ध्यान क्रिया मन को शांत करने की प्रक्रिया है। यह नियमित एवम् निरंतर करने योग्य प्रक्रिया है। जीवन के सामान्य गतिविधियों में भी मन को शांत रखना महत्वपूर्ण है। जीवन निर्वाह के लिए हर किसी को कुछ न कुछ कार्य करना पड़ता है। सांसारिक जीवन में प्रत्येक को कुछ दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ता है। इन कार्यों, दायित्वों का निर्वहन करना आसान नहीं होता। किसी भी कार्य को सही ढंग से करने के लिए मन को संतुलित रखना जरूरी है। मन अगर असंतुलित रहता है, तो कोई भी कार्य को ठीक तरीके से नहीं हो पाता। ध्यान क्रिया के अभ्यास से मन को शांत करने में सहायता मिलती है।
ज्ञानीजनों का कहना है कि मनुष्य अपना सारा जीवन मन के प्रभाव में रहकर जीता है। और मन जो चाहता है, उसे वह मिलता नहीं है। फलस्वरूप मनुष्य का मन अशांत रहता है। मनुष्य जीवन पर्यन्त जिस चीज को खोजता रहता है, उसे मिल नहीं पाता। वास्तव में वह उस चीज को खोजने का प्रयत्न ही नहीं करता। जिस चीज को जहां खोजता है मनुष्य, वह वहां है ही नहीं। फलस्वरूप मनुष्य जीवन भर अतृप्त रहता है। तृप्त होना चाहता है, लेकिन अतृप्त रहता है।
अब प्रश्न है कि मनुष्य क्या चाहता है? तो इसका सरल उत्तर है कि वह सुख चाहता है। लेकिन क्या जिन चीजों में वह सुख की तलाश करता है, उसे मिल पाता है? इसका भी उत्तर है, नहीं। अगर मनुष्य को सुख मिल जाता, तो फिर उसकी खोज समाप्त हो जाती। मनुष्य सुख को बाहर के संसार में खोजता रहता है। यही जीवन में दुख के होने का कारण है।
ज्ञानियों ने इसे भ्रम कहा है। भ्रम इसलिए कि यह जो चीज है, यह सबके भीतर निहित है। परन्तु साधारण मनुष्य को इसके होने का आभास नहीं होता है। यह जो चीज है, बाहर का त्तत्व नहीं है, यह भीतर का त्तत्व है। ज्ञानी इस तथ्य को एक उपमा से समझाते हैं।
मृग के नाभी में कस्तुरी होता है। बाहर दिखता नहीं, छुपा होता है। वह देख नहीं पाता कस्तुरी को, केवल उसके गंध का आभास होता है। कस्तूरी का गंध बाहर हवा में फैलती है, तो उसे लगता है कि गंध बाहर से आ रही है। हिरन को भ्रम होता है कि कस्तुरी बाहर है, और वह भागता फिरता है कस्तुरी की खोज में। क्योंकि कस्तुरी की गंध उसे अच्छी लगती है। वह उस चीज को पाना चाहता है, जिसकी गंध उसे पसंद है। लेकिन वह जो चीज है, वह तो भीतर उसकी नाभी में ही है, लेकिन वह बाहर खोजता फिरता है।
ठीक ऐसा ही भ्रम मनुष्य को होता है। वह जो चीज है, जिसमें सुख की महक है, वह बाहर संसार में खोजता रहता है। मनुष्य सारा जीवन इसी भ्रम में जीता है। सुख सांसारिकता का विषय नहीं है, आध्यात्मिकता का विषय है। ध्यान क्रिया मनुष्य को आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करता है। इस चीज को ध्यान क्रिया के अभ्यास से पाया जा सकता है।
भीतर के त्तत्व का अनुभव करने के लिए भीतर की ओर जाना होता है। इंद्रियसुख की लालसा में मोहित बहिर्मुखी मन के दिशा को मोड़कर अंतर्मुखी करना पड़ता है। ध्यान क्रिया मन की गति को मोड़कर अंतर्मुखी करने की उत्तम प्रक्रिया है। जीवन को सही दिशा देने के लिए ध्यान क्रिया का अभ्यास महत्वपूर्ण है।
