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अध्यात्म क्या है? — What Is Spirituality?

Adhyatma kya hai

अध्यात्म एक ऐसा शब्द है जिसे परिभाषित करना कठिन है। जिन्होंने भी इसके संबंध में जो कुछ कहा है, अपने अनुभव के आधार पर कहा है। अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्त्व को जानना। गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात् जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है ‘परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते’। आज के समय में योग, प्राणायाम और ध्यान को ही अध्यात्म समझा जाता है। परन्तु इसे जानने के लिए ये केवल साधन मात्र हैं। इन विधियों के द्वारा अध्यात्म को जानने की साधना की जाती है। अध्यात्म इन सभी विद्याओं से परे है, यह महाविद्या है। इसे जान लेने के पश्चात और किसी विषय-वस्तु को जानने की आवश्यकता नहीं होती। ‘आत्मनि अधि इति अध्यात्म:’ अध्यात्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात् इसके द्वारा जीवन और मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। 

गुरुदेव स्वामी तपेश्वरानंद के शब्दों में जहां पर दर्शन का अंत होता है, वहां से अध्यात्म का मार्ग प्रशस्त होता है। जिसे अध्यात्म को जानने की चाहत हो, उसे पवित्र गीता का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। पहले गीता को पढ़ो, समझो, जानो तो भगवान को भी जान पावोगे।’

बाबा के इन शब्दों से अध्यात्म की सुक्ष्मता, महत्ता और गहराई का आभास होता है। अध्यात्म का आशय आत्मा संबंधी चिंतन से है। आध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतना को जानना, स्वयं के विषय में जानना। वगैर समग्र मानसिक चेतना और कठिन साधना के इसे जान पाना असंभव है। 

सदगुरु सामान्य शब्दों में अध्यात्म के विषय में समझाते हुवे कहते हैं; ‘शरीर का जन्म व मृत्यु होती है, जो कि न जीवन है न मृत्यु। आसान शब्दों में कहा जाय तो इस पुरी आध्यात्मिकता का उद्देश्य उस चीज को प्राप्त करने के प्रयास से है, जिसे यह धरती वापस नहीं ले सकती। अपना यह शरीर धरती से लिया गया एक कर्ज है, जिसे धरती पुरा का पुरा वापस ले लेगी। लेकिन जब तक यह शरीर आपके पास है, आप इससे ऐसी चीजें बना सकते हैं, जो ये धरती आपसे वापस नहीं ले सके। चाहे आप प्राणायाम करें या ध्यान, आपकी कोशिशें आपकी जीवन ऊर्जा को एक तरह से रुपान्तरित करने की विधि है। अगर इस सु्क्ष्म त्तत्व को पाने का प्रयत्न नहीं करेंगे तो जीवन के अंत में शरीर के साथ ही साथ अपना सबकुछ छिन जायेगा।’

आध्यात्मिक साधना मृत्यु के लिए या मृत्यु से बचने के लिए नहीं होती, बल्कि मृत्यु की जो वजह है, यानि जन्म से मुक्ति के लिए होती है।

सदगुरु

साधना और चेतना !

चेतना समझने योग्य त्तत्व है, चेतना शब्द चित से संबंधित है। इसे ज्ञान, जीवन शक्ति, भावना या विचार विचार के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। चेतना स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के त्तत्वों का बोध होने और उन्हें समझने की शक्ति का नाम है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार चेतना मानव में उपस्थित वह त्तत्व है, जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभुतियां होती है। उसी के कारण हमें सुख दुख की अनुभूति होती है। इसी के कारण हम अनेक विषयों पर चिंतन करते हैं। अनेक प्रकार के निश्चय करते हैं तथा अनेक पदार्थो की प्राप्ति की चेष्टा करते हैं। चेतना वह त्तत्व है जिसमें ज्ञान की, भाव की और क्रियाशीलता की अनुभूति होती है। जब हम किसी पदार्थ को जानते हैं तो उसके स्वरूप का ज्ञान होता है। उसके प्रति भाव पैदा होता है और उसके प्रति इच्छा पैदा होती है। अगर वह पदार्थ हमें अच्छा लगता है तो उसे पाने की कोशिश करते हैं। मानव चेतना भावनात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक होती है।

दार्शनिक नजरिये से चेतना को स्वयं प्रकाश माना गया है। भारतीय दार्शनिकों ने इसे सच्चिदानंद स्वरुप कहा है। चेतना का मतलब है मन का सबसे गहरा तल। अपनी इन्द्रियों की सीमाओं को इस तरह बढ़ाना कि अगर आप यहां बैठे हैं तो पुरा का पुरा जगत आपको अपना हिस्सा महसूस हो। यही चेतना का विकास है, यही योग है।

