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चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनकर लौटे ।।

चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनके लौटे – यह एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है। यह उक्ति उन्नति के स्थान पर अवनति, लाभ के स्थान पर हानि, सफलता के स्थान पर असफलता को इंगित करती है। 

किसी भी लोकोक्ति के भीतर एक गहन अर्थ छुपा होता है। सुनने बोलने में सामान्य, पर उन्हें ठीक प्रकार से समझ पाना कठिन होता है। क्योंकि लोकोक्तियों का प्रतिपादन ज्ञानियों के द्वारा की गयी है। चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनके लौटे – एक ऐसी ही उक्ति है। इसमें चौबे, दुबे आदि शब्द़ों का प्रयोग किसी व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष के लिए नहीं किया गया है।

यह जो उक्ति है, इसमें मुख्य रूप से चौबे, छब्बे और दुबे तीन शब्दो का प्रयोग किया गया है। हिंदी व्याकरण के परिप्रेक्ष्य में ‘चौबे’ शब्द चतुर्वेदी का अपभ्रंश है। और ‘दुबे’ शब्द द्विवेदी से बना है। चतुर्वेदी से आशय है, चारों वेदों का ज्ञाता। इसी प्रकार दो वेदों का ज्ञाता के लिए द्विवेदी शब्द का प्रयोग होता है। और छब्बे का आशय  छः वेदों का ज्ञाता से है। 

लेकिन वेद तो चार ही हैं, छः तो हैं नहीं। जो है नहीं, जो उपलब्ध ही नहीं है, उसकी जानकारी नहीं ली जा सकती, यह असंभव कृत्य है। जो है नहीं, उसे से पाना या जानना संभव नही होता। केवल कल्पना के आधार पर, जिद के बल पर पाने अथवा जानने की चेष्टा करो, तो जो है उसे भी खो देने की संभावना होती है। 

सामान्यतः हर किसी की इच्छा आगे बढ़ने की होती है। हर एक व्यक्ति किसी कार्य को लाभान्वित होने की मंशा के साथ करता है। परन्तु अधिकांशतः लोग सफलता मिलने पर भी  संतुष्ट नहीं हो पाते। जो मिल गया, उससे और अधिक पाने की लालसा उनमें बनी रहती है। फलस्वरूप और अधिक प्राप्त करने की चेष्टा में लग जाते हैं। इसी क्रम में जब लाभ के जगह हानि होती है, तो संबंधित व्यक्तियों पर यह उक्ति चरितार्थ होती है। 

आकांक्षा मन का विषय है, मनोभाव है, जिसके विभिन्न रुप हैं। धन की आकांक्षा, पद की आकांक्षा, मान-सम्मान की आकांक्षा आदि इसके अनेक रुप हैं। इन सबके मूल में जो है, वह महत्व की आकांक्षा है। जो है, उससे कोई संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि दुसरों के पास उससे भी अधिक होता है। इस असंतोष के कारण व्यक्ति दुसरों से आगे निकलने का प्रयास करता है। महत्वाकांक्षा के मूल में यही कारण मौजूद होता है।

यह वाक्य वैसे लोगों पर सटीक मालुम पड़ता है, जो अपनी सीमाओं को लांघने का प्रयास करते हैं। महत्व की आकांक्षा ऐसों को खुद का आकलन करने का अवसर ही नहीं देती। ऐसे लोग महत्वपूर्ण होने के लिए अपनी सीमाओं को लांघने का प्रयास करते हैं, जिसके कारण असफल हो जाते हैं।

कहते हैं कि समाज आइना होता है। आइना, जिसके समक्ष प्रस्तुत होने पर अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है। अगर कोई आकर्षक दिखना चाहता है, तो उसे सज धजकर आइना के सामने खड़ा होना पड़ता है। 

समाज रुपी आइना भी प्रत्येक को प्रतिबिंबित करता है। कौन क्या है? कैसा है? यह समाज ही तय करता है। किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके विचारों, कर्मों से जुड़ी होती है। समाज रुपी आइना में सुन्दर छवि उन्हीं लोगों का उभरकर आता है, जो चारित्रिक रूप से उत्तम होते हैं। अनुशासित एवम् चरित्रवान व्यक्तियों पर यह उक्ति चरितार्थ नहीं होती।

