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आए थे हरि भजन को …

आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। इस लोकोक्ति का सामान्य अर्थ है कि करना कुछ था और करने कुछ और लग गए। जो करना चाहिए, जो कार्य करना महत्वपूर्ण है, उसे न कर अन्य कार्यों में लग जाने से व्यक्ति अपने उद्देश्य से विमुख हो जाता है। जब कोई किसी उद्देश्य के साथ कहीं जाता है, परन्तु उसे भूलकर अन्य गतिविधियों में लग जाता है तो उसके लिए यह उक्ति चरितार्थ होती है।

परन्तु क्या हम इस उक्ति में निहित गहन अर्थ को समझते भी हैं? अधिकांशतः इस उक्ति का प्रयोग जीवन के सामान्य गतिविधियों को लेकर ही किया जाता है। सामान्यतः जिसका जो भी कर्तव्य है, यहां कर्तव्य का आशय सांसारिक कर्तव्यों से है। इनका निर्वहन नहीं करनेवाले, अर्थात् अपने कर्तव्य से विमुख व्यक्तियों पर यह उक्ति प्रयुक्त होती है।

परन्तु गहन अर्थों में यह उक्ति मनुष्य जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटकाव की ओर इशारा करती है। मनुष्य जीवन का मुख्य कर्तव्य क्या है? और जीवन भर वह किन किन गतिविधियों में लिप्त रहता है? जिन क्रिया कलापों में वह व्यस्त रहता है, क्या इनसे उसके वास्तविक उद्देश्य की पूर्ती होती है? इन सारे प्रश्नों का समाधान इस उक्ति में निहित है। 

आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।

आम लोगों के बीच प्रचलित इस उक्ति में मुख्यत: दो क्रियाओं का उल्लेख है। एक है भजन का, और दूसरी क्रिया कपास ओटने का है। भजन एक ऐसी क्रिया है जिसका संबंध भक्ति से है। हरि भजन – अर्थात् ईश्रर की स्तुति की क्रिया। ईश्वर का गुणगान करने, नाम स्मरण करने की जो क्रिया है, हरि भजन कहलाता है। 

कपास से रुई बनाया जाता है, जिसका उपयोग वस्त्र निर्मित करने के लिए किया जाता है। इस उक्ति में कपास ओटने की जो क्रिया है, इस क्रिया का संबंध भोग से है। कपास ओटने की क्रिया का तात्पर्य सांसारिक भोग तक सीमित है। जबकि भजन की क्रिया का तात्पर्य योग से है। 

इस उक्ति में जो भावार्थ छुपा है, वह है कि मनुष्य का जन्म इस धरा पर भजन करने के लिए होता है। प्रभु नाम का स्मरण करने के लिए होता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परमात्मा का अनुभव करना है। परन्तु इस संसार में आकर मनुष्य अपने उद्देश्य को भूल जाता है। धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा को पाने में लगा रहता है। जीवन पर्यन्त इन्हीं गतिविधियों में लगा रहता है। 

लोकोक्तियों की रचना ज्ञानियों के द्वारा की गयी है। ज्ञानियों की जो रचनाएं हैं, किसी विशेष के लिए नहीं होतीं, मनुष्य मात्र को संबोधित करती हैं। इस संसार में हमारा आना हुवा, किसने हमें भेजा और क्यों भेजा? यह विचारणीय है, यह जो विषय है, वास्तव में यही चिंतन का विषय है। यही जानना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, और इसे योग से जाना जा सकता है। इसे ध्यान क्रिया के अभ्यास से जाना जा सकता है, भक्ति के मार्ग पर चलकर जाना जा सकता है। 

भक्ति में प्रबल शक्ति है, भक्ति के सागर में गोता लगाकर भगवत कृपा रुपी मोती को पाया जा सकता है। यह जो जीवन है, परमात्मा से प्रेम करने के लिए मिला है। और परमात्मा का अंश के रूप में आत्मा, जो कि जीवन ऊर्जा है। इसी ऊर्जा का अनुभव करना मनुष्य का परम कर्तव्य है। इसे जान लेना ही स्वयं को जानना है। और जो स्वयं को जान पाते हैं, वे परमेश्वर को जान जाते हैं। जिन्होंने जाना है, उन्होंने बताया है कि सदुपाय करने से सभी इसे जान सकते हैं। 