योग क्या है! जानिए : Know what is yog

साधना एक निरंतर की जानेवाली क्रिया है। किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर किया जाने वाला अभ्यास साधना है। सामान्यतः साधना के द्वारा अपनी योग्यता को, अपनी कुशलता को बढ़ाने का अभ्यास किया जाता है। जिस चीज की प्राप्ति से मनुष्य को सुख मिलता है, उसे वह प्राप्त करना चाहता है। इन सुखों को प्राप्त करने के लिए वह विभिन्न विधियों को जानने और समझने का प्रयास करता है। निरंतर अभ्यास में लगे रहने से वह इन विधियों में निपुण हो जाता है। और अपनी वांछित वस्तुओं को प्राप्त करने के योग्य हो जाता है।

शारीरिक, मान्सिक और आत्मिक, तीन तरह के सुख होते हैं । शारीरिक सुख की तृप्ति के बाद मान्सिक सुख और फिर आत्मिक सुख की तृप्ति की आवश्यकता होती है। आत्मिक सुख को प्राप्त करने के लिए अध्यात्मिकता के मार्ग पर चलना ही होगा। आत्मिक साधना के द्वारा मनुष्य साधारण से असाधारण बनने तक का सफर तय करता है। साधना के द्वारा मनुष्य अपने समस्त अवगुणों को दुर करने एवम् गुणों को विकसित करने का अभ्यास करता है। साधना करने से मनुष्य के भीतर ऊर्जा का संचार होता है। आत्मिक साधना ही साधना का वास्तविक स्वरूप है।

श्रीश्री आनंदमुर्ति के अनुसार ‘साधना करने से, कर्म करने से मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक प्रेरणा और भक्ति जाग उठती है।” जो मनुष्य आत्मिक संतुष्टि को प्राप्त कर लेता है, वह आनंद की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। यह जो अवस्था है, इसे प्राप्त कर लेने के पश्चात और किसी चीज की आकांक्षा नहीं रहती। साधना का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिकता ही है। साधना के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि को हासिल करना संभव हो जाता है।’

मनुष्य को जिन वस्तुओं में सुख प्राप्त होता है, उन वस्तुओं को प्राप्त करने की कोशिश करता है। श्री आनंदमुर्ति के अनुसार; ‘वस्तु की तीन अवस्थाएं होती हैं, ये तीन अवस्थाएं हैं स्थुल, सुक्ष्म और अध्यात्म। तीनों की ही अपने अपने क्षेत्र में समान महत्व है। शारीरिक, मान्सिक और आत्मिक जरुरतों को पूर्ण करने के लिए अलग-अलग साधना की जरूरत होती है। शरीर की जरूरतों की पूर्ति हेतू स्थुल अथवा जड़ की साधना करनी पड़ती है। मन की लालसा को पूर्ण करने के लिए सूक्ष्म की साधना करनी पड़ती है। और आत्मा से संबंधित तथ्यों को समझने के लिए अध्याम जरुरी है।’

अगर जड़ की साधना न हो तो शरीर का पोषण नहीं हो पाता है। अस्वस्थ शरीर से कोई कार्य ठीक तरह से नहीं किया जा सकता है। जब तक तन की जरुरतें पूरी ना हों, मन इसी विषय पर लगा रहता है।  अगर तन की जरुरतें पुरी हो जाय तो मन की भुख जाग उठती है। और मनोरंजन के अभाव में मन विद्रोही हो जाता है। अस्वस्थ शरीर और विद्रोही मन के साथ आत्मिक साधना कर पाना असंभव हो जाता है। 

मनुष्य के लिए जड़ की साधना में लगे रहना जरूरी तो है। परन्तु जड़ वस्तुओं से मनुष्य को स्थायी सुख प्राप्त नहीं होता। जड़ वस्तु सीमित है और मनुष्य की भुख असिमित है। विश्व की सारी वस्तुएं प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्य की भुख नहीं मिटती। तन की भुख के बाद मन की भुख मिटाने की जरूरत महसूस होने लगती है। तब इसके लिए सुक्ष्म की साधना करनी पड़ती है। गीत, संगीत, सत्संग, योग आदि में वह मन की भुख को मिटाने का प्रयास करता है। सुक्ष्म की साधना से मानसिक विकास का आरम्भ होता है। सुक्ष्म की साधना से मन को शांति मिलती है, मन को एकाग्र कर पाना संभव हो जाता है।