सामान्यतः यह देखा जाता है कि इस उक्ति का प्रयोग व्यंग्य के रूप में होता है। यह हमेंशा दुसरों के लिए ही प्रयुक्त होता है। लेकिन यह कोई व्यंग नहीं है। और ना ही इस उक्ति में प्रयुक्त शब्द किसी जाति, वर्ग अथवा समुदाय को इंगित करते हैं। 

लोकोक्तियों की रचना ज्ञानियों के द्वारा की गयी है। और ज्ञानियों ने जो भी कहा है, वह मनुष्य मात्र के चारित्रिक उन्नति के लिए कहा है। इस उक्ति के रचनाकार का मंशा किसी पर व्यंग करने की रही होगी, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। व्यंग के रुप में इसे प्रयोग करनेवाले इसमें निहित अर्थ से अनभिज्ञ होते हैं। 

यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह उक्ति जिन लोगों पर चरितार्थ होती है, वे तो साधारण होते ही हैं। और जो लोग इसे दुसरों पर व्यंग करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं, वो इनसे भी गए गुजरे होते हैं। क्योंकि किसी और के विषय में बोलने से पहले वो खुद का आकलन नहीं करते। ऐसे लोग इस उक्ति के रुप को बिगाड़ कर रख देते हैं। अर्थ का अनर्थ कर देते हैं, क्योंकि ज्ञानियों की बातें साधारण के समझ में नहीं आती। 

इस उक्ति का प्रयोग चरित्रवान व्यक्तियों द्वारा किसी पर नहीं किया जाता है। और जो चारित्रिक रूप से विकसित होते हैं, उन पर इस उक्ति का प्रयोग किया भी नहीं जा सकता। चरित्रवान लोग अपनी सीमाओं को कभी लांघने का प्रयास नहीं करते। वैसे लोग अपनी उन्नति के लिए कार्य अवश्य करते हैं, लेकिन उनकी उन्नति में दुसरों का हित भी जुड़ा होता है। ऐसे लोग परोपकार के लिए कार्य करते हैं। ऐसे लोग महत्वपूर्ण होने के लिए कार्य नहीं करते, पर महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

गहनता से विचार करें तो भारतीय पौराणिक शास्त्रों में जो प्राचीनतम ग्रंथ है, वह वेद हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, शामवेद और अथर्ववेद, वेद के चार प्रकार हैं। इन सभी वेदों का संबंध ज्ञान से है, वह ज्ञान जिसके उद्भव हो जाने से व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है। जितने भी सकारात्मक भाव, विचार एवम् गुण हैं, सभी ज्ञान के अवयव हैं। और ज्ञान ईश्वर का विषय है, ब्रम्ह का विषय है। प्राणियों में जो प्राण ऊर्जा है, जिसके होने से जीवन का अस्तित्व है, ईश्वर का अंश है, जिसे आत्मा कहा गया है। 

यह ब्रम्हांड ईश्वर का ही रचना है, और उन्हीं के द्वारा संचालित होता है। प्रत्येक जीव में जो जीवन ऊर्जा है, ब्रम्ह का ही अंश है, ब्रम्हाणु है। जो आत्मज्ञानी होते हैं, इस ब्रम्हाणु को, अर्थात् आत्मा को जानने में सक्षम होते हैं। यही कारण है कि उन्हें सभी समान नजर आते हैं। उनमें समस्त संसार के प्रति एकत्व भाव का उद्भव हो जाता है। जो आत्मज्ञानी होते हैं, वे ब्रम्ह को जाननेवाले होते हैं, और वास्तव में वही ब्राह्मण होते हैं।

