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धर्म क्या है? — What Is Religion?

जब जब धर्म की हानि होती है!

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है; हे भारत जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्वि होती है तब तब ही मैं अपने आप को रचता हूं; अर्थात प्रकट करता हूं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होने से पुर्व श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच जो संवाद हुवा, पावन गीता के रुप में संकलित है। कुछ वर्षों के पश्चात्  ऋषि वेदव्यास ने श्री कृष्ण द्वारा कहे गये अमृत वचनों को संस्कृत भाषा में देवनागरी लिपि में संकलित किया। कालांतर में अनुवादकों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस पवित्र ग्रन्थ का हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद किया।

हमारा मन धर्म-अधर्म के प्रभाव में रहता है!

धर्म और अधर्म दोनों का सत्ता हमारे अन्दर विद्यमान है। परन्तु अधर्म का अपना  कोई अस्तित्व नहीं है, जैसा कि अन्धकार का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। एक दिये को प्रज्वलित होते ही अन्धकार दुर हो जाता है। जब जब हमारा मन निराशा, क्रोध, लोभ, द्वेष आदि नकारात्मक विचारों के वश में होकर गलत कार्यों में प्रवृत होता है; तब तब हमारी अन्तरात्मा से एक विचार अवश्य प्रगट होता है, जो हमें धर्म के मार्ग में प्रवृत होने का संकेत देती है।

अगर हम अंतरात्मा की आवाज़ को पहचान लेते हैं; अपने हृदय के बात को मान लेते हैं, तो फिर गलत करने से बच जाते हैं। अंतरात्मा का जो यह संकेत हमारे हृदय में प्रगट होता है; यही तो ईश्वर का संकेत होता है। 

हमारे अन्दर जो ऊर्जा है, जिसे हम आत्मा कहते है; यह तो परम सत्ता! परमात्मा का ही अंश है। और श्रीकृष्ण तो परमात्मा के स्वरुप हैं।

हमारा मन ही कुरुक्षेत्र है !

श्रीकृष्ण तो हर पल हमारे साथ हैं। श्रीकृष्ण तो हम सभी के भीतर वास कर रहे हैं, आत्मा के अदृश्य रुप में हम सभी के भीतर विद्यमान हैं। और हम है जो इन्हें बाहर ढ़ुँढ़ते फिरते हैं। उस हिरण की भाँति, जिसके नाभी में कस्तुरी होता है, परन्तु उसे उसका भान नहीं होता है। इसी संदर्भ में भगवान बुद्ध ने भी कहा है; “आत्म दीपो भव:”!

हमारे भीतर कौरव और पाण्डव के रुप में भिन्न भिन्न विचार उत्पन्न होते रहते हैं। बुद्धि और विवेक के रुप में श्रीकृष्ण जैसा सारथी हमेंशा हमारे साथ मौजूद होते हैं। बस इन्हें पहचानने और हृदय में बसाने की आवश्यकता है। 

हमसे जो कार्य होते हैं, अच्छा या बुरा, वस्तुत: इन कर्मो को कौन कर रहा होता है? हम जो देखते हैं अपनी आँखों से, वस्तुत: हमें देखने को कौन प्रेरित करता है? आखिर वह कौन है जो हमसे हमारा सारा कर्म करवाता है? सारे कर्म हमारे इन्द्रियों के द्वारा ही तो सम्पन्न होते हैं, परन्तु उसे करवाने वाला कोई और होता है। हमारे सारे कर्मो को करवाने वाला हमारा मन है।

 मन की क्षमता अद्भुत है !

मन ही है जो माया का निर्माण करता है। हमारा मस्तिष्क मन के द्वारा निर्मित माया के प्रभाव में आ जाता है। और हमारे सोच, हमारे विचार हमारे मस्तिष्क में उभरते हैं। फिर हम वही करते हैं जैसा हमारा विचार होता है और हम ह्दय से निकलते ईशारों पर गौर नहीं करते। यहीं पर गलती हो जाती है, यहीं पर हम नकारात्मक ऊर्जा यानि अधर्म के प्रभाव में आ जाते हैं। 

अगर हम ह्दय के आवाज को सुनने का प्रयत्न करें तो हम सकारात्मक विचारों के प्रभाव में आ जायेंगे, हम धर्म के मार्ग पर, सद्बबुद्धी के साथ विकास के पथ पर अग्रसर हो जायेंगे। ‌स्वामी विवेकानंद ने भी यही कहा है; ” जब तुम्हारे दिल और दिमाग के बीच टकराव हो तो तुम दिल की सुनो!”

मन के मते न चलिये – Man Ke Mate Mat Chaliye

मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है!

कठोपनिषद के प्रथम अध्याय में उल्लेखित श्लोक में हमें यही समझाया गया है;

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। (कठोपनिषद,अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)

अर्थात जीवात्मा को तुम रथी और रथ का स्वामी समझो, शरीर को उसका रथ और बुद्धि को सारथी; रथ को हांकने वाला और मन को लगाम समझो ।

इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। _(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)

मनीषियों, विवेकी पुरुषों ने कहा है, कि ये इंद्रियोँँ शरीररुपी रथ को खींचने वाले घोड़े हैंं। जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से आवृत इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करनेवाला बताया है।

मन को आप कई रूप मे समझ सकते हो लेकिन देख नहीं सकते, मन एक विचार हो सकता है, मन एक चाहत हो सकती है, मन एक सोच हो सकती है, मन एक संकाय हो सकती है. मन एक मानसिक अनुभव है, मन एक मानसिक गतिविधि है। 

किसी भी काम को करने से पहले हमारे पास मे अलग-अलग विचार जरुर आते है… मैं इसे करू या नहीं करु! यह सही है या गलत है! निरंतर, बारम्बार सही दिशा मे अनुशासित हो कर प्रयास करने से हम मानवता की ओर, धर्म की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हमें वो मिलता है जो हम चाहते है।

जीवन एक जंग ही तो है!

जीवन क्या है .. ! Meaning of Life ..!

जब जब हमारा मन नकारात्मकता के प्रभाव में आ रहा होता है, हमारा हृदय से हमें संकेत मिलता है। इस अंतरात्मा का आवाज को आत्मसात करने में अगर सफल हो पाते हैं तो हम सकारात्मक विचारों के प्रभाव में आ जाते हैं। सभी धर्म शास्त्रों का सार एक ही तथ्य में छिपा है, अपने भीतर की यात्रा! सब कुछ समझ के स्तर पर निर्भर करता है। 

भगवान श्रीकृष्ण ने जो कहा है, साधारण व्यक्ति के समझ से परे है। विना गहन अध्ययन और चिंतन के शास्त्र में उल्लेखित शब्दों को समझ पाना आसान नहीं है। इन पावन श्लोकों को अगर समझने का निरंतर प्रयास किया जाय तो फिर जीवन धन्य हो जायगा।

श्रीकृष्ण ने जो कहा है मानव के कल्याण  के निमित्त कहा है।

श्रीकृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः  जय श्रीकृष्ण..!

2 thoughts on “धर्म क्या है? — What Is Religion?”

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