सदगुरु के अनुसार; मन की प्रकृति हमेंशा संग्रह करने की होती है। जब वह स्थुल रुप में होता है तो चीजों का संग्रह करता है। जब यह थोड़ा विकसित होता है तो ज्ञान का संग्रह करना चाहता है। मन एक संग्रह कर्ता है और हमेशा हमेशा कुछ ना कुछ बटोरना चाहता है। ये सारी बातें जिन्हें आप सोचते और महसूस करते हैं और स्वयं के बीच जब एक दुरी बनाने लगते हैं तो इसे ही हम चेतना कहते हैं। 

अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में प्रर्याप्त चेतना विकसित कर लेता है और निरंतर किसी साधना का अभ्यास करता है तो उसका यह पात्र धीरे-धीरे पूर्णतः खाली हो जाता है। चेतना पात्र खाली करती है और साधना पात्र को साफ करती है।

सदगुरु के कथनानुसार;  जिसे हम साधना कह रहे हैं वह एक अवसर है अपनी ऊर्जा को बढ़ाने का, ताकि आप अपनी सीमाओं और सभी खामियों पर नियंत्रण रख सकें जिनके कारण आप अपने विचारों और भावनाओं में उलझ गए हैं। जब आप इन दोनों पहलुओं का अपने जीवन में पालन करते हैं। जब दीर्घकाल तक चेतना और साधना का पालन और अभ्यास करते हैं, तो आपका पात्र खाली हो जाता है। जब आपके जीवन में यह खालीपन आता है, रिक्तता या शुन्यता घटित होती है तभी आप पर कृपा घटित होती हैं। वास्तव में कृपा के बिना कोई कहीं भी नहीं पहुंचता। अगर आप कृपा का अनुभव करना चाहते हैं तो आपको रिक्त होना पड़ेगा। आपको अपने पात्र को पूर्णतः खाली करना पड़ेगा।

आध्यात्मिकता व्यक्ति के आंतरिक एवम् बाह्य जीवन को प्रभावित करने का लगातार प्रयास करती है। आत्मनिर्माण के क्रम में आत्मसुधार करते हुए मानव के मन में निहित आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं में महत्ती परिवर्तन होता है। आध्यात्मिकता को प्राचीन भाषा में ब्रम्हविद्या कहा गया है। यह उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तव्य की एक परिष्कृत जीवन पद्धति है। इसे अपनाने से मनुष्य के भीतर संतुष्टि का भाव उत्पन्न होता है। अतः मनुष्य के संपूर्ण विकास का, उसके जीवन के सफलता का आधार आध्यात्मिकता ही है। 

श्री राम शर्मा आचार्य के अनुसार ‘अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मीयता का विस्तार है।

प्रेम ही परमेश्वर है का सिद्धांत यहां अक्षरशः लागु होता है। वासना के आकर्षण में प्रेम की संभावना ही उन्माद पैदा करती है। वासना के अंधकार में प्रेम प्राय: लुप्त हो जाता है। और वासना के लोप में प्रेम की यथार्थता इतनी मार्मिक होती है कि प्रेम देनेवाला और प्रेम पानेवाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं। वेदना ने आत्मा के परिष्कृत स्वरुप को ही परमात्मा माना है। और उत्कृष्टता से भरा पुरा अंत:करण ही ब्रम्हलोक है।’

माया मरी न मन मरा मर-मर गया शरीर। आशा तृष्णा ना मरी कह गये दास कबीर।।

संत कबीर कहते हैं कि शरीर, मन, माया सब का नाश हो जाता है। पर मन में उठनेवाली आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती। इसलिए सांसारिक बंधनों , मोह और माया के जाल में लिप्त रहना मुक्ति के मार्ग में बाधक होता है।आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्वविदित है। परन्तु जब तक हम इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं संशय और अविश्वास की स्थिति में पड़े रहते हैं। भौतिक जरूरतों की पूर्ति करने में लगे रहते हैं। सांसारिक बंधनों में आनंद ढुंढने में लगे रहते हैं। परन्तु यह सबकुछ क्षणिक ही होता है। अन्तर्दृष्टि के अभाव में हम जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हैं। जीवन में दुख है, इसका कारण अज्ञानता का अंधकार ही है। आध्यत्मिकता मनुष्य को इस अंधकार से बाहर निकलने का मार्ग प्रशस्त करता है।