ब्राम्हणत्व एक शक्ति है, जो ब्रम्ह को जानने में सक्षम हो जाता है, वो ब्रम्ह के करीब हो जाता है, ब्रम्ह के सदृश हो जाता है। जो वास्तव में ब्राम्हणत्व को प्राप्त कर लेता हो, वह कभी ब्राम्हण होने का दम्भ नहीं भरता। वह तो अपने आपको सेवक के भांति प्रस्तुत करता है। एक सच्चा ब्राम्हण अपना सारा जीवन जन कल्याण हेतू समर्पित कर देता है। उसे वंश और कुल के आधार पर भी नहीं देखा जाता है। इस धरा पर अवतरित होनेवाले जितने भी व्यक्तित्व पूज्य हैं, सभी ब्राह्मण ही तो हैं। 

महर्षि विश्वामित्र की पहचान उनके तपोबल के कारण है। बुद्ध की पहचान एक राजपूत्र की नहीं है, उन्होंने बुद्धत्व यानि ब्रम्ह त्तत्व को प्राप्त किया, इसलिए वो पूज्य हो गए। संत रविदास को कोई उनके वंश और कुल के आधार पर नहीं पूजता है। इस संसार में जितने भी महान आत्माओं का आगमन हुवा, उनको जाति, कुल और वंश के आधार पर नहीं पूजा जाता है। उनके विलक्षण गुणों के कारण उनकी पूजा की जाती है, यही ब्राम्हणत्व है। ब्राम्हणत्व एक ऐसा त्तत्व है, जो जाति, कुल, वंश एवम् सम्प्रदाय से परे है। 

वास्तव में जिन्हें वेदों का ज्ञान हो, वह अनैतिक नहीं हो सकता। वैसे लोग क्रोध, लोभ, मोह जैसे विकारों का शमन करने में सक्षम हो जाते हैं। उनके भीतर वेद को जानने का कोई अहंकार नहीं होता। वेदों का निर्माण मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए हुवा है। 

लेकिन ठीक इसके उलट ये जो शब्द हैं, इन्हें उपनाम अथवा उपाधि के रूप में प्रयोग करने की परम्परा चल पड़ी है। जो अहंकार का प्रतीक बन गया है। क्योंकि इन उपाधियों, उपनामों को धारण करनेवाले अधिकांश को वेदों से कोई लेना देना नहीं होता। जो सीख लेने का प्रयास करते हैं, और जिसे सीख मिल गई, वह तो ज्ञानी हो जाता है। वह अज्ञानियों की भांति व्यवहार नहीं करता। 

चौबे गए छब्बे बनने – यह  उक्ति हमें अहंकार से, महत्व की आकांक्षा से, लोभ से बचने को इशारा करती है। अहंकार, इच्छा, आकांक्षा, लालसा, लोभ, क्रोध सभी नकारात्मक ऊर्जाएं हैं। इन नकारात्मक विचारों के प्रभाव में आकर कोई उन्नतिशील नहीं हो सकता। और जो सकारात्मक सोच के साथ चलते हैं, उन्हें किसी दौड़ में प्रतिस्पर्धा में शामिल होने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे अपना हर कदम उन्नति के लिए बढ़ाते हैं। उनका हर प्रयास आत्मसुधार के लिए होता है। 

वास्तव में आत्मज्ञान को प्राप्त करना ही उन्नति है। इस संसार में हमारा जन्म क्यों हुवा? हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? यह जानना जरूरी है। वेदों का सार यही है कि आत्मज्ञान को प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। लेकिन इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है, प्रयास करना पड़ता है। और स्वयं को कैसे जाना जाए, आत्मज्ञान को कैसे प्राप्त किया जाए, इसके लिए अनेक विधाओं का उल्लेख वेदों में किया गया है।

ये जो शब्द हैं, महत्व की आकांक्षा को दर्शाते हैं। जहां महत्व की आकांक्षा होती है, वहां लालसा भी साथ साथ चलती है। लालसा का ही परिवर्तित रुप लालच है। और कहा गया है कि जहां लोभ है, वहां पाप है। और जहां पाप है वहां मृत्यु। यहां मृत्यु का आशय नैतिक पतन से है, चारित्रिक अवनति से है। 

अपने आप को कुछ होने का, कुछ समझने का अहंकार जिसमें है। और जिसकी महत्व की आकांक्षा कभी मिटती नहीं, लालसा में परिवर्तित हो जाती है। वह अपने कुछ होने के अहंकार को और अधिक पुष्ट करने में लग जाता है, छब्बे बनने का प्रयास करता है। 

