रोचक का अर्थ है रुचिकर अर्थात् जो अच्छा लगे। प्रस्तुत है कुछ रोचक कविताएं, जो स्वरचित हैं। आशा करता हूं कि ये स्नेही पाठक गण को रोचक लगेंगी।
सुख और दुख !
सुख हो जीवन में हरदम
यह चाहत मन में होती है
पर चांद की चांदनी से
कितनी रातें रोशन होती हैं
सुख का मतलब है कि
दुख न हो जीवन में
पर सुख की चाहत ही क्यों
गर दुख न हो जीवन में
सुख तो आता है पर
देर तक ठहरता नहीं
क्योंकि दुख वो है जो
दुर कहीं जाता नहीं
निकलकर दरवाजे पर
हो जाता है खड़ा
कहता है सुख से
कुछ पल मुस्कुराले जरा
भोगने दो उन पलों को
जिसे है तेरी चाहत
लौटकर आता हूं मैं
फिर न मिलेगी राहत
सुख में भी है सुख कहां
होती है इसकी भी चूभन
दुख लौटकर आ न जाए
इस भय से घबराता है मन
सुख है गर चांदनी
तो दुख अंधेरी रात है
गर दुख की परवाह न हो
तो जीवन में उल्लास है
इसी बात को समझाने को
कह गये हैं दास कबीर
इस मरम जो समझो
तो टुटे मन की जंजीर
चाह गई चिंता मिटी
मनवा बेपरवाह ।
जिसे कछु नहिं चाहिए
वो शाहन के शाह ।।
रिश्तों के बंधन !
बंध जाता है आदमी
रिश्तों के उलझे बंधन में
बन जाते हैं कुछ रिश्ते।
धरा पर जन्म होने के साथ
कुछ ऐसे भी होते हैं रिश्ते।
बन जाते हैं, बनाये जाते हैं
जग में कदम रखने के बाद।
खुबसुरत होते हैं ये रिश्ते
जब तक मन को भाते हैं।
मनमोहक रिश्तों की महक
अक्सर फीके पड़ जाते हैं।
मतलब से भरे इस दुनिया के
रिश्तों में भी मतलब होता है।
मतलब से गुंथे रिश्तों के धागे
टुटते हैं, टुटकर विखर जाते हैं।
प्रेम से गुंथे हो रिश्तों के धागे
कोई गांठ नहीं होती उसमें।
लेन-देन होता है पर
व्यापार नहीं होता उसमें।
जो रिसता है वह रिश्ता कैसा
जो पीसता है वो नाता कैसा।
सिर्फ पाने की इच्छा हो अगर
तो रिश्तों का यह बंधन कैसा।
जुड़ जाते हैं जो हृदय से
बंधन वे अनोखे होते हैं।
विरले ही होते हैं वो रिश्ते
दिल में जो उतर जाते हैं।
है रहीम की एक बात बड़ी
सुनने की है समझने की है।
रहिमन धागा प्रेम का
मत तोड़ो चटिकाय।
टुटै पै फिर ना जुटै
जुटै गांठ पड़ी जाय।।
सुना करो सयानों की बातें !
कुछ बातें हैं ऐसी सुनने के लिए
सुनने की ही नहीं गुनने के लिए
कही है जो कभी सयानो ने
अल्हड़ फक्कड़ मस्तानों ने
उन सयानों ने जो किया आभास
कर गये इशारे बन गये जो खास
‘एकला चलो रे’ है एक ऐसी ही बात
गुरुदेव टैगोर का यह अनोखा सौगात
जो न आवे बुलाने पर भी कोई
हो न साथ दुर्गम राहों में कोई
चलो रे! चलो अकेला तुम चलते चलो
मन रे! संभालो खुद को व बढ़ते चलो
जीवन-मंत्र है यह चलते ही जाना रे
विना रुके विना थके चलते जाना रे
गर मिले साथ तो लो न कभी
इस बात का है यह अर्थ नहीं
लग जाए गर पराश्रय का लत
तो यह जीवन हो जाएगा व्यर्थ
सोचो जरा! आए जब धरा पर
तो आए थे साथ किसे लेकर
दिनकर ने कही है और एक बात
सुनो रे राही! कर लो आत्मसात
यह जन्म हुवा किस अर्थ अहो
समझो जिससे कि व्यर्थ न हो
खुद से बड़ा जग में नाहिं कोई हित।
प्रयत्न ही तेरे हाथ में जो है तेरा मीत।।
कुछ बातें हैं ऐसी सुनने के लिए
सुनने की ही नहीं गुनने के लिए
कही है जो कभी सयानो ने
अल्हड़ फक्कड़ मस्तानों ने
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