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नर हो न निराश करो मन को …

नर हो न निराश करो मन को – मैथिली शरण गुप्त की एक कविता की पंक्ति है। इसमें ‘नर’ एवम् ‘निराश’ दो शब्दों पर ध्यान आकर्षित किया गया है। एक और शब्द ‘मन‘ है, निराश होने का संबंध मन से ही है। मन ही निराश होता है, जब उसकी आश पूरी नहीं होती, तो वह निराश हो जाता है। 

‘नर’ शब्द मनुष्य के लिए प्रयुक्त होता है, जो एक पुरुष वाचक संज्ञा है। इस शब्द का एक पर्यायवाची शब्द नायक भी है। नायक का संबंध धीरता से है, नायक यानि वीर पुरुष। इस पंक्ति में ‘नर’ को वीर पुरुष के रूप में संबोधित किया गया है। जहां वीरता का भाव हो, वहां निराशा के लिए कोई जगह नहीं है। वीर पुरुष का मन में तो आशा और उत्साह का संचार होना चाहिए।

नर हो न निराश करो मन को!

कुछ काम करो कुछ काम करो, जग में रह कर निज नाम करो।

यह कविता मानव मात्र को कर्म में लगे रहने का आवाहन देती है। कवि कहते हैं- हे मानव, यह जो जीवन है, निराशा में व्यतीत करने के लिए नहीं मिला है। तुम नर हो, वीर हो, धीर हो, फिर तुम निराश क्यों हुवे जाते हो। कर्म में लगे रहो, यही तुम्हारा कर्तव्य है। कुछ ऐसा करो, जिससे की तुम्हारे यश में वृद्धि हो। कुछ ऐसा करो कि इस संसार में तुम्हारे नाम का गुणगान हो।

यह जन्म हुवा किस अर्थ अहो, समझो जिसमें कि व्यर्थ न हो।। कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को।।- मैथिली शरण गुप्त

इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने मनुष्य मात्र को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हेे मानव, तुम्हारा जन्म इस धरा पर क्यों हुवा? तुम्हारे इस संसार में जन्म लेने का कारण क्या है? जन्म लेने का उद्देश्य क्या है? इन प्रश्नों का हल तुम्हें ही खोजना होगा। अगर नहीं खोज पाए, त़ो समझो तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो गया। अपने तन को स्वस्थ कर, अपने मन को निर्मल कर, तुम्हें इन सवालों का जबाव खोजना होगा। जो तन तुम्हें मिला है, उसका उपयोग इन्हीं सवालों को खोजने में करना होगा। मन में व्याप्त निराशा की छाया को, अज्ञानता के अंधकार को मिटाना होगा। इसके लिए तुम्हें कर्म करना ही होगा। 

संभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुवा सदुपाय भला।। समझो जग को न निरा सपना, पथ आप प्रशस्त करो अपना।। परमेश्वर हैं अवलंबन को, नर हो न निराश करो मन को।।

कवि के कहने का भावार्थ है कि मनुष्य रूप में जन्म लेना ही एक अवसर है, यह अवसर तुम्हें मिला है। स्वयं को जानने के लिए, आत्म स्वरूप का अनुभव करने के लिए। यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य से है। इसे व्यर्थ मत जाने दो, अवसर बार बार नहीं मिलता। अपने जीवन को सार्थक करने का प्रयत्न करो, कर्म करो। कोई भी सदुपाय कभी व्यर्थ नहीं जाता। जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जो उपाय बताए गए हैं, इन उपायों का अभ्यास निरर्थक नहीं होता। इन उपायों का अभ्यास कठिन है, परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो सत्कर्म में लगते हैं, उनका अवलंबन स्वयं परमेश्वर करते हैं।

चाह तो है, सागर तट पर खड़े होने की,
पर लहरों से डर लगता है।
ना मीरा की जैसी भक्ति है,
अथाह में डुब जाने की‌।
और न श्रीराम की जैसी शक्ति है,
उमड़ते सैलाव को सुखाने की।

कोई दयावान, विनम्र लहर के आलिंगन की,
मन में आस जगाए रखता हूं।
परमेश्वर हैं आलिंगन को,
नर हूं क्यों निराश करुं मन को।

साभार _ Adhyatmapedia

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