मन की प्रकृति यानि मन का स्वभाव ! इसके चाल-चलन, व्यवहार को दर्शाता है। तो कैसा है, हमारे मन का स्वभाव ! क्या हम इसे जानने का प्रयास करते हैं?
मन की प्रकृति क्या है जानिए !
इस मन के विषय में बहुत सी बातें कही गई हैं। जैसे मन चंचल है, यह कभी स्थिर नहीं रहता। मन बहुर्मुखी है, अर्थात् सांसारिक विषयों में ही लगा रहता है। यह एक समय में अनेक विचारों में उलझा रहता है। मन मतवाला है, अहंकारी है, गतिमान है, अत्यंत शक्तिशाली है। इस तरह की अनेक उपमाएं हैं, जो मन को दी गई हैं। हम इन बातों को पढ़ते-सुनते जरूर हैं। परन्तु हमें इन बातों का अनुभव नहीं है।
अनुभव से यहां तात्पर्य है कि जिससे सीख न मिले वह अनुभव किसी काम का नहीं होता। ऐसा नहीं कि हम जो करते हैं उसका हमें आभास नहीं होता। ऐसा भी नहीं कि अपने किए गलत कार्यों पर हमें पछतावा नहीं होता। लेकिन सुधार के प्रति हमारा निश्चय भी नहीं होता। कारण कि वास्तव में हमें इन सब का अनुभव नहीं हो पाता। और वह इसलिए कि हमारे साथ जो होता है, अच्छा या बुरा उन सब घटनाओं से हम सबक नहीं लेते।
हम जो करते हैं, हमें यही लगता है कि हम कर रहे हैं। हम क्रोधित होते हैं, और क्रोध पर पछतावा भी करते हैं। कुछ देर के लिए यह सोचते भी हैं कि अब क्रोध नहीं करना है। और फिर क्रोध आ जाता है, इस क्रोध पर कोई नियंत्रण नहीं है हमारा। कारण कि क्रोध का हमें अनुभव ही नहीं है। एक क्रोधी अगर क्रोध को जान ले तो प्रेम की ओर अग्रसर हो सकता है।
हम सभी पढ़ते सुनते हैं, एक सम्राट के विषय में। इतिहास में इस बात का उल्लेख है। सम्राट अशोक ने उठायी थी तलवार, लेकिन जब रख दिया तो पलट कर नहीं देखा कभी। उन्हें जब अनुभव हुआ हिंसा का तो अहिंसक हो गया। अहिंसा हिंसा के विपरीत है, प्रेम क्रोध के विपरीत की अवस्था है। हम जिस अवस्था में पड़े हैं, जब इसके व्यर्थ होने की समझ जगेगी। तभी तो हम दुसरा जो विपरीत है, उसकी ओर जाने का प्रयत्न करेंगे।
हम अपने सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करने में लगे रहते हैं। और इन सब के बीच हम यह विचार ही नहीं करते कि हम कर क्या रहे हैं? हमसे जो कार्य हो रहे हैं, सही क्या है और गलत क्या है? हम जो कर रहे हैं, कौन हमें करने के लिए बाध्य कर रहा है?
हम कभी क्रोधित हो जाते हैं, कभी ईर्ष्यालु हो जाते हैं। कभी उत्साहित होते हैं तो कभी थका थका सा महसूस करते हैं। कभी हम एक विषय पर सोचते हैं तो कभी दुसरे विषय पर सोचने लगते हैं। दर असल हम परिस्थितियों के अधीन होकर कार्य करते हैं।
यह जो क्रोध है, एक ऊर्जा है। हमारा जो मन है, बहुत शक्तिशाली है। और यह क्रोध भी एक प्रकार का मनोबल ही तो है। हमारे अंदर जो अहंकार है, कामना-वासना सब मन के ही भाव हैं। क्रोध आ जाता है, हम भावनाओं में बह जाते हैं। लेकिन वह कौन है जो हमें संचालित कर रहा है! हमें इस बात का अनुभव ही नहीं है।
हम जो भी करते हैं, करवाने वाला और कोई नहीं हमारा मन ही है। और यह अपने स्वभाव के अनुसार हमसे सब करवाता है। मन चंचल है, अस्थिर है, गतिमान है, सांसारिकता में ही रमता है। मन की प्रकृति पर जो भी बातें कही गई हैं, सभी सच हैं। ये अनुभव जनित उपमाएं हैं, पर वास्तव में हमें अनुभव नहीं है। और जब अनुभव नहीं होगा, तो और ‘कुछ’ है ऐसा जिसके कारण यह मन चंचल है, उसकी खोज नहीं हो सकती।
कुछ तो है ऐसा, जिसे मन खोज रहा है। कुछ ऐसा, जिसे खोजने के लिए यह सांसारिक विषयों में लगा रहता है। लेकिन इसे यहां मिलता नहीं, इसलिए यह चंचल, अस्थिर, अतृप्त रहता है। जब उसे इस त्तत्व का, इस ‘कुछ’ का अनुभव हो जाता है। तो वह स्थिर हो जाता है शान्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करते ही मन की प्रकृति बदल जाती है।
