कोई ऐसा गुण या सामर्थ्य जिससे कोई किसी कार्य के लिए उपयुक्त हो सके। किसी व्यक्ति के कार्य करने के कौशल को उसकी योग्यता समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति हर उस काम में आनंद ले सकता है, जिस काम की योग्यता उसके पास होती है। शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि योग्यता का विकास शिक्षा से होता है।
योग्यता योग्य होने की अवस्था है !
विद्या दताति विनयम् विनयम् दताति पात्रताम्। पात्रन्वाध्दनयाप्नोति धनाध्दर्म तत:सुखम्।।
अर्थात् विद्या विनम्रता प्रदान करती है, विनम्रता से योग्यता का विकास होता है, और योग्यता ये धन की प्राप्ति होती है। इस प्रकार योग्यता से प्राप्त धन का उपयोग धर्म के कार्य में होता है, जिससे सुख की प्राप्ति होती है। इसका तात्पर्य यह है कि विद्या मनुष्य को सदैव सर्वश्रेष्ठ कार्य करना सिखाता है। अतः मनुष्य को ज्ञानवान होने की महत्ती आवश्यकता है।
विद्या ज्ञातव्य बिषयों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने की एक कला है। विद्या वह गुण है, जिसे हम देखने-सुनने-पढ़ने अर्थात् शिक्षा के द्वारा ग्रहण करते हैं। ज्ञान, अनुभव, शिक्षा आदि की दृष्टि से वह गुण जिसके आधार पर कोई किसी कार्य के लिए उपयुक्त होता है, वह योग्य समझा जाता है। मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में ‘कार्य कुशल व्यक्ति की हर जगह जरूरत होती है।’
विद्या प्राप्त करने से धन की प्राप्ति होती है, संपति की प्राप्ति होती है। परन्तु धन का अर्थ सिर्फ भोतिक वस्तु अथवा द्रव्य नहीं होता। विवेक, धैर्य, इच्छाशक्ति, सहनशीलता, परोपकार की भावना आदि जो गुण होते हैं, अमुल्य होते हैं। और विद्या से हमें इन अमुल्य संपदाओं की प्राप्ति होती है। अगर शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ भोतिक वस्तुओं को प्राप्त करना और संग्रह करना भर है। तो वास्तव में केवल इस गुण के साथ कोई योग्य नहीं कहलाता।
सुमति है तो सम्पति है : wisdom is your property..!
योग्यता एक ऐसी चीज है जो प्रत्येक व्यक्ति के भीतर पायी जाती है। जरुरत है अपनी योग्यता को पहचानने का। उसे शिक्षा के द्वारा, साधना के द्वारा विकसित करने का। जब व्यक्ति स्वयं को योग्य बना लेता है, तो सबकुछ स्वयं उसके आस-पास चला आता है।
संत कबीरदास ने कहा है कि सर पर पोटली लादकर कोई इस संसार से नहीं जाता है। इसिलिए संग्रह ऐसी होनी चाहिए जो जीवन को सार्थक कर दे।
कबीर वो धन सांचिए जो आगे कूं होय। सीस चढ़ाए पोटली ले जात ना देख्या कोय।।
संग्रह करने की मानसिकता अगर है, तो इसके लिए दोषी कौन है ! मूलतः शिक्षा ही इसके लिए दोषी है। शिक्षा से ही हम सीखते हैं कि कैसे अधिक से अधिक चीजों का संग्रह किया जाय। परन्तु इन चीजों का चाहे कितना भी संग्रह कर लिया जाय, कोई मायने नहीं रखता। इस संग्रह से यह संभव है कि भौतिक जीवन के गुणवत्ता को विकसित किया जा सकता है। इस संग्रह में लगे रहकर कोई मुक्त नहीं हो सकता। अपने जीवन में चेतना को जगाने के लिए आंतरिक समझ की जरूरत होती है।
एक प्राचीन कथा है कि श्वेतकेतु नामक एक बालक विद्या प्राप्त करने के उद्देश्य से गुरुकुल गया। सौलह वर्षों के उपरान्त स्नातक होकर वह घर लौटा। उसके भीतर योग्य होने का अहंकार आ गया था। घर पहुंचा तो उसने अपने पिता को प्रणाम किया। पुत्र के प्रणाम के मुद्रा ने पिता को उसके भीतर के अंहकार का आभास हुआ। तब पिता उद्दालक ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा ; प्रिय पुत्र क्या तुम गुरुकुल से स्नातक हो गये ? उसने अपने पिता की ओर अहंकार की दृष्टि से देखकर कहा हां! मैं स्नातक हो गया हूं!
