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गुण क्या है? — What Is Quality?

गुण का अर्थ..!

वह विशेष लक्षण जिसके कारण कोई वस्तु अथवा जीव अपना अलग पहचान बनाता है, उसका गुण कहलाता है। रूप, रंग, गंध, स्पर्श के द्वारा गुण की परख होती है। गुण का विपरीत अवगुण होता है। गुण के विपरीत गलत लक्षणों या प्रवृतियों को अवगुण समझा जाता है। 

इस जगत में पाये जाने वाले समस्त पदार्थों एवम् जीवों में कुछ न कुछ विशेषताएं होती हैं। कोयले की विशेषता उसकी कालिमा और ज्वलनशीलता है तो हीरे की परख उसके चमक से होता है। यह भी देखा जाता है कि दो या उससे अधिक वस्तुओं अथवा प्राणियों में किसी एक तरह का गुण मौजूद होता है। परन्तु किसी न किसी लक्षण के कारण वे एक दूसरे से अलग होते हैं। कौआ और कोयल के रंग में समानता है, पर स्वर के कारण दोनों का पहचान अलग हो जाता है। 

यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि खुद में समेंटे गुणों के कारण ही कोई वस्तु या जीव खास हो जाता है। नदियों में गंगा, पर्वतों में हिमालय का विशेष महत्व है। वनस्पतियां दिन में स्वच्छ और रात में दुषित वायु देती हैं। पर वृक्षों में पीपल दिन हो या रात वायुमंडल को ओक्सीकृत करता है। उसके इस विशेषता के कारण उसकी पूजा की जाती है। आसमान में सुरज के निकलते ही सारे फूल खिल जाते हैं! यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। पर प्रसंशा तो सेफाली की होती है! घनी आधी रात में भी खिलना और आसपास के वातावरण को सुगन्धित कर देना उसकी विशेषता है।मान्यता है कि फूल अगर पौधे से टुटकर जमीन पर गिर गये हों, तो उसे ईश्वर को अर्पित नहीं किया जाता। पर अपनी इसी विशेष गुण के कारण सेफाली को जमीन में गिरने के बावजूद देवों को अर्पित किया जाता है। 

गुणों की प्रधानता अगर हो तो छोटी-मोटी कमियों को  नजरंदाज कर दिया जाता है। कांटों से भरे गुलाब की प्रतिष्ठा उसमें मौजूद सुगंध के कारण है। नीम और आंवला कड़वा-कसैला होने बाद भी अपने औषधीय गुणों के कारण ग्रहण करने योग्य होते हैं। दुध देनेवाली गाय अगर लात भी चलाती है, तब भी उसकी देखभाल की जाती है। मोर के पैर पर किसी की दृष्टि कम पड़ी है, उसके पंख को सभी पसन्द करते हैं। 

मानवता मनुष्य का महान गुण है !

पर बात जब मानव जाति की हो तो गुण का अर्थ व्यापक हो जाता है। मनुष्य जाति की विशेषता उसकी मानवता है। मानवीय मूल्यों के विस्तृत भाव को मनुष्य का गुण समझा जाता है। श्रमशीलता, विवेकशीलता, क्षमाशीलता, सत्यनिष्ठा, पवित्रता, करूणा, धैर्य, संतोष, आत्मविश्वास आदि विशेष लक्षणों को मानवता का गुण समझा जाता है। इन लक्षणों को विकसित कर और स्वयं के मन-मस्तिष्क में धारण कर कोई व्यक्ति विशिष्ठ हो जाता है। ज्ञानियों का कहना है कि पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती, पर मानव के सद्गगुण की महक सब और फैल जाती है।