जीवन में दुख क्यों है? – Jeevan Me Dukh Kyun Hai? 👈

ओशो के शब्दों में ; चीजें जैसी दिखाई पड़ती हैं, उनको वैसी ही मत मान लेना। उनके भीतर बहुत कुछ है, जिसे देखने के लिए अन्तर्दृष्टि की जरूरत पड़ती है। गौतम बुद्ध एक महोत्सव में भाग लेने जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक बुढ़े आदमी को देखा। किसी बुढ़े को उन्होंने पहली बार देखा था। जब गौतम बुद्ध का जन्म हुआ, तो ज्योतिषियों ने उनके पिता से कहा कि ‘यह बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या सन्यासी होगा। उनके पिता ने पूछा कि मैं इसे सन्यासी होने से कैसे रोक सकता हूं ? ज्योतिषी ने बड़ी अद्भुत बात कही! वह समझने वाली है। उसने कहा इसे सन्यासी होने से रोकना है तो इसे मौके मत देना। ऐसे मौके मत देना जिससे इसमें अन्तर्दृष्टि पैदा हो जाय। इसकी बगिया में में फूल कुम्हलाने से पहले अलग कर देना। क्योंकि कुम्हलाया हुवा फूल देखकर यह पूछेगा, क्या फूल कुम्हला जाते हैं ? और फिर पूछेगा क्या मनुष्य भी कुम्हला जाते हैं ? और यह भी पूछेगा क्या मैं भी कुम्हला जाऊंगा ? और इसमें अन्तर्दृष्टि पैदा हो जायगी! इसके आसपास बुढ़े आदमी को मत आने देना। अन्यथा यह पूछेगा कि क्या मैं भी बुढ़ा हो जाऊंगा ? यह कभी मृत्यु को न देखे, पीले पत्ते गिरते हुवे न देखे। अन्यथा पूछेगा पीले पत्ते गिर जाते हैं! क्या मनुष्य भी एक दिन पीला होकर गिर जायगा ? क्या मैं भी गिर जाऊंगा ? और इसमें अन्तर्दृष्टि पैदा हो जायगी! पिता ने ऐसी व्यवस्था की कि बुद्ध ने अपने युवा होने तक पीला पता, कुम्हलाया हुवा फूल, बुढ़ा आदमी नहीं देखा, मरने की कोई खबर नहीं सुनी। लेकिन यह कब तक हो सकता था! बुद्ध को उनके पिता ने बहुत मुश्किल से रोका! तब भी उन्होंने एक दिन वह सब देख लिया। आपको किसी ने नहीं रोका है! और आप तब भी नहीं देख पा रहे हो! आपके पास अन्तर्दृष्टि नहीं है।

आत्मा के विषय में, जीवन के विषय में, परमात्मा के विषय मे, अगर जानना हो तो अन्तर्दृष्टि के विना यह कैसे संभव हो पायगा। आध्यात्मिकता के द्वारा वह सब-कुछ संभव हो जाता है।

ईश्वर है या नहीं ! इसपर रामकृष्ण परमहंस ने कहा है कि “रात में आसमान में देखने से तारे दिखाई देते हैं, लेकिन सुर्योदय के बाद एक भी तारा नही दिखता। परन्तु इसका यह मतलब तो नहीं कि आकाश में तारे नहीं हैं! इसलिए हे मनुष्य अगर तुम ईश्वर को नहीं देख सकते तो यह मत कहो कि ईश्वर नहीं है।”

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मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है।

अरविंद

महर्षि अरविन्द के अनुसार भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि उच्च कोटी के अनुशासन के विना संभव नहीं हो सकती, जिसमें की आत्मा और मस्तिष्क की पूर्ण शिक्षा निहित है। उन्होंने सर्वप्रथम यह घोषणा की कि मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है। महर्षि के अनुसार समग्र जीवन दृष्टि मानव के ब्रम्ह में लीन हो जाने पर विकसित होती है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा मानव अतिमानव बन जाता है। जब व्यक्ति शारीरिक, मान्सिक एवं आत्मिक दृष्टि से एकाकार हो जाता है तों उसमें दैवि शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। महर्षि ने कहा है कि  ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्मसमर्पण और मान्सिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैविक स्वरुप में परिणत किया जा सकता है। समग्र जीवन दृष्टि हेतू अरविंद ने योगाभ्यास पर अधिक बल दिया है। अरविंद की दृष्टि में योग, कठिन आसन, प्राणायाम का अभ्यास नहीं है। बल्कि ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्मसमर्पण करना तथा मानसिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैवी स्वरुप में परिणत करना है।

12 thoughts on “अध्यात्म क्या है? — What Is Spirituality?”

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  6. अध्यात्म कैसे करूं कहां से सहायता लें कृप्या मार्ग दर्शन करें

    1. महोदय 🙏 केवल इतना कह सकता हूं कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए योग को अपनाएं।

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