पिता ने फिर कहा; पुत्र क्या तुम वह भी जानकर आये हो जिसे जानने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता! जिसे जानने के लिए मनुष्य इस संसार में आता है। पिता से ऐसा सुनकर श्वेतकेतु का मन विचलित हो गया। उसने कहा ऐसा तो कुछ भी मैने नहीं पढ़ा। पिता ने कहा पुत्र आध्यात्मिक यात्रा यहीं से शुरू होती है। आध्यात्म की यात्रा शुरू करने से ही उसे जानना संभव हो पायगा। जिसे जान लेने के बाद कुछ और जानने की इच्छा नहीं होती। जब यह जान जावोगे तो सबकुछ जान जावोगे, वह एक ही शक्ति है परमात्मा! यह सुनकर उसका अहंकार टुट गया।
मेंरे परम पूज्य स्वामी तपेश्वरानंद के शब्दों में’ जहां दर्शन का अंत होता है, वहां से आध्यात्म की यात्रा की शुरुआत होती है। पहले गीता को पुरे मन से पढो ! बार बार पढो! समझो, आत्मसात करो तो फिर परमात्मा को जान पावोगे। और परमात्मा को जान लेना ही जीवन का परम लक्ष्य है।’ योग्यता का सही तात्पर्य है, खुद को उस अवस्था तक ले जाना, जहां पर परमात्मा से साक्षात्कार हो सके।
आत्मनिर्भरता का अर्थ : Meaning of self Reliance 👈
सदगुरु के शब्दों में ‘आध्यात्मिकता व्यक्ति के आंतरिक एवम् बाह्य बाह्य जीवन को प्रभावित करने का लगातार प्रयास करती है। आत्मनिर्णय के क्रम में आत्मसुधार करते हुए मनुष्य के मन में निहित आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं और अभिरूचियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होता है। बहिरंग जीवन में आध्यात्मिकता की प्रतिक्रिया श्रमशीलता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सद्वयवहार, ईमानदारी, शालिनता न्यायनिष्ठा, जनसेवा, उदारता जैसे आचरणों में प्रगट होती है।’
मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां ‘नर हो न निराश करो मन को’ हमारी चेतना को जगाने का प्रयास करती हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि का कहने का तात्पर्य यह है कि हे मानव तुम्हारा जन्म मानव जाति में क्यों हुवा है! जन्म लेने के गहन अर्थ को समझने का प्रयास करो और अपने तन को इसके अनुसार उपयुक्त करो। अपने मन के निराशा को, अज्ञान को, त्याग कर अपना कर्त्तव्य करो।
कुछ काम करो कुछ काम करो, जग में रह कर कुछ नाम करो। यह जन्म हुवा किस अर्थ अहो, समझो जिसमें की व्यर्थ न हो। कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को।
अब प्रश्न यह है कि हम अनेक घटनाओं, विषयों के संबंध में जानकारी प्राप्त करते हैं। देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं, परन्तु वास्तव में हम कितना जान पाते हैं! जीवन में जानना तो बहुत आसान है, पर उसे समझकर आत्मसात करना बहुत ही कठिन होता है। विद्या तब तक निरर्थक होती है, जब तक वह जीवन का एक अभिन्न अंग ना हो जाय। जब किसी के जीवन में नम्रता उत्पन्न होने लगती है, तो वह सुयोग्य होने लगता है। नम्रता से जीवन में पात्रता आती है।
जीवन में योग्यता को बढ़ाने के बहुत से साधन हैं, जिनका प्रयोग करना लाभकारी होता है। शान्त मन से बैठ कर यह सोंचना कि प्रगति के मार्ग में कौन-कौन सी चीजें बाधक हैं! बाधाओं को कैसै दुर किया जाय और कैसे खुद को उत्साहित किया जाय! इस चिंतन के साथ अगर अगर जीवन में सकारात्मक कदम उठाया जाय तो जीवन भी सुधरेगा और योग्यता भी बढ़ेगी। जीवन में योग्यता विकसित होती है तो सर्वप्रथम रोजमर्रा के क्रिया कलापों में परिवर्तन दिखना शुरू हो जाता है।इस बदलाव से घर में प्रेम, परस्पर विश्वास, कार्य करने की नवीन शक्तियां आदि का विकास होने लगता है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने योग्यता बढाने के लिए प्रार्थना, उपासना, ध्यान करना चाहिए। चिंतन के साथ साथ अगर जीवन में प्रार्थना हो तो परमात्मा की कृपा से संतुष्टि और खुलहाली प्राप्त होती है। थोड़ा पाकर भी खुशी मिलती है, किस्मत का रोना नहीं रोते। इस प्रकार योग्यता विकसित होने से शांति की लगन लग जाती है। व्यक्ति कम संसाधनों में रहकर भी भजन करने वाला बन जाता है। जीवन में उन्नति, समृद्धि, सुख-शांति के पीछे योग्यता का ही हाथ होता है।
संतोष क्या है ..! What is satisfaction ! 👈
उत्कृष्ठ चिंतन और आदर्श कर्तव्य के परिष्कृत जीवन पद्धति के विना योग्यता का विकास नहीं हो सकता। इसे अपनाने से मनुष्य के भीतर संतुष्टि का भाव उत्पन्न होता है। इस प्रकार से देखने पर मनुष्य के पुर्णता का आधार आध्यात्मिकता ही है।और पात्रता यानि योग्यता पूर्णता के लिए पहली शर्त है।
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