यह उक्ति हमें सीख देती है कि धन, मान, कौशल को अर्जित करना बुरा नहीं है। जीवन यापन के लिए, सांसारिक दायित्वों को पूरा करने के लिए यह सबकुछ जरुरी है। परन्तु सांसारिकता में लिप्त होकर रह जाना पतनशील है। धन, मान, कौशल को अर्जित करने की दौड़ में लगे रहना निरर्थक है। यह दौड़ व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है। जीवन के वास्तविक उद्देश्य से विमुख कर देता है। 

चौबे गए थे छब्बे बनने का आध्यात्मिक अर्थ:

चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनके आए – इस उक्ति पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है। सामान्य मनुष्य में जो ज्ञान है, वह वास्तव में ज्ञान नहीं है। क्योंकि ज्ञान आत्मा का विषय है, ब्रम्ह का विषय है। प्रत्येक साधारण मनुष्य जो सांसारिकता में लिप्त है, वह ज्ञानी नहीं हो सकता। बुद्धिमान हो सकता है, और सामान्य जन में जो ज्ञान है, वह उसकी बुद्धि है। बुद्धि मन का विषय है, मन जो चाहता है, बुद्धि उसी के लिए कार्य करती है। बुद्धि मनुष्य के आकांक्षाओं का, लालसाओं का पोषक है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मनुष्य योनि में जो जन्म लेने का अवसर मिलता है, बहुत सौभाग्य से मिलता है। सोचने, विचारने, स्वयं में सुधार करने की क्षमता केवल मनुष्यों में ही होती है। मनुष्य विवेकशील प्राणी होता है, और यह जो विवेक है, अन्य जीवों में इसका अभाव होता है। यही जो त्तत्व है, मनुष्य को अन्य से पृथक करती है।

इस संसार में मनुष्य रूप में जन्म लेने का उद्देश्य जन्म मरण के चक्र से मुक्ति है। अर्थात् ब्रम्हाणु का ब्रम्ह में मिलन हो जाना है, यही मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है। जिस शरीर में आत्मा, ब्रम्हाणु अथवा प्राण ऊर्जा निहित होता है, उसके पोषण एवम् रक्षण हेतु कार्य करने का विधान है। कार्य तो करना ही पड़ेगा, क्योंकि जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति इस शरीर के माध्यम से ही संभव है। अगर यह शरीर स्वस्थ और सबल नहीं रहेगा, तो जप, तप, योग, ध्यान आदि कोई भी क्रिया ठीक ढ़ग से नहीं हो सकेगा।

परन्तु शरीर का पोषण करते करते मनुष्य इस शरीर के मोह में पड़कर उलझ जाता है। शरीर और अदृश्य ऊर्जा आत्मा के बीच एक और अदृश्य त्तत्व है, जो मन कहलाता है। मन का निर्माण जन्म जन्मांतर के कर्मों के प्रभाव से ही होता है। पूर्व जन्म के कर्मों का प्रभाव भी वर्तमान जीवन में असर डालता है। जिसे ज्ञानियों ने संचित कर्म कहा है। वर्तमान जीवन में इन संचित कर्मों के प्रभाव को मिटाने के लिए कर्म करना पड़ता है। और इस जन्म में कोई ऐसा कार्य न हो, जिसके मुक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न हो सके। यही समस्त वेदों का सार है।

चौबे गए छब्बे बनने – आध्यात्मिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि यहां चौबे उस जीवात्मा का प्रतीक है, जो संचित कर्म के बंधनों से जकड़ा हुवा है। जिसे मुक्ति चाहिए, और उसे स्वयं को मुक्त करने के लिए एक अवसर दिया गया है। विधाता ने इसे मनुष्य तन में प्रतिस्थापित किया है। ‘चौबे’ अर्थात् कर्म के बंधन से बंधा आत्मा को ‘छब्बे’ यानि कर्म के द्वारा ही बंधन मुक्त होने के लिए संसार में भेजा गया है। 

तू ने मुझको जग में भेजा देकर निर्मल काया, आकर इस संसार में मैंने इसमें दाग लगाया, जनम जनम की मैली चादर कैसे दाग छुड़ाऊं, मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊं।।