ज्ञानी जो कहते हैं, वह उनका अनुभव है। और जब तक किसी तथ्य का अनुभव न हो, उसे समझा नहीं जा सकता। वास्तव में मनुष्य उसे पाना चाहता है, जिसे पा लेने पर वह सुखी हो सकता है। उस चीज का अनुभव करना चाहता है, जो जीवन को सुखमय करता है। जब वह उस त्तत्व का अनुभव कर लेता है, तो उसके सारे सन्देह दुर हो जाते हैं।
नास्ति बुद्धियुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम्।।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २ श्लोक ६६) में उल्लेखित है कि अनियंत्रित मन एवम् इंद्रियोंवाले मनुष्य में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त के अंत:करण में भावना भी नहीं होती। भावनाहीन मनुष्य को शांति नहीं मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
अनियंत्रित मन अशांत रहता है। मन को शांत करने के लिए इसे नियंत्रित करता पड़ता है। मन इन्द्रिय गामी है, इन्द्रियों के विषय में लिप्त रहता है। और इंद्रियों से प्राप्त सुख क्षणिक होता है, अस्थाई होता है। अनियंत्रित मनवाले मनुष्य सुख पाने के लिए इंन्द्रियों का उपयोग तो करता है, लेकिन सुखी नहीं हो पाता। सुखी होने के लिए मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। परन्तु मन को नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है।
मन को नियंत्रित करना कितना कठिन है!
मन को नियंत्रित करना कितना कठिन है! इसे स्वामी विवेकानंद ने एक उपमा देकर समझाया है।
“एक वानर था। वह स्वभावत: चंचल था, जैसे कि वानर होते हैं। लेकिन उतना ही पर्याप्त न था, किसी ने उसे तृप्त करने जितनी शराब पिला दी। इससे वह और चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो कि बिच्छु द्वारा डसा व्यक्ति दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है। अतः उस बेचारे बंदर ने स्वयं को अभुतपूर्व दुर्दशा में पाया। तत्पश्चात मानो उसके दु:ख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक दानव उसपर सवार हो गया। कौन कौन सी भाषा उस बंदर की अनियंत्रित चंचलता का वर्णन कर सकती है? बस, मनुष्य का मन उस वानर के सदृश है। मन तो स्वभावत: ही सतत् चंचल है, फिर वह कामनारूपी मदिरा से मत्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ जाती है। जब कामना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब लोगों को सफल देखने पर ईर्ष्यारूपी बिच्छू उसे डंक मारता रहता है। उसके भी ऊपर जब अहंकाररूपी दानव उसके भीतर प्रवेश करता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है! सोचो तो, ऐसे मन का संयम कितना कठिन है!” ( स्रोत पुस्तक – ध्यान तथा इसकी पद्धतियां)
मन को नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है, परन्तु असंभव भी नहीं है। ध्यान क्रिया के नियमित एवम् निरंतर अभ्यास से मन को नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ध्यान क्रिया कैसे करें? इसे जानना भी आवश्यक है। इस क्रिया को करने के लिए अनेक विधियां हैं। इन विधियों की जानकारी पुस्तकों में उपलब्ध है। इनमें से किसी भी विधि के अनुसार ध्यान क्रिया का अभ्यास किया जा सकता है। परन्तु इस क्रिया को करने के लिए किसी योग्य पुरुष का मार्गदर्शन उपयुक्त होता है। जो इस विधा में कुशल हो, उसके निर्देशन में इस क्रिया का अभ्यास करने से सकारात्मक परिणाम की संभावना अधिक होती है।
Pingback: एकै साधे सब सधै - Adhyatmpedia
Pingback: एकाग्रता का अर्थ! - Adhyatmpedia