मन का किसी निर्दिष्ट विषय, वस्तु अथवा स्थान पर केन्द्रित होने की अवस्था मन की एकाग्रता एकाग्र होने का भाव है। एकाग्र, यानि एक ओर स्थिर! एकाग्र में एक ही आयाम है। और भाव मन का विषय है, अतः: एकाग्रता मन की अवस्था है।
मन की एकाग्रता का जो वास्तविक स्वरूप है, वह सांसारिकता से परे है। मन को एकाग्र करने का उद्देश्य मन को कामना रहित करना है। मन में निहित कामनाओं के कारण ही मन अस्थिर रहता है।
ज्ञानियों ने इसके लिए योगाभ्यास पर बल दिया है। योग एक ऐसी विधा है, जो आत्म-अनुशासन एवम् ध्यान क्रिया के द्वारा मन को स्थिर करने में सहायक है। मन की प्रकृति बहुआयामी है, यह एक आयाम में स्थिर नहीं रहता है। इसके स्वभाव में अस्थिरता है, जो स्थिर होने के भाव के विपरीत है। जीवन में सुख-दुख, हर्ष-विषाद मन की प्रकृति पर ही निर्भर करता है। योगाभ्यास के द्वारा मन को स्थिर कर इसके प्रकृति को बदला जा सकता है।
सांसारिक जीवन में भी मन की एकाग्रता महत्वपूर्ण है। परन्तु यह व्यक्तिगत प्रयास और प्रयास की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। जो किसी वांछित चीज को पाने का पुरे मन से प्रयास करते हैं, उन्हें पा भी लेते हैं। लेकिन इसके लिए लक्ष्य के प्रति मन को एकाग्र करने की आवश्यकता होती है।
सांसारिक जीवन में मनुष्य को अनेक दायित्वों का निर्वहन करना पड़ता है। जीवन-यापन के लिए अन्न-धन अर्जित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए बुद्धि एवम् कौशल की भी आवश्यकता होती है। चाहे धन हो अथवा कौशल अथवा कुछ और, मनुष्य जो चाहता है, उसे पाने के लिए उसे पूरे मन से प्रयास करना पड़ता है।
परन्तु क्या मन को एकाग्र किया जा सकता है? प्रथम दृष्टया यह असंभव प्रतीत होता है। सांसारिक जीवन में ऐसी भी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जो अनचाही होती हैं। इन परिस्थितियों पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं होता। अवांछित परिस्थितियों से गुजरने एवम् और वांछित को पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं, कष्ठ उठाना पड़ता है। और वांछित की प्राप्ति होने पर भी मन संतुष्ट नहीं होता। यह कुछ और की चाह में भटकने लगता है।
एक तो मन स्वभाव से चंचल है। यह एक समय में अनेक स्थानों में विचरण करता है। एक ही समय में अनेक विचारों में उलझा रहता है। मन में अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या जैसे भाव निहित होते हैं, जो इसे अशांत बनाए रखते हैं। ऊपर से इसकी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। साथ में जीवन जीने एवम् दायित्वों के निर्वहन के लिए संघर्ष भी चलता रहता है। इन सब के बीच मनुष्य उलझा हुआ रहता है।
मन को एकाग्र कैसे करें?
अब प्रश्न है कि मन को एकाग्र कैसे करें? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है, जो व्यावहारिक है, मान्य है। और वह है मन पर नियंत्रण! मन को नियंत्रित करके ही मन को एकाग्र किया जा सकता है। परन्तु उत्तर जितना सहज है, समाधान उतना ही कठिन है।
मन को नियंत्रित करने के लिए खुद को अनुशासित करना जरूरी है। क्योंकि मनुष्य का शरीर मन के द्वारा संचालित होता है। जैसे भोजन भुख मिटाने के लिए है, लेकिन स्वाद मन का विषय है। पेट का संबंध स्वाद से नहीं है, शरीर के पोषण से है। रुखे, कड़वे भोजन भी शरीर को पोषित करते हैं। लेकिन मन भोजन से नहीं, स्वाद से तृप्त होना चाहता है।
स्वाद जिह्वा का विषय है, स्वाद से पेट का कोई संबंध नहीं है। और यह केवल जीभ पर ही लागू नहीं होता, सभी इन्द्रियों पर लागू होता है। मन को हमेशा रूचिकर सामग्री ही पसंद होता है। भले ही उसके कारण हानि ही क्यों न हो। और जब मनोनुकूल कार्य-व्यवहार के कारण शरीर को हानि होती है, तो इससे मन को भी आघात पहुंचता है।
पहले किसी एक विषय पर ध्यान केन्द्रित कर उसे ही साधने का प्रयत्न उचित है। किसी एक पर अधिकार प्राप्त होने पर आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। अगर प्रयत्न ही नहीं हो, तो फिर कुछ नहीं हो सकता। जैसे कि अगर हम जिह्वा को साध सकें, तो अन्य इन्द्रियों पर भी नियंत्रण पा सकते हैं।
कल्पना करिए कि अगर इन्द्रियों पर नियंत्रण हो सके तो क्या होगा? संभव है मन कुछ कहेगा, और आप कुछ और करेंगे! मन बहुत चालाक है, वह भटकाता रहेगा। परन्तु अगर कोई अपने विवेक के अनुसार कार्य करे, तो अंततः उसे हारना ही पड़ेगा। जब उसे यह जान पड़ेगा कि मनुष्य के मस्तिष्क में उसका नियंत्रण नहीं है, तो वह क्या करेगा?
लेकिन लोगों को भोजन के गुणवता से अधिक भोजन के स्वाद से मतलब होता है। उनकी गतिविधियां इन्द्रियसुख प्राप्त करने के लिए ही होती रहती हैं। और ऐसा कर के किसी को कोई लाभ नहीं होता, हानि ही होती है। सुख की चाह में किए गए कार्य-व्यवहार अंततः उनके दुख का कारण बन जाता है।
मन को एकाग्र करने के लिए इच्छाओं पर नियंत्रण जरूरी है। मन स्वभावत: सांसारिक विषयों में ही लगा रहता है। यह इन्द्रियों के माध्यम से अपनी इच्छापूर्ति में लगा रहता है। यह भी गौरतलब है कि किसी की भी सभी इच्छाएं पूर्ण नहीं होती। और इच्छाओं का शमन भी असहज है।
हम एक साथ सभी इच्छाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते। सर्वप्रथम उचित क्या है, अनुचित क्या है? किन कार्यो-विचारों से हमें हानि हो सकती है? इस विषय पर विचार करना महत्वपूर्ण है। और पहले किसी एक अनुचित कार्य-व्यवहार पर नियंत्रण करना जरूरी है। यही मन की एकाग्रता का मंत्र है।
परन्तु सैद्धांतिक रूप से यह जितना सरल प्रतीत होता है, व्यावहारिक रूप से उतना ही कठिन है। कठिन इसलिए कि शुरुआत कठिन है। हमे जो आदत पड़ गई है, हम उससे छुटकारा पाना नहीं चाहते। अगर चाहें तभी कुछ हो सकता है।
सांसारिक जीवन में भी जो उचित है, उन विचारों के साथ चलना जरूरी है। जो जरुरी है, उन कार्यों में लगे रहना उपयुक्त है। जीवन में छोटे छोटे कार्यों-गतिविधियों के प्रति खुद को अनुशासित कर बड़े लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए निश्चयात्मक बुद्धि की आवश्यकता होती है।