आए थे हरि भजन को – भजन करने आए थे, प्रभु नाम का गुणगान करने आए थे, भक्ति करने आए थे। ओटन लगे कपास – लेकिन ऐसा न करके, सांसारिकता में लिप्त होकर रह गए। योग को भूलकर भोग में रम गए, गहन अर्थों में यह उक्ति इसी तथ्य को इंगित करती है।

लेकिन इस उक्ति की गहनता को सामान्य मनुष्य समझ नहीं पाता है। ऐसा नहीं कि समझा नहीं जा सकता, परन्तु इसे समझने का प्रयास ही नहीं किया जाता है। जिन्होंने प्रयास किया समझने का, उन्होंने समझ लिया। और जिन्होंने समझ लिया,  जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल भी हुवे। ऐसे अनेक व्यक्तित्व का उदाहरण इस जगत में उपलब्ध है। गौरतलब है कि अगर किसी ने ऐसा कर दिखाया है, तो यह असंभव नहीं है। 

परन्तु असंभव प्रतीत होता है, असाध्य प्रतीत होता है। क्योंकि प्रश्न विश्वास का है, भरोसे का है। सांसारिकता समझ का विषय है, क्योंकि यह दृश्य है। सामान्य मनुष्य मन के मते चलता है। और इंद्रियां जो मन के अस्त्र हैं, इनके द्वारा जो अनुभव होता है, सच प्रतीत होता है। कपास ओटने कि जो क्रिया है, उसका परिणाम समझ में आता है। पर भजन का परिणाम प्रत्यक्ष नहीं होता। और जिसे भजने की सीख ज्ञानियों ने दिया है, वह भी प्रत्यक्ष नहीं है। जो प्रत्यक्ष नहीं है, मनुष्य की बुद्धि वहां पर सिमट जाती है। 

भाव विना नहीं भक्ति जग, भक्ति विना नहीं भाव।

यह उक्ति संत कबीर का है। शाब्दिक अर्थ है कि इस संसार में विना भाव के भक्ति नहीं हो सकती, और विना भक्ति के भाव नहीं हो सकता। यहां भाव का तात्पर्य प्रेम से है। प्रेम जहां है, वहां भक्ति भी होगी। और जहां भक्ति होगी वहां प्रेम भी होगा।

ओटन लगे कपास – इस उक्ति में कपास का तात्पर्य सांसारिकता से है। सांसारिक गतिविधियों में लिप्त रहने को यहां कपास ओटना कहा गया है। और कबीर ने जिस भाव की बात कही है, वह सांसारिकता का विषय नहीं है। यह मन का विषय नहीं है, इंन्द्रिय सुख का विषय नहीं है। सांसारिकता में जो भाव है, वह लगाव हो सकता है, आसक्ति हो सकती है। और जहां लगाव है, वहां अलगाव भी है। जहां आसक्ति है, वहां विरक्ति भी है। मनुष्य इस संसार में आकर आसक्ति और विरक्ति के बीच झुलता रहता है। और जीवन पर्यन्त दुख उठाता रहता है। 

आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास – आखिर इस उक्ति में निहित वास्तविक अर्थ को मनुष्य समझ क्यों नहीं पाता। यह जो समझ है, उसमें जागृत कैसे हो सकता है? ज्ञानी कहते हैं, योग से हो सकता है, ध्यान से हो सकता है। परन्तु जो थोड़ा बहुत प्रयास भी करते हैं, उन्हें नहीं हो पाता, और निराश हो जाते हैं। इन्द्रिय सुख की लालसा उन्हें इन कठिन क्रियाओं का निरंतर अभ्यास करने भी नहीं देती। 

भक्ति पदारथ तब मिलै, जो गुरु होय सहाय।

कबीर ने कहा है कि भक्ति जैसी अतुल्य पदार्थ तभी मिल सकती है, जब किसी समर्थ, समझदार अर्थात् गुरु का सानिध्य प्राप्त हो। कबीर ने जिस भाव की बात कही है, निरंतर अभ्यास करने से, कठिन परिश्रम करने ही जग सकता है। और इस समझ को जगाने के लिए किसी समझदार की जरूरत होती है। सत्संग हो तभी सत्कर्म की संभावना होती है। और तभी ‘आए थे हरि भजन को’ इस बात को ठीक प्रकार से समझा जा सकता है।

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