीम ने कहा है कि हाथी अति शक्तिशाली होते हुवे भी परम शक्तिशाली ईश्वर को मान देता है। उसे अपने बल का अहंकार नहीं होता। अपनी नाक को जमीन पर रगड़ते हुवे चलता है। इससे इस बात की सीख मिलती है कि बलशाली , योग्य व्यक्ति को भी विनम्र होना चाहिए। उक्त दोहे में कवि रहीम ने विनम्र होने के गुण का बखान किया है।

रहिमन निज संपति विना कोउ न विपति सहाय।

विन पानी ज्यों जलज को नहिं रवि सकै बचाय।।

कवि रहीम कहते हैं कि विपत्ति के समय में अपने भीतर निहित उत्तम गुण ही सहायक होता है। जैसे जल के अभाव में कमल को सुरज का ऊर्जा भी नहीं बचा पाता। ठीक उसी प्रकार धैर्य , आत्मविश्वास , विनम्रता जैसे उत्तम गुण के अभाव में व्यक्ति असहाय हो जाता है। 

रहीम के उक्त दोहे में सम्पति का आशय बौद्धिक सम्पदा से है। परन्तु आज के समय में अधिकांश लोग भौतिक संपदा को ही संपति समझ रहे हैं। धैर्य, विनम्रता जैसे गुणों का ह्रास होता जा रहा है। भौतिकवादी विचारधारा ने लोगों के मानसिकता को ही बदल कर रख दिया है। लोगों में अहंकार की प्रवृति बढ़ गई है। सामान्य जीवन की गतिविधियों में भी विनम्रता की कमी हो गई है। परिणाम स्वरुप लोगों का सुख-चैन जीवन से नदारत हो गया है। जो व्यक्ति के जीवन में ही समाज में भी कलह , अविश्वास एवम् अशांति का कारण बन गया है।

जग में बैरी कोउ नाहिं जो मन शीतल होय।

यह आपा जो डारि दे दया करे सब कोय ।।

संत कबीर ने कहा है कि अगर मन में शीतलता हो, मन विनम्र हो तो सारा संसार आपको अच्छा प्रतीत होता है। किसी से कोई बैर भाव नहीं पनपता है। अहंकार को जो मन से मिटा दे तो वो सबका दया का पात्र बन जाता है। 

ज्ञानियों की बातें पूर्णतः सटीक और व्यावहारिक हैं। क्योंकि उन्होंने ऐसा करके दिखाया है। यह जो बाते हैं उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर कही है। परन्तु चंचल प्रकृति के लोगों के लिए इन बातों को व्यवहार में शामिल करना अत्यंत कठिन जान पड़ता है। 

अहंकार से ग्रसित मन झुकना ही नहीं जानता। झुकना अच्छी बात है, यह तो सभी कहते हैं। लेकिन यह भी कहते हैं कि झुकना तो विनम्रता का पहचान है, पर आत्मसम्मान खोकर झुकना खुद को खोने के समान है। अहंकारी मन को संभवतः अहंकार एवम् आत्मसम्मान में फर्क ही नजर नहीं आता। यही कारण है कि मन में यह धारणा पनप गई हो। जबकि वास्तविकता है कि विनम्रता से किसी को कोई नुक्सान नहीं होता।

आवत गारि एक है उलतट होय अनेक।

कह कबीर नाहिं उलटिये वही एक ही एक।।

कबीर के कहने का आशय है कि अपशब्द के बदले अपशब्द न कहा जाए तो उसकी मात्रा बढ़ेगी ही नहीं। अगर कोई व्यक्ति दुर्व्यवहार करे और दुसरा उसे नजर अंदाज कर दे तो कलह का संभावना न्युनतम हो जायगा। परन्तु विनम्र होने के लिए सहनशीलता का होना उतना ही जरूरी है। 

अब प्रश्न है कि हम अपने मन में विनम्रता को कैसे धारण करें। इसके लिए सबसे पहले मन को नियंत्रित करना पड़ता है। नियंत्रित मन शान्त होता है और शांत मन विवेकपूर्ण निर्णय लेने में समर्थ हो जाता है। मन को शांत करने का जो सबसे उत्तम उपाय है, वह है ध्यान। ध्यान क्रिया का लगातार अभ्यास से मन को शांत करना संभव है। और शांत मन में सहनशीलता, विनम्रता जैसे गुण स्वत: आ जाते हैं। 

संत ना छाड़े संतु कोटिक मिले असंत।

चंदन विष व्यापत नहीं लिपट रहत भुजंग।।

कबीर के कहने का भावार्थ है कि जिसने अपने मन को साध लिया, वह सज्जन किसी भी परिस्थिति में अपनी सज्जनता का त्याग नहीं करता। जिस प्रकार चंदन के पेड़ से लिपटे विषधर के विष का प्रभाव उसके शीतलता एवम् सुगंध को नष्ट नहीं कर पाता। ठीक उसी प्रकार

दुर्जनों का व्यवहार भी सज्जनों में निहित विनम्रता को नष्ट नहीं कर पाता है। 

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