यह जो कुछ भी होता है हमारे साथ, मन का ही खेल है। लेकिन इन सब के लिए हम मन को ही दोषी नहीं ठहरा सकते। क्योंकि मन का निर्माण हम स्वयं करते हैं। मन का निर्माण हमारे संस्कारों के द्वारा होता है। इसका निर्माण जन्मोपरांत के उन संस्कारों द्वारा होता है, जिनका हम निर्माण करते हैं। और उन संस्कारों से भी होता है, जिन्हें हम साथ लेकर आते हैं। ये जो संस्कार हैं हमारे पूर्व जन्मों के संस्कार होते हैं। इन समस्त संस्कारों का निर्माण हमारे द्वारा किए गए कर्मों से ही होता है। सब कुछ हमारे द्वारा किए गए एवम् किए जा रहे कर्मों पर ही निर्भर करता है।
हमारे कर्म ही हमारे संस्कारों का निर्माण करते हैं। और इन संस्कारों के द्वारा ही हमारे मन का निर्माण होता है। हमसे जैसे कर्म होते हैं, वैसे ही हमारे संस्कार होते हैं, और वैसी ही मन की प्रकृति होती है। यह सब बाहर की बात है, क्योंकि ये जो संस्कार हैं बाहर के कार्यों के ही परिणाम हैं। यहां बाहर का आशय सांसारिकता से है।
मन अगर चंचल है, अशांत है तो स्थिर भी हो सकता है। मन के दो सतह हैं, एक बाहरी और दुसरा है भीतरी सतह। जब यह भीतर की ओर यात्रा करने लगे तो इसकी प्रकृति बदलने लगती है। भीतर स्थिरता है, शांति है। भीतर जो त्तत्व छिपा है, वह आत्मा है, जिसके होने से यह जीवन है। मन जब आत्मा का अनुभव कर लेता है तो मन की प्रकृति बदल जाती है। मन की प्रकृति चंचल, अस्थिर नहीं शांत एवम् स्थिर हो जाती है। इसी को ज्ञानियों ने मन का मिट जाना कहा है।
मन मिट जाता है, अर्थात् यह जिस ‘कुछ’ को खोज रहा था, वह मिल गया। और अब खोज करने की आवश्यकता ही नहीं रही। मन मिल गया आत्मा से, फिर यह मन रहा नहीं। और जब मन का कोई अस्तित्व रहा नहीं तो तन मन के मते नहीं आत्मा के मत से चलना शुरू कर देता है। इसी अवस्था को पाना मनुष्य जीवन का लक्ष्य है।
चंचलता, अस्थिरता मन की प्रकृति है, और शाति, स्थिरता भी मन की प्रकृति है। मन जब सांसारिकता में विचरण करता है तो अस्थिर होता है, और जब सांसारिकता से मुक्त हो जाता है तो शांत हो जाता है, स्थिर हो जाता है। मन तृप्त होना चाहता है, इसलिए अतृप्त रहता है। जब उसे सांसारिकता में रहकर अतृप्त होन का अनुभव होता है तो तृप्त होने के मार्ग पर चल पड़ता है।
ऐसा नहीं कि हम सुखी नहीं होना चाहते। ऐसा नहीं कि हम शान्त होना नहीं चाहते। अच्छाई हम सबको पसंद है, उसी की खोज है। परन्तु सुख, शांति, अच्छाई को हम सांसारिक विषयों में, वस्तुओं में ही ढुंतते रहते हैं। जबकि सांसारिकता में सुख मिलता है, ऐसा एक भी उदाहरण इस संसार में नहीं मिलता।
दो ही मार्ग हैं! एक सांसारिकता का और दुसरा आध्यात्मिकता का। अध्यात्म का मार्ग मन की प्रकृति को बदलता है। अध्यात्म के मार्ग में चलकर मन को शांत किया जा सकता है। परन्तु यह आसान नहीं है, कठिन प्रक्रिया है। इस मार्ग में चलने के लिए मन पर नियंत्रण रखना पड़ता है। क्योंकि मन की प्रकृति सांसारिकता में रहने की अधिक होती है।
मनुष्य का जीवन ‘म और न’ दो अक्षरों का खेल है। ‘म’ और ‘न’ से बना है मन! और मन के बाद फिर से ‘न’ लगा दें तो हो जाता है मनन। मनन अर्थात् चिंतन, चिंतन से ही ज्ञान का, विवेक का प्रादुर्भाव होता है। और मन के न होने का अनुभव होने लगता है। नमन के मार्ग पर चलने लगता है। मन के पहले ‘न’ लगा दें तो नमन हो जाता है। नमन का आशय भक्ति के मार्ग से है। ‘न’ मन अर्थात् मन का मिट जाना। नमन का मार्ग अध्यात्म का मार्ग है।
ऊपरी तौर पर मन की प्रकृति ही ऐसी है कि यह पतनशील है। मन की आंखे जब खुल जाती हैं तभी यह भीतर प्रवेश करता है। मन को अन्तर्मुखी करने के लिए मन पर नियंत्रण — जरूरी है। सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच का मार्ग में चलकर भी जीवन को सफल किया जा सकता है। ज्ञानियों ने मनुष्य मात्र को धर्म के मार्ग पर चलने की सीख दी है। धर्म के अनुसार आचरण करने की सीख दी है। हमारा रहन-सहन, बोली-विचार, व्यवहार सब धर्म के अनुसार हो। जितनी भी अच्छी बातें हैं, सब धर्म में समाहित है। नैतिक मूल्यों को अपनाकर चलना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। सबकुछ समझ के स्तर पर निर्भर करता है।
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