दार्शनिक मतानुसार गुण शब्द प्रकृति के तीन अवयवों में व्यक्त होता है। मन की प्रकृति सत्व, रजस और तमस इन तीन गुणों वाली है। इन तीन गुणों से अलग प्रकृति कुछ भी नहीं है। किसी मनुष्य के गुणों का आकलन उसके प्रवृति से होता है। और जैसी उसकी प्रकृति होती है, उसकी प्रवृति भी वैसी ही होती है। सत्व की प्रधानता होने पर ज्ञान, धर्म, ऐश्र्वर्य आदि का उदय होता है। रजस गति का और तमस गति का अवरोधक है। अर्थात् तमस अज्ञान का कारण होता है। अगर किसी में तमस की प्रधानता हो तो वह उन्नतिशील नहीं हो सकता। भगवान महावीर के अनुसार ‘आलसी सुखी नहीं हो सकता, निद्रालु ज्ञानी नहीं हो सकता, ममत्व रखने वाला वैरागी नहीं हो सकता और हिंसक दयालु नहीं हो सकता’। इन गुणों की साम्यावस्था जिसमें हो, उसे ही उत्तम प्रकृति का समझा जा सकता है।

मनुष्य में तीन तरह के प्रवृतियां होती हैं, दैविक, दैहिक और भौतिक। दैविक और  दैहिक सभी जन्म के साथ ही लेकर आते हैं। दैविक संस्कार के संबंध में कहा गया है कि यह मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मों का फल होता है। मनुष्य का अचेतन मन मृत्यु के पश्चात भी आत्मा से संबंध बनाये रखता है। इस प्रकार उसके पुर्व जन्म का आचरण का प्रभाव उसके अगले जन्म में भी दिखता है। दैहिक जो होता है यह आनुवांशिक होता है। मातृ-पितृ के लक्षण कमोवेश हर किसी के आचरण में प्रगत होता है। भौतिक प्रवृति का विकास देखने-सुनने, सीखने से होता है। 

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इस बात पर चिंतन करें तो  यह स्पष्ट हो जाता है, कि शिक्षा के द्वारा उतम प्रवृति का विकास किया जा सकता है। खुद को अनुशासित कर गलत प्रवृतियों में सुधार किया जा सकता है। खुद के अन्दर निहित अवगुणों को दुर किया जा सकता है। और इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि गुणों की साम्यावस्था में ही उत्तम प्रकृति का उदय होता है। जानकारों की मानें तो गुण और ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि वगैर उच्चकोटि के अनुशासन के अभाव में संभव नहीं हो सकती। उच्चकोटि के अनुशासन से ही मन-मस्तिष्क की पूर्ण रुप से शिक्षित किया जा सकता है। 

कवि तुलसीदास के अनुसार  ‘गुणवान पुरुष उस रथ का रथी है; शौर्य और धीरज जिसके पहिए हैं, सदाचार उसकी मजबुत धवजा और पताका हैं । बल, विवेक, इन्द्रयों का वश में होना और परोपकार ये चार घोड़े हैं। जो क्षमा दया और समता रुपी डोर से रथ से जुड़े हुवे हैं।’

सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका। बल विवेक दम परहित घोरे, क्षमा कृपा समता रिजु जोरे।

ज्ञानियों का मानें तो उन्होंने यह समझाया है कि समाज हमें बताता है कि हम क्या हैं! और एकान्त हमें बताता है कि हमें कैसा होना चाहिए। गुणवान पुरूषों को भी अपने स्वरुप का ज्ञान दुसरों से ही होता है। आंख अपनी सुन्दरता का दिदार दर्पण में ही कर सकती है। आत्मावलोकन करने से स्वयं में जो कमियां वो दिखाई पड़ती हैं। और अगर गुण की चाहत गहरी हो तो अवगुण को दुर किया जा सकता है। प्रयास अगर हो तो अच्छे गुण को धारण कर हर कोई गुणवान हो सकता है। गुण ऐसी चीज अथवा भाव है जिसे स्वयं सीखना और ग्रहण करना होता है। 

महर्षि अरविन्द ने कहा है कि ‘गुण कोई किसी को नहीं सिखा सकता, दुसरों के गुण लेने या सीखने की जब भुख मन में जगती है, तो गुण अपने आप सीख लिए जाते हैं’।

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