एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सीचिबो, फूलै फलै अघाय।।
उक्त दोहा कवि रहीम का है। दोहे का शाब्दिक अर्थ है- एक कार्य को पूरा करो तो बाकि सभी कार्य पूरे हो जाते हैं। और एक साथ अनेक कार्यों में लगे रहने से कोई भी कार्य सही ढंग से पूरा नहीं हो पाता है। जैसे कि वृक्ष के जड़ को ही सींचने से वह हरा भरा हो जाता है, और फल-फूल देने लगता है।
एकै साधे सब सधै – इस दोहे का भावार्थ यही है कि सर्व प्रथम किसी एक काम का चयन करो। उसी काम को करने का निश्चय करो। और जब तक की वह कार्य पूर्ण न हो जाए, उस काम में लगे रहो। अगर ऐसा कर सको तो वह अवश्य पूर्ण होगा। ऐसा करने से वांछित परिणाम की संभावना प्रबल हो जाती है। अगर एक ही समय में मन अनेक कार्यों में उलझा रहा, तो कुछ भी ठीक से नहीं हो सकेगा।
यह बात तो समझ में आती है कि एक साथ कुशलतापूर्वक कई काम ठीक तरह से नहीं किया जा सकता। लेकिन एक कार्य को करने मात्र से बाकि सब पूरा हो जाए, यह कैसे हो सकता है? कार्य तो मन से ही होते हैं, और मन की चाहत भी अनेक होते हैं। अगर मन एक चाह को पूरा करने में ही लगा रहा, तो उसकी अन्य चाहतें पूरी कैसे हो सकती हैं?
बात समझने की है! यह जो मन है, इसके भटकने की संभावना अधिक होती है। एक साथ कई चीजों में ध्यान को केन्द्रित नहीं किया जा सकता। जब किसी एक कार्य पर मन को लगाने का प्रयास किया जाता है, तो व्यक्ति का ध्यान उसी में केन्द्रित करने की जरूरत होती है। उक्त दोहे में वृक्ष का दृष्टांत दिया गया है। यह दर्शाता है कि ध्यान जड़ पर होना चाहिए। जड़ को सींचने से ही पूरा वृक्ष पोषित हो जाता है।
मन की एकाग्रता महत्वपूर्ण है! एक कार्य को हाथ में लेने और उसे पूरा करने का निश्चय करने से मन उसी दिशा में एकाग्र हो सकता है। और जिस कार्य में मन समर्पित हो जाता है, वह अवश्य पूरा हो जाता है। जब एक कार्य पूरा हो जाता है, तो दुसरे को पूर्ण करने का विश्वास प्रबल हो जाता है। ध्यान पूर्वक कार्य करने का स्वभाव विकसित हो जाता है। और फिर धीरे धीरे सभी कार्य पूरे किए जा सकते हैं। और सभी इच्छाओं को पूर्ण कर जीवन को सहज बनाया जा सकता है।
एकै साधे सब सधै – अगर एक कार्य को करना नहीं सीखा। एक कार्य पूरा हुवा नहीं, तो दुसरा भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि विना किए कुछ मिलता नहीं, और एक साथ अनेक कार्यों लग जाने से भी कोई काम ठीक से नहीं हो पाता। विषय चाहे जो भी हो, कार्य चाहे जैसा भी हो। सर्व प्रथम किसी एक को पाने में मन को लगाना जरूरी है। एक काम को, एक विचार को, एक इच्छा को अगर साध लिया जाए, तो सबको साधा जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि “किसी एक विषय पर मन को एकाग्र करना ही ध्यान है। यदि मन किसी एक विषय पर एकाग्रता प्राप्त कर लेता है तो इसे किसी भी विषय पर एकाग्र किया जा सकता है।”
बात महत्वपूर्ण है! मन अगर किसी एक विषय पर लग जाए तो उसका स्वभाव बदल सकता है। एक कार्य में सफल व्यक्ति अन्य किसी भी कार्य को पूरा करने में सक्षम हो सकता है। मन में चिंता, भय का लोप हो जाता है और उत्साह, साहस एवम् दृढ़विश्वास जैसे गुण विकसित हो जाते हैं।