परन्तु ऐसा विरले ही होता है, जन्म जन्मांतर से मैली चादर ओढ़े रहनेवाला यह शुद्ध त्तत्व अपनी अशुद्धियों को दुर नहीं कर पाता। मन के प्रभाव में बुद्धि शरीर के पोषण में ही लगी रहती है, मन की आकांक्षाओं को पूरा करने में ही लगी रहती है। जब तक मन को नियंत्रित नहीं किया जाए, आत्मा के शुद्ध स्वरूप को विकसित करना असंभव है। जब जीवन समाप्त हो जाता है, यानि शरीर का क्षय हो जाता है, तो मन का आवरण पुनः: जीवात्मा के साथ वापस चला जाता है। संचित कर्मों का दुष्प्रभाव को और अधिक वृद्धि कर लौट जाता है, और भटकता रहता है। अपने आपको मुक्त नहीं कर पाता, यानि कि दुबे बनके लौट जाता है। 

चौबे गए छब्बे बनने दुबे बनके लौटे – वास्तव में इस उक्ति में जो गहन अर्थ छुपा है, वह साधारण नहीं है। यह उक्ति याद दिलाती है, मनुष्य मात्र को कि हे चतुर्वेदी  तुम्हें छ:वेदी बनना है, द्विवेदी बनने की ओर अग्रसर मत होना। अर्थात् हे संसारी मनुष्य, तुम्हें इस संसार में आत्मज्ञानी बनने के लिए भेजा गया है। यह संसार एक पड़ाव है, इसे घर समझने की भूल मत कर। इस शरीर से मोह मत कर, मन के मते मत चल। तुम्हे मन को नियंत्रित कर, इंन्द्रियों का शमन कर, जन्म-म‌रण के चक्र से मूक्ति प्राप्त करना है। यही तेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए, इसिलिए तुम्हें मनुष्य तन मिला है। वर्ना तेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा, तेरी अवनति हो जाएगी। द्विवेदी बनकर लौटेगा, और भटकता रहेगा। 

एक और कहावत है, जो प्रचलित है। यह है कि पछताए क्या होत है, जो चिड़िया चुग गई खेत। जब अंत समय आता है तो हर किसी को, जो सांसारिकता में लिप्त रहता है, उसे दुबे होने का अहसास अवश्य होता है। अंत समय में हर किसी को यह एहसास अवश्य होता है कि जो किया वो क्यों किया। परन्तु उसके पास पछतावा के अलावा और कुछ नहीं बचता। जिन्होंने वास्तव में इस सत्य को स्वीकार किया और अपने प्रयासों से आत्मज्ञान को प्राप्त किया, वे छब्बे बनकर लौटे। वे मुक्ति को प्राप्त हुवे, और अमर हो गए, पूज्य हो गए। समस्त संसार उनके समक्ष नतमस्तक है और रहेगी। और जो सांसारिकता में लिप्त होकर रह गए, वे दुबे बनकर लौटे, उनकी अवनति हो गई, उनका जीवन व्यर्थ हो गया। 

हे मानव, मुक्ति मिलेगी, मिल सकती है। अगर कर्म में योग होगा, ध्यान होगा, भक्ति होगी। और नहीं तो मुक्त होना असंभव है। जब तक ‘मैं’ रहेगा, अहंकार रहेगा, तब तक तुम उपनाम और उपाधि से खुश रहोगे। फिर जो मिलना चाहिए, जो होना चाहिए, हो न सकोगे, मिल न सकेगा। वेदों की ओर लौटो, वेदों के सार को समझो। इसके लिए तुम्हें पाठक बनना होगा, सीखना होगा, जानना होगा। चौबे गए छब्बे बनने – तो छब्बे बन सकता है, आत्मज्ञान को प्राप्त करना संभव है। क्योंकि इस धरा में आकर अनेक विभूतियों ने इस त्तत्व को प्राप्त किया है। और अगर किसी ने ऐसा किया है, तो सभी ऐसा कर सकते हैं। जरूरत समझ को जगाने की है।

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