रहीम ने कहा है कि एकै साधे सब सधै! और विवेकानंद के अनुसार “मन एक विषय पर लग जाए, तो इसे किसी भी विषय पर लगाया जा सकता है।” दोनों के कहने का ढंग भिन्न है, परन्तु भावार्थ समान है। अर्थ में गहराई है, जिसे गहरे में उतर कर समझने की जरूरत है।
वास्तव में किसे साधने की बात की गई है, यह समझना जरूरी है। करना क्या है और पाना क्या है? वह कौन सी चीज है, जिसके मिल जाने से सबकुछ मिल जाता है? और उसे पाने के लिए क्या करें और कहां से शुरुआत करें? इन सारे प्रश्नों का हल निम्नांकित कथन में निहित है।
स्वामी विवेकानंद का कथन है कि “जिसका जिसमें मन लगता है, उसी के ध्यान का अभ्यास करने से मन अति सहज में ही शांति प्राप्त कर लेता है। मुख्य उद्देश्य तो मन को वृतिहीन करना है; किन्तु किसी विषय में तन्मय हुवे बिना यह संभव नहीं है।”
उपरोक्त कथन पर विचार करें तो यह तथ्य प्रगट होता है कि वास्तव में मन को स्थिर करना ही मुख्य उद्देश्य है। मन को एकाग्र करना जरूरी है, मन को साधो तो सब सध जाता है। लेकिन सांसारिकता में आसक्त व्यक्ति के लिए यह आसान नहीं होता। मन को जोर जबरदस्ती से नियंत्रण में लाना कठिन है। इसलिए सामान्य व्यक्ति का मन जिस कार्य में लगे, उसे उसी से शुरूआत करनी चाहिए।
जैसे अगर किसी को मिष्ठान्न पसंद हो तो वह उसका स्वाद लेना चाहेगा। स्वाद का अनुभव लेने के लिए मिष्टान्न की उपलब्धता जरूरी है। तो उसे अपनी सारी गतिविधियां मिष्टान्न की उपलब्धता एवम् उपभोग में लगा देना चाहिए। मिष्टान्न का स्वाद जब जिह्वा को प्राप्त होता है, तो मन तृप्त हो जाता है। लेकिन कुछ समय के लिए, वास्तव में वह तृप्त नहीं होता। ऐसा भी हो सकता है कि मिष्टान्न से उसका मन भर जाए। और वह तृप्त होने के लिए अन्य विषयों में लग जाए। भोग में लिप्त रहकर कोई तृप्त नहीं हो सकता। लेकिन भोग में लिप्त हुवे विना तृप्त होने का उपाय भी नहीं है। ऐसा नहीं कि उपाय नहीं है, लेकिन सामान्य मनुष्य के समझ से परे है।
योग के द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सकता है? परन्तु इस मार्ग पर चलना कठिन है, इसलिए सांसारिक लोगों के लिए यह अव्यावहारिक प्रतीत होता है। सांसारिक जीवन में भोग के मार्ग पर चलकर योग तक जाना वनिस्पत आसान है। जिसने भोग का स्वाद नहीं चखा, वह भोग से विरक्त नहीं हो सकता है। जिसने भोग को जाना नहीं, वह योग को कैसे जान सकता है? इसलिए तो इसलिए तो कहा गया है कि भोग में भी योग छुपा होता है।
एकै साधे सब सधै – वास्तव में इस उक्ति में जो गहन संदेश छुपा है, वह मन पर नियंत्रण करने का है। जैसे वृक्ष को विकसित करने के लिए मूल को सींचना जरुरी है, वैसे ही जीवन को विकसित करने के लिए मन को नियंत्रित करना जरुरी है।
यह जो मन है भोग से तृप्त नहीं होता। लेकिन तृप्त होने की लालसा में भोग में ही लिप्त रहता है। जब उसे यह आभास हो जाए कि भोग से वह तृप्त नहीं हो सकता, तो वह उस दिशा की ओर अग्रसर हो सकता है, जहां वह तृप्त हो सकता। अतृप्त मन कभी स्थिर नहीं हो सकता। लेकिन जब उसे यह आभास हो जाए कि वह जिन कार्यों में लिप्त है, वहां तृप्त नहीं हो सकता। तभी उसकी दिशा बदल सकती है। तभी मन स्थिर हो सकता है।